भगवती शांता परम सर्ग-6
भाग-2
अंग-देश में अकाल
एवं
शाळा का हाल
एवं
शाळा का हाल
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||
झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||
खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||
जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||
अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||
शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||
शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||
भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||
कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||
कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||
अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||
धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||
कैकय का गेंहूँ वणिक, बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||
अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||
लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||
किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||
लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||
शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||
कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||
सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||
भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||
शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||
तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||
रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||
शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||
शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||
कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||
कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||
सावन में पूरे हुए, पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||
कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||
ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||
करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||
आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||
मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना, राखी का त्योहार ||
स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||
बारह बालाएं गईं, हुईं जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||
नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||
सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||
इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||
जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||
बर्बादी खाद्यान की, लो इकदम से रोक |
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
राजा अब अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||