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मंगलवार, 4 अगस्त 2020

गोलगप्पे वाले की गुहार

याद आते है वो दिन
जब जिंदगी थी कोरोना बिन
मैं रोज शाम अपना ठेला सजाता था
और बाज़ार में अपने ठिये पर जाता था
दो तरह के गोलगप्पे ,दो तरह का पानी
जिसकी थी जनता दीवानी
देख कर मेरा गोलगप्पों का ठेला
लग जाता था  चाट के शौकीनों का रेला
मैं चार पांच औरतों को दोने पकड़ाता था  
और एक एक गोलगप्पा ,उनकी पसंद के मुताबिक ,
पानी भर कर उन्हें खिलाता था
वो जब अपने लिपस्टिक लगे होठों को चौड़ा कर ,
गोलगप्पों को गटकाती थी
और उनकी आँखों में ,
जो चटपटे स्वाद से चमक आती थी
सच मुझे बहुत सुहाती थी
सोफेस्टिकेटेड और आधुनिकतम ,
महिलाएं भी उस समय बेतकल्लुफ हो जाती थी
वो न तो अपने लिपस्टिक पर ,
ना अपने मेकअप पर ध्यान देती थी
बस जी भर के गोलगप्पों का स्वाद लेती थी
वो बाद मे भी खट्टा मीठा पानी मांगती रहती थी
और भले ही वो मुझे भैयाजी भैयाजी कहती थी
पर फिर भी उनकी स्वाद भरी संतुष्टि
मुझे लगती यही बड़ी अनूठी
पता नहीं भगवान ने चाट के चटपटेपन और
औरतों के चटोरेपन का क्या रिश्ता बनाया है
जब भी चाट का ठेला देखा ,
उनका  का मन ललचाया है
पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक
पूरे देश में गोलगप्पों का बोलबाला है
पानीपूरी कहो या फुलकी ,
पानी पताशा कहो या पुचका ,
गोलगप्पों का स्वाद निराला है
मैं शाम को भरा ठेला और खाली जेब लिए जाता था
और रात को खाली ठेला व भरी जेब लिए आता था
सच उनदिनों कितनी बरकत थी और रहती थी बहार
पर कोरोना ने बंद करवा दिए सारे बाज़ार
चार महीनो से बैठा हूँ बेकार
मैं खुद हो गया हूँ गोलगप्पे सा खोखला ,
बिना पानी के स्वाद हीन
याद करता हूँ कोरोना के पहले के दिन रंगीन
अब गोलगप्पों का पानी तो गया ,
मेरी आँखों से पानी निकलता है
मेरा दिल रह रह कर जलता है
समय क्या क्या न करादे ,आदमी की विवशता है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
पत्नीजी का मोबाईल प्रेम

तुम हाथों में ले मोबाईल ,घंटों खेला करती उस संग
करती रहती हो चार्ज उसे ,इस तरह रंग गयी उसके रंग
घंटे ,दो घंटे ,उसके संग ,ना खेलो , नींद नहीं आती
उस चिकने चिकने मोबाईल,को बड़े प्यार से सहलाती  
जितना टाइम उसको देती ,उसका बस पांच प्रतिशत भी
यदि वक़्त मुझे जो तुम दे दो ,दिखलादो वही मोहब्बत भी
फाइव जी ,टू जी में उलझी ,तुम ढूंढा करती नेट वर्क
मैं प्यार तुम्हे सौ जी करता ,पर तुमको पड़ता नहीं फर्क
अच्छा लगता 'जी मेल 'तुम्हे ,पर मेरे जी से मेल नहीं
खेलो तुम मोबाईल संग ,क्या मुझ संग सकती खेल नहीं
रहती हो संग 'सैमसंग 'के ,कुछ पल 'एपल 'संग भी रहलो
दो बातें मेरी भी सुनलो ,कुछ बातें अपनी भी कह लो
मोबाईल पर मेसेजेस पढ़ ,खुशियां छा जाती जैसे है
मेरी आँखों में झांक पढ़ो ,कितने ही प्रेम संदेशे  है
कर छेड़छाड़ ,उपकृत करदो ,मेरे मन को भी बहला दो
तुम मोह छोड़ मोबाईल का ,थोड़ा मुझको भी सहला दो

घोटू 
उँगलियाँ

फंसा करके उँगलियाँ में उँगलियाँ ,
           साथ चलते ,हम फंसे थे प्यार में
पकड़ ऊँगली ,पहुँच पहुंची तक गए ,
         उलझा ऊँगली ,कुन्तलों के जाल में
पहना ऊँगली में अंगूठी प्रेम से ,
                  साथ पाया,सात फेरे ले लिये
उँगलियों के इशारों पर तुम्हारे ,
                जिंदगी भर ,पूरी नाचा ही किये
बच्चों ने भी पकड़ कर के उँगलियाँ ,
              चलना सीखा ,जिंदगी मे कुछ बने
बुढ़ापे में आज भी वो उँगलियाँ ,
                सहलाती है ,प्यार करती है हमें

घोटू 

रविवार, 2 अगस्त 2020

पति की शिकायत -पत्नी से

नचाती हो हमको ,तुम उँगलियों पर ,
शराफत के मारे है ,हम नाचते  है
गृहस्थी के कामों में सहयोग देते ,
जरूरत पे बरतन भी हम मांजते है
बड़े प्रेम भाव से ,मख्खन लगाते ,
फिसलती नहीं तुम ,बहुत भाव खाती
खरे आदमी हम ,अखर हम को जाती ,
मोहब्बत जब मांगें ,तुम नखरे दिखाती

जबाब पत्नी का -पति को

यूं तो तुम प्यार जता कर के ,
कहते रहते मुझको 'जानू '
लेकिन मेरी हर फरमाइश ,
पर करते रहते हो 'ना नू'
जब मतलब होता तो मेरी ,
तारीफ़ के पुल  बाँधा करते
मेरा ना मूड बिगड़ जाये ,
रखते हो ख्याल ,बहुत डरते
जैसे ही मतलब निकल गया
व्यवहार बदल सा जाता है
ना मान मनोवल रहती है ,
सब प्यार बदल सा जाता है
तुम हो मतलब के यार पिया ,
 यह  बात ठीक से मैं जानू
मै नहीं बावली या मूरख ,
फिर बात तुम्हारी क्यों मानू ?

घोटू      
शिकवा शिकायत पत्नी से

एक
मैं सहमा सहमा ,डरा डरा ,जब धीमे स्वर में बात करूं ,
तुम झल्ला कर के कहती हो ,ऊंचे क्या बोल नहीं सकते
यदि मैं ऊंचे स्वर में बोलूं ,ये भी न सुहाता है तुमको ,
कहती हो क्या मैं बहरी हूँ , इतना चिल्ला कर जो बकते
मैं चुप रह कुछ भी ना बोलूं ,ये भी तुमको मंजूर नहीं ,
कहती गुमसुम क्यों बैठे हो,तुम मुझको रहे 'अवोइड 'कर
क्या करूं समझ जब ना आता ,रहता दुविधा, शंशोपज में ,
तो मैं तुम्हारी बातों का ,उत्तर देता बस मुस्कराकर

दो
मैं जब भी कोई बात करूं ,सीधे से नहीं मानती तुम ,
कोई 'इफ 'का या फिर 'बट 'का ,तुम लगा अड़ंगा देती हो
मेरा कोई भी हो सुझाव ,तुम मान जाओ ,ना है स्वभाव ,
मेरे हर निर्णय का विरोध ,कर मुझसे पंगा लेती हो      
छोटी  छोटी  सी बातों पर ,होने लगता है चीर हरण ,
और युद्ध महाभारत जैसा ,छिड़ जाता ,व्यंग बाण चलते
बस कुछ ही मौके आते है ,जब मैं प्रस्ताव कोई रखता ,
तुम नज़रें झुका मान जाती , लेकिन वो भी ना ना करते  

घोटू

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