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मंगलवार, 29 जुलाई 2014

बिल्लो रानी

             बिल्लो रानी
बिल्लियाँ जब है खिसयाती ,तो खम्बा नोचने लगती ,
     बिल्लियाँ रोटी को लड़ती,मज़ा बन्दर उठाता है
बिल्लियाँ मार करके नौ सौ चूहे ,हज़  को जाती है,
     गले में बिल्ली के घंटी ,कोई ना बाँध  पाता   है 
कोई में तेजी बिल्ली सी,किसी की आँख बिल्ली सी ,
   शेर की मौसी है और दाँव सौवां,उसको आता है
जिंदगी  खेल है बस एक चूहे और बिल्ली का ,
  दौड़ते दोनों है  लेकिन ,पकड़  कोई न पाता  है    
दबे पाँवों आ बिल्ली  दूध सारा , जाती है गटका,
बैर कुत्ते और बिल्ली का ,कभी भी  थम न पाता है
बड़े होशियार लोगों ने,चलाया है चलन ऐसा ,
गले में ऊँट के बिल्ली, बाँध कर बेचा जाता है
कोई अफसर जो दफ्तर में ,दहाड़ा करता शेरों सा,
सामने बीबी के आ ,भीगी बिल्ली ,बन वो जाता है
बड़ी ही होशियारी से ,पति को नोचती रहती,
और 'वो' बिल्लो रानी' के,सभी नखरे  उठाता है

 'घोटू'

पति की मजबूरी

           पति की मजबूरी

बड़े प्यार से पीना पड़ता ,कड़वी काफी भले दवा है
अच्छे खासे शेरों की भी,देती खिसका  सदा हवा है
दुनिया में वो,सबसे सुन्दर, यह कहना भी आवश्यक है,
 भले हो रही हो बूढी भी  ,कहना पड़ता किन्तु , जवां है
घर में अगर शान्ति रखना है ,तो फिर है ये बात जरूरी
चाहे नाम प्यार का दे दो,पर  ये  है पति  की  मजबूरी

घोटू 

मेंहदी और प्यार

         मेंहदी और प्यार

रचे तुम्हारे हाथों मेंहदी ,ज्यादा गहरी,सुन्दर,प्यारी
इसका भी है भार मुझी पर,ये भी पति की जिम्मेदारी
तुम मेंहदी लगवाती,प्रभु से ,खूब रचे,मैं विनती करता
कम रचती तो तुम ये कहती ,तुमसे प्यार नहीं मैं करता 
क्योंकि पता ना ,जाने किसने ,एक कहावत है ये कह दी
जितना ज्यादा प्यार पति का,उतनी ज्यादा रचती मेंहदी

'घोटू'

शनिवार, 26 जुलाई 2014

यूं ही बैठे बैठे

         यूं ही बैठे बैठे

रहे खुद को खुद में ही हरदम समेटे
उमर कट  गयी बस,यूं ही  बैठे  बैठे
यादों के बादल, घने  इतने  छाये ,
लगे आंसू बहने ,यूं ही  बैठे  बैठे
नज़र से जो उनकी ,नज़र मिल गयी तो,
गयी हो  मोहब्बत ,यूं  ही बैठे  बैठे
रहे वो भी चुप और हम भी न बोले,
हुई गुफ़्तगू सब ,यूं  ही  बैठे  बैठे
सिखाया बड़ों ने,करो काम दिल से,
न होगा कुछ हासिल ,यूं ही बैठे  बैठे
बहा संग नदी के ,गया बन समंदर ,
रहा सिमटा कूए में,जल बैठे बैठे
कई राहियों को ,दिला कर के मंजिल,
रही टूटती पर,सड़क  बैठे  बैठे
उमर का सितम था,बचा कुछ न दम था,
जब आया बुढ़ापा ,यूं  ही बैठे बैठे
जो कहते थे कल तक,है चलने में दिक्कत ,
गए कूच  वो कर,,यूं ही  बैठे बैठे
कलम भी चली और चली उंगलियां भी ,
ग़ज़ल लिख दी'घोटू' ,यूं  ही बैठे, बैठे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

फिसलपट्टी

         फिसलपट्टी

हौंसला हारते है वो, बड़े कमजोर दिल होते ,
              जुझारू जानते, मुश्किल से है कैसे लड़ा जाता
किसी की नज़रों से गिरना ,बड़ा तकलीफ देता है,
              नज़र से गिर गए तो फिर,नहीं आगे बढ़ा जाता
हुस्न को देख कर के दिल,तो सबका ही फिसलता है,
             बड़ी फिसलन मोहब्बत में,संभल कर है चला जाता
फिसल पट्टी ,फिसलने में,बड़ा आनंद देती है ,
            बड़ी मुश्किल से उस फिसलन पे फिर ऊपर चढ़ा जाता

घोटू   

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