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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

आतंकवादी बम धमाकों पर...



इकहत्तर की उमर हो गयी

  इकहत्तर की उमर हो गयी   


पल पल करके ,गुजर गए दिन,दिन दिन करके ,बरसों बीते
  इकहत्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते
जीवन की आपाधापी में ,पंख लगा कर वक्त उड़ गया
छूटा साथ कई अपनों का ,कितनो का ही संग जुड़ गया
सबने मुझ पर ,प्यार लुटाया,मैंने प्यार सभी को बांटा
चलते फिरते ,हँसते गाते ,दूर किया मन का सन्नाटा
भोला बचपन ,मस्त जवानी ,पलक झपकते ,बस यों बीते
  इकहत्तर की उमर हो गयी ,लगता है कल परसों बीते
सुख की गंगा ,दुःख की यमुना,गुप्त सरस्वती सी चिंतायें
इसी त्रिवेणी के संगम में ,हम जीवन भर ,खूब नहाये
क्या क्या खोया,क्या क्या पाया,रखा नहीं कुछ लेखा जोखा
किसने उंगली पकड़ उठाया,जीवन  पथ पर किसने रोका
जीवन में संघर्ष बहुत था ,पता नहीं हारे या जीते
  इकहत्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

तुमने ऐसी आग लगा दी

             तुमने ऐसी आग लगा दी

               मै पग पग रख ,धीरे चलती
               तुम चलते हो जल्दी ,जल्दी
मै बस चार कदम चल पायी,और तुमने तो दौड़ लगा दी  
               मंद  आंच सी, मै  हूँ जलती
             और तुम तो हो  लपट दहकती 
तुमने अपनी चिंगारी से ,तन मन में है आग   लगा दी
              ऊष्मा है तो मेघ उठेंगे
             घुमुड़ घुमुड़  कर वो गरजेंगे
             रह रह कर बिजली कड़केगी , 
              तप्त धरा पर फिर बरसेंगे 
              बहुत चाह  थी मेरे मन की 
              भीगूं रिमझिम में  सावन की
लेकिन तुम तो ऐसे बरसे,प्रेम झड़ी ,घनघोर लगा दी
मै बस चार कदम चल पायी,और तुमने तो दौड़ लगा दी 
               मै हूँ पानी,तुम हो चन्दन
             हम मिल जुल ,करते आराधन 
               तुम घिस घिस इस तरह घुल गये
                महक गया तन मन का आँगन
               चाहत थी तन में खुशबू भर
                चढूँ  देवता के मस्तक पर
तुम को अर्पित करके सब कुछ,जीवन की बगिया महका दी
 मै बस चार कदम चल पायी ,और तुमने तो दौड़  लगा  दी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

शिशु की भाषा

          शिशु की भाषा

नन्हे शिशु की,होती बस दो भाषा है
एक तो वो हँसता है ,एक वो रोता है
इन्ही दो भाषाओँ में वो,सब कुछ व्यक्त किया करता है
इन भाषाओँ की ,कोई लिपि नहीं होती,
और इन्हें समझने के लिए ,
कोई अक्षर या भाषा के ज्ञान की जरुरत नहीं होती
बच्चा जब हँसता है ,
किलकारियां भरता है ,
तो सभी के चेहरे पर खुशियाँ छाती है
उसकी मुस्कान की भाषा ,
सबको समझ में आ जाती है
पर बच्चा जब रोता है,
अपने कोमल से कपोलों को आंसूं से भिगोता है
सारा घर परेशान होता है
क्योंकि ये भाषा ,हर एक को समझ नहीं आती है
सिर्फ एक माँ है ,जो कि समझ पाती है
कि उसे भूख लगी है या पेट में दर्द है
या उसके कपडे गीले हो गए है और सर्द है
अपने कलेजे के टुकड़े की ये दो भाषाएँ
पूर्ण रूप से जिन्हें ,समझ सकती है बस मायें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

पेट के खातिर

          पेट के खातिर
पेट के खातिर न जाने ,क्या क्या करता आदमी
पेट के खातिर ही जीता और मरता  आदमी
पेट में जब आग लगती ,तो बुझाने के लिये ,
जो न करना चाहिए ,वो कर गुजरता  आदमी
नौकरी ,मेहनत  ,गुलामी,में स्वयं को बेच कर,
अपना और परिवार सबका ,पेट भरता  आदमी
खेत में हल चला कर के,अन्न उपजाता कई ,
तब कहीं दो रोटियां खा,गुजर करता  आदमी
मूक ,निर्बल जानवर को,काट,उनका मांस खा,
भूख अपनी मिटाने  में,नहीं डरता  आदमी
पाप और अपराध इतने,हो रहे संसार में ,
पेट पापी के लिए ,बनता बिगड़ता  आदमी
पेट हो खाली अगर तो,भजन भी होता नहीं,
इसलिए ,पहले भजन के ,पेट भरता आदमी
कहते हैं कि  दिल का रास्ता,पेट से है गुजरता ,
पहले भरता पेट है फिर इश्क करता  आदमी
पेट भरने के लिये  ,खटता  है और जीता है वो,
या कि जीने के लिये है,पेट भरता   आदमी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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