एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

ये उन दिनों की बात है

ये उन दिनों की बात है

ये उन दिनों की बात है
जब रेडियो  पर हर बुधवार
बिनाका गीतमाला सुनता था सारा परिवार
फिर आये विविध भारती के  फ़िल्मी गाने
सुनने लगे हम सब ,होकर दीवाने
फिर गले में लटकाने  वाला ट्रांजिस्टर आया
नयी क्रांति लाया
फिर 'टू इन वन '
ने बदल डाला जीवन
छोटे छोटे कैसेटों में कितने ही गीत
लेते थे दिल को जीत
और फिर जब टीवी आया तो घरों  की,
छतों पर ,एंटीना सर उठाने लगे  
'कृषिदर्शन  से चित्रहार तक ,
सब टीवी से चिपके नज़र आने लगे
ये उन  दिनों बात है
जब टेलीफोन के काले चोगे ,
आदमी का स्टेटस दिखाते थे
डायल के छिद्रों में ,उँगलियों से ,
नंबर घुमाते घुमाते ,हम थक जाते थे
फिर भी मुश्किल से ही लाइन मिल पाती थी
टेलीफोन की घंटी  आवाज ,कितना लुभाती थी
फिर पेजर
 कुछ दिनों आया नज़र
पर जब से मोबाइल आया है
सबके मन भाया  है
ऐसी क्रांति छा  गई  है
कि दुनिया मुट्ठी में आ गई है
रोज रोज  परिवर्तन ,
जिंदगी को संजोते गए
दुनिया तरक्की करती गई ,
और हम बूढ़े होते गए
ये उन दिनों की बात है
जब गाँव में जगह जगह लाल डब्बे ,
मुंह खोले नज़र आते थे
जिनमे चिट्ठी डाल ,हम अपने
परिचितों को  संदेशे पहुंचाते थे
उनदिनों एक बहुप्रतीक्षित इंसान ,
रोज रोज आता था
खाकी वस्त्र पहने ,वो डाकिया कहलाता था
जब वो प्रेमपत्र और संदेशे लाता था
दिल को कितना आनंद पहुंचाता था
वो लिफ़ाफ़े में खुशबू  भरे खत
वो पैगामे मोहब्ब्त
जिन्हे बार बार चूम ,पढ़ा जाता था
मन को कितना सुहाता था
ये उन दिनों की बात है
जब न मोबाइल होता था
न ईमेल होता था
न व्हाट्सएप था ,
न चेटिंग का खेल होता था
दिन भर में पचासों बार
अपनी महबूबा को दिखलाना प्यार
और मोबाईल पर लाइव तस्वीर का दीदार
इतनी जानी पहचानी सी लड़की से ,
जब होता है विवाह
तो प्यार और हनीमून का सारा थ्रिल ,
हो जाता है तबाह
हम खुशनसीब है कि हम,
 उस जमाने में पैदा हुए थे
जब रेडिओ की सुई सेट करके ,
गाने सुने जाते थे
जब हम चूड़ी का बाजा बजाते थे
 जब कि छत पर चढ़ कर,
 एंटीना सेट किया जाता था
जिससे  साफ़ पिक्चर नज़र आता था
जब फोन का डायल घुमाते ,
थक जाया करती थी उँगलियाँ
जब पोस्टमेन का लाया लिफाफा ,
जीवन में भर देता था रंगीनियाँ
 आज भी मै जब वो पुराने ,सहेजे हुए ,
प्रेमपत्र पढ़ता हूँ तो नथुनो में ,
वो पुराने प्रेम की महक भर जाती है
वो भूली हुई दास्ताँ ,फिर से ज़िंदा हो जाती  है
और ये जब भी पढ़ता हूँ,बार बार  होता है
मुझे फिर से अपने प्यार  की याद आती है
वरना आज के युग में तो ,कल की की हुई चेटिंग ,
आज डिलीट हो जाती  है

मदन मोहन 'बाहेती 'घोटू'

मुझको कभी 'डिलीट' न करना

              मुझको कभी 'डिलीट' न करना

 मीठे मीठे ख्वाब दिखा कर ,देखो मुझको 'चीट 'न करना
मुझ से आँख फेर मत लेना,बेगानो  सा  'ट्रीट '  न करना
मुझे नहीं 'ईमेल' भेजना  ,और भले ही 'ट्वीट' न  करना
फेस 'फेसबुक'पर दिखला कर ,'व्हाट्सएप'पर'ग्रीट 'न करना
बचपन वाली प्यार मोहब्ब्त ,फिर से  भले 'रिपीट ' न करना
लेकिन अपनी 'मेमोरी' से ,मुझको कभी  'डिलीट' न  करना 

घोटू

बुधवार, 6 जुलाई 2016

भगवान का ज्ञान

     भगवान का ज्ञान

वो भगवान का बड़ा भक्त था
पूजापाठ और सेवा में रहता अनुरक्त था
रोज नहा धोकर ,मंदिर जाता था
बड़े विधिविधान से पूजा कर ,भजन जाता था
भगवान की मूरत पर,चढ़ावा चढाता था
नवरात्रों में भंडारा करवाता था
ख़ुशी खुशी सब खर्चा ,खुद ही उठाता था
देख कर के उसकी सेवाभाव का प्रदर्शन
एक दिन अचानक,प्रकट हो गए भगवन
बोले वत्स,तू जो ये मंदिर में ,
इतनी सेवाभाव दिखाता है
बोल क्या चाहता है ?
भक्त बोल प्रभु ,आपने ही मुझे बनाया है
आज मै जो कुछ हूँ,आपकी ही माया है
ये जो थोड़ा बहुत चढ़ावा चढ़ा ,
मैं आपका अभिनंदन कर रहा हूँ
ये सब तुम्हारा ही दिया हुआ है ,
तुम्ही को अर्पण कर रहा हूँ
 पूजा कर रहा हूँ,आपके गुण गा रहा हूँ 
अपने निर्माता के प्रति ,
अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ
आपका आशीर्वाद और कृपा चाह रहा हूँ
भगवान बोले वत्स ,
तू मंदिर में मुझे रोज माथा नमाता है
पर ये भूल जाता है
मैंने तो पूरे संसार का निर्माण किया है ,
पर तेरा एक और निर्माता है
वो तेरे पिता और माता है
क्या तूने कभी अपने ,
उन निर्माता का भी ख्याल किया है
जिन्होंने तुझे जनम दिया है
रोज रोज मंदिर में मुझे  पूजता है
क्या अपने बूढ़े माँ बाप के पास बैठ ,
दो मिनिट भी उनके हालचाल पूछता है
मेरी पत्थर की मूरत पर, परशाद चढाता है
और उन्हें दाने दाने को तरसाता है
तूने कितनी ही बार मुझ पर पोशाक चढ़ाई
पर क्या अपने पिताजी  के लिए ,
एक कमीज भी बनवाई
तुझे पता भी है कि उनके कपड़े,
कितने पुराने  और बदरंग हो रहे है
वो कितने फटेहाल है और तंग हो रहे है
तूने रोज  रोज मुझ पर कितने रूपये चढ़ाए है
क्या अपने माँ बाप को ,जेब खर्च के लिए ,
सौ रूपये भी पकड़ाए है
मातारानी की मूरत पर कितनी चूनर चढाता है
क्या कभी अपनी माँ के लिए ,
एक नयी साडी भी लाता है
तूने मुझपर चांदी का छतर चढ़ाया है
पर क्या कभी तुझे अपने पिताजी की ,
जीर्णशीर्ण छतरी बदलने का भी ख्याल आया है
तेरे माता पिता ,
जो है जीवित देवता,
उनकी उपेक्षा कर रहा है
और मुझ पत्थर की मूरत से ,
कृपा की अपेक्षा कर रहा है
 मैं तो पत्थर की मूरत  हूँ ,
न तेरा चढ़ावा मेरे काम का है,
न मैं तेरा चढ़ाया परशाद खाऊंगा  
अरे मूरख ,अपने बूढ़े माँ बाप की सेवा कर ,
अगर वो प्रसन्न होंगे ,
मैं अपने आप प्रसन्न हो जाऊँगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 4 जुलाई 2016

गाँव की बारिश

       

जब भी बारिश होती ,गाव याद आता है ,
जहां कबेलू वाले घर में हम थे  रहते 
रिमझिम रिमझिम अगर बरसता थोड़ा पानी ,
तो फिर छत से पानी के परनाले  बहते 
घर के आगे एक ओटला,नीचे नाली,
जो वर्षा के पानी से भर कर बहती थी 
आसपास दो पेड़ बड़े  से थे पीपल के,
प्राणदायिनी हवा सदा बहती रहती थी
और पास ही मंदिर केंद्र आस्था का था ,
सुबह शाम घंटाध्वनि और आरती होती 
शनिवार को हनुमान पर चढ़ता चोला ,
शुक्रवार को जलती  थी माता की ज्योति 
दिन में भजन कीर्तन करती कुछ महिलाएं,
जन्माष्ठमी पर  अच्छी सी झांकी सजती थी 
सावन में शंकर जी को नित जल चढ़ता था,
सात दिनों तक कथा भागवत भी  बंचती थी
आते तीज त्यौहार ,गाँव की रौनक बढ़ती ,
घर घर में पुवे   पकवान  बनाए जाते 
सभी सुहागन मिलजुल कर पूजा करती थी,
मेंहदी से सबके ही हाथ रचाए  जाते 
पूरा गाँव उन दिनो होता परिवार था ,
सुख दुःख में सब ,एक दूजे का हाथ बटाते 
आती कोई बरात ,गाँव में होती शादी,
उसका स्वागत करने में सब ही जुट जाते
धोबन माँ,नाइन  चाची और भंगन भाभी,
सबसे आपस में रिश्ते थे बनते रहते    
जब भी बारिश होती गाँव याद आता है ,
जहां कबेलू वाले घर में हम थे रहते 
गीली मिट्टी पर पैरों के चिन्ह छापना ,
याद आती  उछलकूद ,पानी की छपछप
पर अब इन बंगलों ,फ्लैटों वाले शहरों में ,
छत से बहते परनाले दिखना है दुर्लभ 
तब मिट्टी के चूल्हे थे,लकड़ी जलती थी,
गीली लकड़ी ,धुवें से  घर भर जाते थे 
लगती थी जब झड़ी बड़ी सीलन हो जाती ,
गीले कपड़े जल्दी नहीं सूख पाते थे 
बहती नाली में कागज की नाव तैराते ,
उसके पीछे भगने का आनंद अजब था 
गरम गुलगुले और पकोड़े घर घर तलते ,
और मकई के भुट्टों का भी स्वाद गजब था
खुली खुली सी एक धर्मशाला होती थी, 
कोई शादीघर या बैंकेट हॉल नहीं था 
शादी हो कि सगाई,जनेऊ ,गंगाजली हो,
सभी गाव के आयोजन का केंद्र वही था 
एक सामूहित भोज,न्यात जिसको कहते थे ,
पंगत में जीमा करते सब साथ बैठ कर 
लड्डू,चक्की सेव,जलेबी पुरसी जाती,
और रायता पीते थे ,दोनों में भर कर 
हरियाली अम्मावस पर पिकनिक होती थी ,
और पेड़ों पर झूले सभी झूलते रहते 
जब भी बारिश होती गाँव याद आता है,
जहां कबेलू वाले घर में हम थे रहते 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तू भी कुत्ता,मैं भी कुत्ता

           

एक बंगले वाले कुत्ते से ,बोला एक गलियों का कुत्ता 
तू भी कुत्ता,मैं भी कुत्ता ,फिर हममे क्यों अंतर इत्ता 
तेरी किस्मत में बंगला क्यों,मेरी किस्मत में सड़कें क्यों 
 तू खाये दूध और बिस्किट ,तो मुझको जूँठे टुकड़े क्यों 
तेरी इतनी सेवा श्रुषमा ,तू सबको लगे दुलारा  सा 
मेरा ना कोई ठांव ठौर ,मैं क्यों फिरता आवारा  सा 
तू सोवे नरम बिस्तरों में ,मैं मिट्टी,कीचड़ में सोता 
हम दोनों स्वामिभक्त हममे ,फिर नस्लभेद ये क्यों होता 
क्या पूर्व जनम में  दान किये थे तूने कुछ हीरे मोती 
जो मुझको दुत्कारा जाता और तेरी खूब कदर होती 
तेरी भी टेढ़ी  पूंछ रहे ,मेरी भी टेढ़ी  पूंछ  सदा 
तू भी भौंके ,मैं भी भौंकूं ,तू भी कुत्ता,मैं भी कुत्ता 
हंस बोला बंगले का कुत्ता ,तू क्यों करता है मन खट्टा 
है खुशनसीब ,तू है स्वतंत्र ,ना तेरे गले बंधा पट्टा   
मैं रहता बंद कैद में हूँ ,घुटता हूँ,मन घबराता है 
तू  है स्वतंत्र ,आजादी से ,जिस तरफ चाहता,जाता है 
जब मेरा तन मन जलता है ,मैं इच्छा दबा दिया करता 
तू मनचाही साथिन के संग ,स्वच्छ्न्द विहार किया करता 
मैं बंधा डोर से एकाकी ,ना कोई सगा ,साथिन ,साथी 
बस बच्चे ,साहब  या मेडम,है कभी प्यार से सहलाती 
तू डाल गले में पट्टा और बंध कर तो देख चेन से  तू 
तब ही सच जान पायेगा ये ,है कितना सुखी,चैन से तू 
मेडम जब लेती गोदी में ,दो पल वो सुख तो होता है 
तुझ सा स्वच्छ्न्द विचरने को ,लेकिन मेरा मन रोता है 
बेकार सभी सुख सुविधाएं,सच्चा सुख है आजादी का 
मैं बदनसीब है गले बंधा,मेरे एक   पट्टा चाँदी का     
मैं खेल न सकता मित्रों संग ,ना हो सकता गुथ्थमगुत्था 
एक गलियों वाले कुत्ते से ,बोला ये बंगले का  कुत्ता 


मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-