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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दबे पांव आ गया बुढ़ापा 

मैंने कितना रोका टोका बात न मानी 
दबे पांव आ गया बुढ़ापा गई जवानी 

मैंने लाख कोशिशें की, कि यह ना आए 
फूल जवानी का न कभी भी मुरझा पाए 
कितने ही नुस्खे अपनाएं, पापड़ बेले 
जितने भी हो सकते थे, सब किये झमेले
च्यवनप्राश के चम्मच चाटे, टॉनिक पिए 
किया फेशियल और बाल भी काले किये
 रंग-बिरंगे फैशन वाले कपड़े पहने 
 बन स्मार्ट, लगा तेज फुर्तीला रहने 
 जिम में जाकर करी वर्जिशें,भागा दौड़ा 
 लेकिन ये ना माना, आकर रहा निगोड़ा 
 मैं जवान हूं, सोच सोच कर मन बहलाया
  हुई कोशिशें लेकिन मेरी सारी जाया 
  धीरे धीरे थी मेरी आंखें धुंधलाई
  और कान से ऊंचा देने लगा सुनाई
  तन की आभा क्षीण, अंग में आई शिथिलता 
  मुरझाया मुख, जो था कभी फूल सा खिलता 
  शनेःशनेःचुस्ती फुर्ती में कमी आ गयी
  मेरे मन में बेचैनी सी एक छा गयी
  और लग गई, तन पर कितनी ही बिमारी
 थोड़ी थोड़ी मैंने भी थी हिम्मत हारी
 पर फिर मैंने,अपने मन को यह समझाया 
 यह जीवन का चक्र, रोक कोई ना पाया
 इस से डरो नहीं तुम बिल्कुल मत घबराओ
 बल्कि उम्र के इस मौसम का मजा उठाओ 
 क्योंकि यही तो बेफिक्री की एक उमर है 
 ना चिंता है, भार कोई भी ना सर पर है
  जो भी कमाया,जीवन में,उपभोग करो तुम
   मरना सबको एक दिवस है, नहीं डरो तुम 
   समझदार अंतिम पल तक है मजा उठाता 
  डरो नहीं , इंज्वॉय करो तुम यार बुढ़ापा

मदन मोहन बाहेती घोटू
घर के झगड़े 

घर के झगड़े ,घर में ही सुलझाए जाते 
लोग व्यर्थ ही कोर्ट कचहरी को है जाते 

संग रहते सब ,कुछ अच्छे, कुछ लोग बुरे हैं 
यह भी सच है ,नहीं दूध के सभी धुले हैं 
छोटी-छोटी बातों में हो जाती अनबन
एक दूसरे पर तलवारे ,जाती है तन
वैमनस्य के बादल हैं तन मन पर छाते
घर के झगड़े घर में ही सुलझाए जाते 

कुछ में होता अहंकार, कुछ में विकार है 
इस कारण ही आपस में पड़ती दरार है 
होते हैं कुछ लोग,हवा जो देते रहते 
आग भड़कती है तो मज़ा लूटते रहते 
जानबूझकर लोगों को है लड़ा भिड़ाते
घर के झगड़े ,घर में ही  सुलझाए जाते 

पर जबअगला है थोड़ी मुश्किल में आता 
सब जाते हैं खिसक कोई ना साथ निभाता
 इसीलिए इन झगड़ों से बचना ही हितकर 
 जीना मरना जहां ,रहे हम सारे मिलकर 
 बादल हटते , फूल शांति के है खिल जाते 
 घर के झगड़े घर में ही सुलझाए  जाते

मदन मोहन बाहेती घोटू

सोमवार, 2 अगस्त 2021

जीने की ललक

 जिस्म गया पक , पैर कब्र में रहे लटक है 
 फिर भी लंबा जिएं, मन में यही ललक है 
 
 तन के सारे अंग, ठीक से काम न करते 
 तरह-तरह की बीमारी से हम नित लड़ते 
 कभी दांत में दर्द ,कभी है मुंह में छाले 
 पर मन करता,सभी चीज का मजा उठा ले
 खा लेते कुछ,पाचन तंत्र पचा ना पाता 
 सांस फूलती ,ज्यादा दूर चला ना जाता 
 लाख दवाई खाएंगे, टॉनिक पिएंगे 
 लेकिन मन में हसरत है, लंबा जिएंगे 
 हुस्न देख, आंखों में आती नयी चमक है
 फिर भी लंबा जिएं, मन में यही ललक है 
 
कोई अपंग अपाहिज है ,चल फिर ना सकता 
फिर भी उसका मन लंबा जीने को करता 
 इस जीने के लिऐ न जाने क्या क्या होता 
 कोई चलाता रिक्शा, कोई बोझा ढोता 
 कोई अपना जिस्म बेचता ,जीने खातिर 
 कोई चोरी करता ,कोई बनता शातिर 
 इस जीने के चक्कर में कितने मरते हैं 
 जो जो पापी पेट कराता ,सब करते हैं 
 गांव-गांव में गली-गली में रहे भटक है 
 फिर भी लंबा जिएं,मन में यही ललक है 
 
कोई वृद्ध है, नहीं पूछते बेटी बेटे 
दिन भर तन्हा यूं ही रहते घर में बैठे 
बड़े तिरस्कृत रहते ,होता किन्तु अचंभा 
उनके मन में भी चाहत, वो जिए लंबा 
बंधा हुआ मन है मोह माया के चक्कर में 
उलझा ही रहता है बच्चों में और घर में 
हैं बीमार अचेत,सांस वेंटीलेटर पर 
फिर भी चाहें, बढ़ जाएं जीवन के कुछ पल 
दुनिया में क्यों रहते सब के प्राण अटक  है 
फिर भी लम्बा जिएं मन में यही ललक है

मदन मोहन बाहेती घोटू

शनिवार, 31 जुलाई 2021

देर लगा करती है 

इस जीवन में काम बहुत से ,
धीरज धर कर ही होते हैं ,
किंतु लालसा जल्दी पाने की,
तो दिन रात लगा करती है 
बेटा बेटी भाई बहन तो ,
पैदा होते ही बन जाते हम,
पर दादा या नाना बनने 
में तो देर लगा करती है 

काम बहुत से बिन मेहनत के 
हो जाते हैं जल्दी जल्दी 
भले आप कुछ करो ना करो,
 तन का हो जाता विकास है 
 लेकिन ज्ञान तभी मिलता है,
 जब मिल जाता कोई गुरु है 
 जो करता है मार्ग प्रदर्शित 
 जीवन में आता प्रकाश है 
 इस शरीर में सात चक्र हैं
  उन्हें जागृत करना पड़ता,
  बिना तपस्या योग साधना ,
  कुंडलिनी नहीं जगा करती है 
  इस जीवन में काम बहुत से
  धीरज धड़कन ही होते हैं 
  किंतु लालसा जल्दी पाने,
  की दिनरात लगी रहती है 
  
पहले दांत दूध के गिरते,
है फिर नए दांत आते हैं ,
अकल दाढ़ के आने में पर, 
फिर भी लग जाते हैं बरसों 
हरेक फसल उगने ,पकने का,
 अपना अपना टाइम होता ,
 यूं ही हथेली पर पल भर में ,
 नहीं उगा करती है सरसों 
 इस मरुथल में हम सब के सब 
 माया पीछे भाग रहे हैं 
 ललचाती मृगतृष्णा हमको,
 ये दिनरात ठगा करती है
  इस जीवन में काम बहुत से
 धीरज धर कर ही होते हैं 
 किंतु लालसा जल्दी पाने 
 की दिन रात लगी रहती है

मदन मोहन बाहेती घोटू
बदलाव 

दिल के टूटे बर्तन किस से ठीक कराऊं
मुझे गांव में मिलता नहीं ठठेरा कोई 
ना तो कोई धर्मशाला ना सराय है ,
मैं तलाशता, मिलता नहीं बसेरा कोई 

कहीं आजकल प्यास बुझाने प्याऊ लगती,
 ना मिलता माटी मटके का ठंडा पानी 
 ना तो कोई कुआं दिखता है ना पनघट है ,
 ना ही पानी भरती पनिहारिने सुहानी 
 कुछ पल मैं, विश्राम करूं ,बैठूं निरांत से
 बहुत ढूंढता मिल पाता ना, डेरा कोई 
 दिल के टूटे बर्तन किस से ठीक कराऊं,
 मुझे गांव में मिलता नहीं ठठेरा कोई 
 
अब संयुक्त परिवार ना रहे पहले जैसे
 बिखर गए सब भाई बहन और चाचा ताऊ 
 अपनों में ही अपनेपन का भाव ना रहा,
 सारे रिश्ते ,अब बनावटी और दिखाऊं
 जिसके संग जी खोल कर सकूं बातें दिल की ,
 ऐसा मुझको नजर  न आता मेरा कोई 
 दिल के टूटे बर्तन किस से ठीक कराऊं
 मुझे गांव में मिलता नहीं ठठेरा कोई

मदन मोहन बाहेती घोटू

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