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सोमवार, 16 मई 2016

देशी चस्का

  देशी चस्का

डनलप के नरम नरम गद्दों पर ,रोज रोज सोने वालों,
खरहरी खाट पर सोने का ,अपना ही एक मज़ा होता
दस दस व्यंजन से सजी हुई ,थाली में ओ खाने वालों,
चटनी के साथ ,प्याज रोटी ,खाने का अलग मज़ा होता
क्यों बोतल से मिनरल वाटर ,पी कर के प्यास बुझाते हो ,
तुम कभी ओक से ,प्याऊ का ,पीकर के देखो पानी भी
तुम चस्के लेकर चॉकलेट ,खाया करते मंहगी मंहगी ,
होती है अच्छी स्वाद भरी ,खाकर देखो गुड धानी  भी
कोकोकोला ,पेप्सी छोड़ो ,गर्मी में सत्तू  पी देखो ,
लड्डू और बालूशाही से ,लिट्टी चोखा होता अच्छा
आमों को काट ,चुभा काँटा ,तुम बड़े चाव से खाते हो ,
गुठली को कभी चूस देखो ,आएगा स्वाद तभी सच्चा
चटखारे ले , खा कर देखो,तुम इमली या कच्ची केरी ,
आयेगा इतना मज़ा तुम्हे ,तुम भूल जाओगे स्वाद सभी
तुम अनुशासन के चक्कर में ,क्यों मज़ा खो रहे जीने का ,
ठेले पर खाओ बर्फ गोला ,तुम बच्चे बन कर कभी कभी
तुम भूल जाओगे पिज़्ज़ा को ,आलू का गरम पराँठा खा ,
है केक पेस्ट्री से अच्छी ,रस भरी जलेबी गरम ,गरम
देसी चीजों  को  ,चस्का ले,खुल्ले दिल से अपनाओगे ,
तो भूल जाओगे अंगरेजी चीजों के पाले सभी भरम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 15 मई 2016

क्यों ?

क्यों ?

मुझे याद है वह दिन ,
जब तुमने ,
मेरी नाजुक सी पतली  ऊँगली में,
सगाई की अंगूठी पहनाई थी ,
और मेरे कोमल से हाथों को ,
धीरे से दबाया था
प्यार से दुलराया था
और फिर एक दिन ,
मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर ,
पवित्र अग्नि की साक्षी में ,
अपना जीवनसाथी बनाया था
सुख दुःख में साथ निभाने का वादा था किया
पर शादी के बाद ,घर बसाते ही,
मेरी उन नाजुक उँगलियों को,
आटा गूंथने में लगा दिया
रोटी बेलने के लिए ,बेलन थमा दिया
गरम गरम तवे पर ,
रोटियां सेकते सेकते ,
कितनी ही बार ,इन नाजुक उँगलियों ने ,
तवे की विभीषिका झेली है
तुम्हारे प्यार के परशाद से ,
मेरी कमसिन सी काया ,
देखलो कितनी फैली है
जिस तरह आजकल ,
मेरी मोटी हुई अँगुलियों में ,
सगाई की अंगूठी नहीं आती
उस तरह तुम्हारे प्यार में भी,
वो पुरानी ताजगी नहीं पायी जाती
हमारा प्यार ,
एक दैनिक प्रक्रिया बन कर ,रह गया है
कुछ भी नहीं नया है
क्या हमारा गठबंधन ,
कुछ इतना ढीला था ,
दो दिन में खुल गया
क्या हमारा प्यार ,
शादी  की मेंहदी सा था ,
चार दिन रचा ,फिर धुल  गया
तुम भी वही हो ,मै  भी वही हूँ ,
बताओ ना फिर क्या बदल गया है
हमे साथ साथ रहते हो गए है बरसों
फिर ऐसा हो रहा है क्यों ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

क्यों ?

क्यों ?

मुझे याद है वह दिन ,
जब तुमने ,
मेरी नाजुक सी पतली  ऊँगली में,
सगाई की अंगूठी पहनाई थी ,
और मेरे कोमल से हाथों को ,
धीरे से दबाया था
प्यार से दुलराया था
और फिर एक दिन ,
मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर ,
पवित्र अग्नि की साक्षी में ,
अपना जीवनसाथी बनाया था
सुख दुःख में साथ निभाने का वादा था किया
पर शादी के बाद ,घर बसाते ही,
मेरी उन नाजुक उँगलियों को,
आटा गूंथने में लगा दिया
रोटी बेलने के लिए ,बेलन थमा दिया
गरम गरम तवे पर ,
रोटियां सेकते सेकते ,
कितनी ही बार ,इन नाजुक उँगलियों ने ,
तवे की विभीषिका झेली है
तुम्हारे प्यार के परशाद से ,
मेरी कमसिन सी काया ,
देखलो कितनी फैली है
जिस तरह आजकल ,
मेरी मोटी हुई अँगुलियों में ,
सगाई की अंगूठी नहीं आती
उस तरह तुम्हारे प्यार में भी,
वो पुरानी ताजगी नहीं पायी जाती
हमारा प्यार ,
एक दैनिक प्रक्रिया बन कर ,रह गया है 
कुछ भी नहीं नया है
तुम भी वही हो ,मै  भी वही हूँ ,
बताओ ना फिर क्या बदल गया है
हमे साथ साथ रहते हो गए है बरसों
फिर ऐसा हो रहा है क्यों ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

वो सुंदर सुंदर कामनियां

वो सुंदर सुंदर कामनियां

फैशन से इतनी हुई ग्रस्त
हो रहे प्रदर्शित ,अधोवस्त्र
सब श्वेतचर्म और गौरवर्ण ,
इस चंचल मन को मोह लिया
वो सुन्दर सुंदर कामनिया
लम्बी लम्बी उघडी टांगें
इठलाती चलती बल खाके
थे स्वर्ण ,रजत से कटे केश,
खिलखिला चहकती,चुरा जिया
वो सुंदर सुंदर कामनियां
गंधें ,तीखी परफ्यूमो की
सुंदर और प्यारी ,परियों सी
 नयनो को बहुत  लुभाती थी ,
हमने देखा ,दिल थाम लिया
वो सुंदर ,सुंदर कामनियां

घोटू

ऐसा लगता जैसे ....

ऐसा लगता  जैसे .... 


ऐसा लगता  जैसे बातें हो कल की

तुम आई थी ,पहन गुलाबी सा जोड़ा
शर्मीली सी,सकुचाती  , थोड़ा ,थोड़ा
मैंने भाव विभोर उठाया था घूंघट  ,
भूले नहीं भुलाती यादें  उस  पल की
ऐसा लगता  जैसे बातें हो  कल की
मिले नयन से नयन ,हमारा हुआ मिलन
धीरे धीरे लगा महकने ये गुलशन
फूल खिले दो ,प्यारे प्यारे सुंदर से,
विकसे ,पाकर छाँव  तुम्हारे आंचल की
ऐसा लगता  ,जैसे बातें हो कल की
पाला पोसा ,पढ़ा लिखा क्र बड़ा किया
उन दोनों को अपने पैरों खड़ा किया
बिदा किया बेटी को पीले हाथ किये ,
बेटे को भी बहू मिल गई  सुन्दर सी
ऐसा लगता  ,जैसे बातें  हो कल की 
बेटा प्रगतिशील,बहू थी आधुनिका
सोच हमारी में पीढ़ी का अंतर  था
करी तरक्की ,बेटा  बहू ,विदेश बसे,
तनहाई में ,आँख हमारी थी छलकी
ऐसा लगता ,जैसे बातें हो कल की
सबने अपनी दुनिया अलग बसाई है
अब हम दो है और साथ  तनहाई  है
हम एकाकी ,बचे खुचे दिन काट रहे ,
फिर भी ,आँखें ,आस लगाये ,पागल सी
ऐसा लगता ,जैसे बातें हो कल की
बुझी बुझी सी आँखे , सूना सा आंगन
रह रह कर चुभता  हमको एकाकीपन
इसीलिए क्या यौवन था कुरबान किया ,
सपने में भी ,न थी कल्पना इस पल की
एसा लगता ,जैसे बातें हो कल की

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 

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