जीने की राह -पांच छक्के
१
अपने सभी वरिष्ठ का ,करता मैं सन्मान
जिनके आशीर्वाद से ,मैंने पाया ज्ञान
मैंने पाया ज्ञान ,गर्व से नहीं फूलता
कोई का अहसान कभी मै नहीं भूलता
'घोटू 'सब शुभचिंतक ,प्रेमी और मित्रगण
का कृतज्ञ मैं ,जिनसे मिल कर संवरा जीवन
२
चले महाजन जिस डगर,उनके चरण निशान
पर चल मैं आगे बढ़ा , तो पाया उत्थान
तो पाया उत्थान ,वही पथ ,प्रगति पथ था
उनका हर एक वचन ,ज्ञानमय और प्रेरक था
कह घोटू थोड़ा भी ज्ञान जहाँ से पाओ
छोटा बड़ा न देख ,उसे तुम गुरु बनाओ
३
कभी मुसीबत के समय ,जिनने देकर साथ
गिरने से था बचाया ,पकड़ तुम्हारा हाथ
पकड़ तुम्हारा हाथ ,तुम्हे ढाढ़स बंधवाया
एसों का अहसान कभी ना जाय भुलाया
कह घोटू कवि सच्चे दोस्त वो ही कहलाते
एक दूजे के काम ,मुसीबत में जो आते
४
करो दोस्ती किसी से ,तो निभाओ भरपूर
उंच नीच का मत रखो ,मन में कोई गरूर
मन में कोई गरूर ,कभी ऊंचा पद पाके
अपने मित्रों को मत भूलो ,तुम इतरा के
कृष्ण द्वारकाधीश ,दीन था मित्र सुदामा
धोये उसके चरण ,बात ये भूल न जाना
५
रोज सुबह सूरज उगे ,लिये ओज ,उत्साह
करू प्रकाशित जगत को ,मन में ये ही चाह
मन में ये ही चाह ,प्रखर रहता है दिन भर
और जब होती शाम ,अस्त हो जाता थक कर
सुबह भरा है जोश ,इसलिए आभा स्वर्णिम
कार्य पूर्ण ,संतोष ,शाम को आभा स्वर्णिम
मदन मोहन बाहेती'घोटू '
१
अपने सभी वरिष्ठ का ,करता मैं सन्मान
जिनके आशीर्वाद से ,मैंने पाया ज्ञान
मैंने पाया ज्ञान ,गर्व से नहीं फूलता
कोई का अहसान कभी मै नहीं भूलता
'घोटू 'सब शुभचिंतक ,प्रेमी और मित्रगण
का कृतज्ञ मैं ,जिनसे मिल कर संवरा जीवन
२
चले महाजन जिस डगर,उनके चरण निशान
पर चल मैं आगे बढ़ा , तो पाया उत्थान
तो पाया उत्थान ,वही पथ ,प्रगति पथ था
उनका हर एक वचन ,ज्ञानमय और प्रेरक था
कह घोटू थोड़ा भी ज्ञान जहाँ से पाओ
छोटा बड़ा न देख ,उसे तुम गुरु बनाओ
३
कभी मुसीबत के समय ,जिनने देकर साथ
गिरने से था बचाया ,पकड़ तुम्हारा हाथ
पकड़ तुम्हारा हाथ ,तुम्हे ढाढ़स बंधवाया
एसों का अहसान कभी ना जाय भुलाया
कह घोटू कवि सच्चे दोस्त वो ही कहलाते
एक दूजे के काम ,मुसीबत में जो आते
४
करो दोस्ती किसी से ,तो निभाओ भरपूर
उंच नीच का मत रखो ,मन में कोई गरूर
मन में कोई गरूर ,कभी ऊंचा पद पाके
अपने मित्रों को मत भूलो ,तुम इतरा के
कृष्ण द्वारकाधीश ,दीन था मित्र सुदामा
धोये उसके चरण ,बात ये भूल न जाना
५
रोज सुबह सूरज उगे ,लिये ओज ,उत्साह
करू प्रकाशित जगत को ,मन में ये ही चाह
मन में ये ही चाह ,प्रखर रहता है दिन भर
और जब होती शाम ,अस्त हो जाता थक कर
सुबह भरा है जोश ,इसलिए आभा स्वर्णिम
कार्य पूर्ण ,संतोष ,शाम को आभा स्वर्णिम
मदन मोहन बाहेती'घोटू '