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बुधवार, 16 जून 2021

यह क्या हो गया देखते देखते

 भरतिये में आदन  रखकर उबलने वाली दाल को ,कब सीटी बजाने वाले कुकर से प्यार हो गया 
 पता ही न चला
 लकड़ी से जलने वाले चूल्हेऔर कोयले की अंगीठी कब स्टोवऔर गैस के चूल्हे में बदल गई 
 पता ही न चला
  मिट्टी के मटके में भरा हुआ पीने का पानी कब प्लास्टिक की बोतलों में समाने लगा 
  पता ही नहीं चला
  हाथों से डुलने वाला पंखा कब छत पर चढ़ कर फरफराने  लगा 
  पता ही नहीं चला
  सुबह-सुबह अपनी चहचहाट से जगाने वाली गौरैया कहां गुम हो गई 
  पता ही न चला
  दालान में बिछी कच्ची ईंटे ,लोगों का चरण स्पर्श करते करते कब की टाइलें बन गई
  पता ही न लगा
 झुनझुना बजा कर खुश होने वाले बच्चों के हाथ में कब मोबाइल आ गया 
 पता ही न चला
 अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए लिफ्ट ने सीढ़िया चढ़ने की जरूरत ही हटा दी,
 पता ही न चला
 अमराई के फल और हवा देने वाले पेड़ ,कब चौखट और दरवाजे बन गए 
 पता ही न चला
  कलकलाती नदियां , लहराते सरोवर और पनघट वाले मीठे पानी के कुवों से कब पानी रूठ गया
  पता ही न चला
  चिल्लर के खनखनाते सिक्कों ने कब चलना छोड़ दिया 
  पता ही न चला
 प्रदूषण का रावण कब प्राणदायिनी हवा का अपहरण करके उसे ले गया 
 पता ही न चला
 गिल्ली डंडा खेलने वाले हाथों में कब क्रिकेट का बल्ला आ गया,
 पता ही न चला
 अपनो का साथ छोड़ किसी अनजाने से आत्मिक रिश्ते कैसे जुड़ गए 
 पता ही न चला
 लहराते घने केश , चिंताओ के बोझ से कब उड़ गए,
 पता ही न चला 
 देखते ही देखते जवानी कब रेत की तरह मुट्ठी से फिसल गई
 पता ही न चला
 बचपन की किलकारियां कब बुढ़ापे की सिसकारियों में बदल गई
 पता ही  न चला
 तीव्र गति से आई प्रगति ने हमारी क्या दुर्गती बना दी
 पता ही न चला

मदन मोहन बाहेती घोटू

शनिवार, 12 जून 2021

लातों के भूत

 हम लातों के भूत, बात से नहीं मानते 
 कोई सुने ना सुने, हमेशा डींग हांकते 
 
बचपन में जब छड़ी गुरुजी की थी पड़ती 
तभी हमारे सर पर, विद्या देवी चढ़ती 
ऐंठे जाते कान ,बनाते मुर्गे जैसा 
या कि बेंच पर रहना पड़ता खड़ा हमेशा
करती बुद्धि काम, समझ में सब कुछ आता 
लंगड़ी भिन्न सवाल ,तभी सुलझाया जाता  
अपना पाठ ठीक से करना, तभी जानते 
हम लातों के भूत, बात से नहीं मानते 

फिर इतने दिन अंग्रेजों की गुलामी 
वह तो गए, न हमने छोड़ी पूछ हिलानी 
चाटुकारिता करते रहना , भूल न पाये
कहां आत्मसम्मान खो गया समझ नआये
कब तक सोये यूं ही रहेंगे ,कब जागेंगे 
कब उबलेगा खून, हक अपना मांगेंगे 
क्यों ना रुद्र रूप दिखला ,हम  भृकुटी तानते
हम लातों के भूत ,बात से नहीं मानते 

मदन मोहन बाहेती घोटू

गुरुवार, 10 जून 2021

क्या यह भी जीना है 

अपनी इच्छाओं पर बस कर 
यूं ही जीना तरस तरस कर 
क्या हम को हक नहीं बुढ़ापा,
अपना कांटे ,हम हंस-हंसकर 

बाकी सब तो ठीक-ठाक है 
लेकिन तन तंदुरुस्त नहीं है 
ना है पहले सा फुर्तीला ,
सुस्त पड़ा है , चुस्त नहीं है 

ये मत खाओ वो मत पियो 
लगी हुई हम पर पाबंदी 
तन के द्वारों पर रोगों ने 
लगा रखी है नाकाबंदी 

आंखों में जाला छाया है 
श्रवण शक्ति भी हुई मंद है 
चलते हैं तो सांस फूलती,
और दर्द दे रहे दंत हैं 

किडनी लीवर आमाशय के 
कारण पीड़ित अन्य द्वार हैं 
कमजोरी ने घेर रखा है 
तन और मन दोनों बीमार हैं  

ऐसी कठिन परिस्थितियों में 
जीना होता कितना दुष्कर
फिर भी बच्चे कहते पापा ,
जिओ खुशी से तुम हंस-हंसकर 

सुबह शाम दोपहर दवाई,
आधा पेट इन्ही से भरता 
फिर भी झेल रहे हैं यह सब 
मरता क्या न भला है करता 

भुगत रहे जो लिखा भाग्य में
 यूं ही किसी को हम क्यों कोसें
 छोड़ दिया है हमने अब तो ,
 सब कुछ ही भगवान भरोसे 
 
उबला खाना, बिना मसाला 
दूध चाय फीका पीना है 
इसको ही जीना कहते हैं 
तो फिर ऐसे ही जीना है

मदन मोहन बाहेती घोटू
गर्मी की छुट्टी और रस की घुट्टी 

जब भी याद आता है बचपन,दिन गर्मी की छुट्टी वाले 
आंखों आगे नाचा करते, मीठे आम चूसने वाले 
इंतजार हमको रहता था, कब आए गर्मी की छुट्टी 
कब आमों का मजा उठाएं हम भर मुंह में रस की घुट्टी  
रोज टोकरी भर भर कर के आया करते आम गांव से
 पहले खट्टे हैं या मीठे ,सब चखते थे बड़े चाव से 
भावताव कर फिर फुर्ती से आम छांटने हम जुट जाते 
मोटे-मोटे आमों को चुन ,बड़े शान से हम इतराते 
नहीं वजन से किंतु सेंकडे, से थे आम बिका करते तब 
नए स्वाद वाले आमों का हर दिन पाल खुला करता जब 
कम से कम दो-तीन किसम के आम रोज घर में आते थे 
कुछ का अमरस बनता बाकी,चूस चूस हम सब खाते थे 
शाम बाल्टी में पानी की, करते ठंडा आमो को भर 
जब पूरा परिवार बैठता ,था गर्मी में खुल्ली छत पर 
सभी उठाते आम, पिलपिला करते, पीते रस की घूंटे  
और चूसते गुठली इतना ,एक बूंद भी रस ना छूटे 
किसने कितने आम हैं चूसे, गुठली से होती थी गिनती
 खट्टे आम अगर होते तो सुबह फजीता सब्जी बनती 
चाकू से कटने वालों को, कलमी आम कहा जाता था
 कभीकभी जब मिल जाते तो थोड़ा स्वाद बदल जाताथा  
ना जाने क्यों अब रसवाले, आम हो गए हैं अब गायब 
तोतापुरी सफेदा लंगड़ा और दशहरी आते हैं अब 
सबको काट, चुभा कर कांटा, बड़े चाव से खाया जाता किंतु रोज नित नए स्वाद के आम चूसना याद है आता
 कटे आम के पेड़ बन गए, घर के चौखट और दरवाजे 
इसीलिए मुश्किल से मिलते ,आम रसीले ताजे ताजे 
रोजरोज ही नए किसम का स्वाद रसीला अब है दुर्लभ 
नहीं रहे वो खाने वाले और ना ही वो आम रहे अब

मदन मोहन बाहेती घोटू

बुधवार, 9 जून 2021

Eco friendly Jute/canvas cooler bags in various style from yiwu zhijian bags co.,ltd

Dear bahetimmtara1:

  Good morning,

   I'm writing to let you know that the shipping cost by Sea/Air/DDP/DDU are set of soar, as well as the price adjusting again on the raw materials,  and please be assured that we have made every effort to keep this increase to a miminum and will continue to honor current price structures up to  the end of June.2021.

   As always ,we are committed to providing quality products and services to you and appreciate you business and continued support.

   With the new bag /available bags/various printing desig(free printing moulds) in an E- catalouges ,welcome to download them from our site at:  https://www.zj-bags.net/en/download.html



Sincerely yours.
Bruce
Director
Expt Dept
YIWU ZHIJIAN BAGS CO.,LTD
p: 0086-579-86680309  m: 0086-18057970309
f: 0086-579-85135034  skype: bruceliuqing
w: www.zj-bags.net​  e: zjbags1@zj-bags.net
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SMETA (SEDEX 4 pillar) audited by BV (SEDEXcode:ZC410512140)

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