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रविवार, 8 जुलाई 2012

बदलते मौसम

 बदलते मौसम

जब ज्यादा गर्मी पड़ती है

तो कितनी मुश्किल बढती है
बार बार बिजली  जाती है
पानी की दिक्कत आती है
और जब आती बारिश ज्यादा
वो भी हमको नहीं सुहाता
सीलन,गीले कपडे, कीचड
और जाने कितनी ही गड़बड़
और जब पड़ती ज्यादा सर्दी
तो मौसम लगता बेदर्दी
तन मन की ठिठुरन बढ़ जाती
गरम धूप है हमें सुहाती
जब भी मौसम कोई बदलता
थोड़े दिन तो अच्छा लगता
लेकिन फिर लगता चुभने
क्यों होता सोचा क्या तुमने?
क्योंकि लालसा जिसकी मन में
जब वो आता है जीवन में
थोड़े दिन तो मन को भाता
लेकिन फिर है जी उकताता
ये तो मानव का स्वभाव है
कुछ दिन रहता बड़ा चाव है
किन्तु चाहता फिर परिवर्तन
स्वाद चाहिये  नूतन,नूतन
प्रकृति काम करे है अपना
ठिठुरन कभी बरसना,तपना
वैसे ही निज काम करें हम
और मौसम से नहीं डरें हम
मौसम तो है आते ,जाते
मज़ा सभी का लो मुस्काते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम

स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम

 एक बार भगवान विष्णु,
 अपने वहां गरुड़ पर बैठ कर,
 शिवजी से मिलने,
पहुंचे पर्वत कैलाश   पर
शिवजी के गले में पड़ा सर्प,
गरुड़ को देख कर,गर्व से फुंकार मारता रहा
तो मन मसोस कर गरुड़ ने कहा
स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम
तेरा मेरा बैर हर कोई जानता है
पर इस समय तू शिवजी के गले में है,
इसलिए फुफकार मार रहा है,
ये तेरे बल की नहीं,स्थान की प्रधानता है
आदमी की पोजीशन,
उसके व्यवहार में,स्पष्ट दिखलाती है
सुहागरात को दुल्हन बनी गधी भी इतराती है
गरीब से गरीब आदमी भी,
जब घोड़ी चढ़ता है,दूल्हा राजा बन जाता है
कुर्सी पर बैठा,छोटा सा जज  भी,
बड़े बड़े लोगों को जेल भिजवाता है
अदना सा ट्रेफिक हवालदार,सड़क के चोराहे पर
बड़े बड़े लोगों की,गाड़ियाँ ,
रोक दिया करता है,हाथ के इशारे पर
बाल जब सर पर उगते है ,
तो कुंतल बन लहराते,सवाँरे जाते है
वो ही बाल,जब गालों पर उगने का दुस्साहस करते है,
रोज रोज शेविंग कर,काट दिए जाते है
बड़े  बड़े अफसर,जब होते कुर्सी पर,
तो उनके आगे ,दफ्तर भर डरता है  
पर घर पर तो उसकी,बॉस उसकी बीबी है,
उसी के इशारों पर ,नाच किया करता है
रौब दिखलाने में,आदमी के रुतबे की,
बड़ी  सहायता होती है
हमेशा देखा है,बल की प्रधानता नहीं,
आदमी की पोजीशन की प्रधानता होती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 7 जुलाई 2012

कुछ परिभाषायें

              कुछ परिभाषायें
                   1
             राष्ट्रपिता      
    ये वो महान आत्मा है,जो राष्ट्र  को बनाता है
    भूखा रहता है,उपवास करता है
    दुश्मनों से लड़ता है,आन्दोलन करता है
राष्ट्र को गुलामी के फंदे से छुड़ाता है
और गोलियां खाकर के,शहीद हो जाता  है
दीवारों पर तस्वीर बन कर बन कर लटक जाता है
या फिर नोटों पर छाप दिया जाता  है
साल में एक दिन छुट्टी दिलाता है और याद किया जाता है
 वो महा पुरुष,राष्ट्रपिता कहलाता है
                     २
           राष्ट्रपति
ये वो निरीह प्राणी है,
जो घर का मुखिया तो कहलाता है
पर सारे फैसले  उसकी बीबी,
याने कि केबिनेट लेती है,
वो तो सिर्फ मोहर लगाता है
पति कि तरह सारे सुख पाता है
पर खुद कुछ  नहीं कर पाता है
पति कि तरह रहता है,
इसलिए राष्ट्र पति कहलाता है
                  ३
   सांसद निधि
ये जनता से करों द्वारा वसूला गया वो धन है,
जो जनता के नुमाइंदो को,
विकास के लिये बांटा  जाता है,
और जिससे वे,पहले अपना ,
फिर अपने    परिवार का विकास करते है,
और बची हुई सारी राशि,
अगले चुनाव में,
जनता को  लुटा दिया करते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


खंडहर बोलते हैं

     खंडहर बोलते हैं

जब भी मै कोई पुरानी इमारत के ,

खंडहर देखता हूँ,
मेरी कल्पनायें,पर लग कर उड़ने लगती है,
और पहुँच जाती है उस कालखंड में,
जब वो इमारत  बुलंद हुआ करती थी
जब वहां जीवन का संगीत गूंजता था
क्योंकि खंडहर काफी कुछ बोलते है
बस आपको उनकी भाषा की समझ होनी चाहिए
और कल्पना शक्ति होनी चाहिये ये देखने की,
कि आज जहाँ घिसी और उखड़ी हुई फर्श है,
कभी  वहां,गुदगुदे कालीन पर,
किसी के मेंहदी से रचे कोमल पांवों की,
पायल की छनछन सुनाई देती थी
और आज की इन बदरंग दीवारों ने,
जीवन के कितने रंग देखे  होंगें
अगर आपकी कल्पनाशक्ति तेज़ है,
और नज़रें पारखी है,
तो आप इतना कुछ देख सकते हो,
जो किसी ने नहीं देखा होगा
आप जब भी किसी बूढी महिला  को देखें ,
तो कल्पना करें,
कि जवानी के दिनों में,
उनका स्वरूप कैसा रहा होगा
झुर्री वाले गालों में कितनी लुनाई  होगी
ढले हुए तन पर ,कितना कसाव होगा
आज जो वो इतनी गिरी हुई हालत में है,
जवानी में उनने कितनी बिजलियाँ गिराई होगी
और जब आप उनकी जवानी कि तस्वीरों को,
अपने ख्यालों में उभरता हुआ साकार देखेंगे,
सच आपको बड़ा मज़ा आएगा
ये शगल इतना मनभावन होगा,
कि आसानी से वक़्त गुजर जाएगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

काश तुम समझ पाते


काश तुम समझ पाते,
कि जब चुना था तुम्हें,
तो कितना विश्वास था तुमपे,
अच्छा जँचे थे तुम;

बेहतर लगे थे सबसे,
सबसे सच्चे भाते,
बहुत आस था तुमसे,
काश तुम समझ पाते |

थे तो कई,
मैदान में लेकिन,
तेरे ही नाम को,
पसंद किया हमने;

इन बातों पे थोड़ा,
तुम गौर तो फरमाते,
भावनाओं को हमारी,
काश तुम समझ पाते |

यूं सिला दोगे,
यूं रुलाओगे हुमे,
भूल जाओगे सबकुछ,
ये सोचा न था;

चुनाव को हमारे,
तुम सही तो ठहराते,
बहुत खुशी होती हमे,
काश तुम समझ पाते |

चुन करके गए,
फिर दर्शन भी न हुए,
ज्यों जन-प्रतिनिधि नहीं,
ईद का चाँद हो गए;

कभी-कभार तो आते,
बस हाल ले के जाते,
गर्व होता हमको,
काश तुम समझ पाते |

आज हम परेशान हैं,
तरह तरह की समस्याओं से,
हमारे बीच के होके भी,
तुम हमारे न रहे;

हर वोट की कीमत,
ऐ काश तुम चुकाते,
बन जाते महान,
काश तुम समझ पाते |

जन-जन है लाचार,
दो रोटी को तरसते,
और लगे हो तुम,
झोली अपनी भरने में;

निःस्वार्थ होकर थोड़ा,
परमार्थ भी दिखाते,
सच्चा नेता कहलाते,
काश तुम समझ पाते |

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