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सोमवार, 16 जून 2014

फादर'स डे पर-पिताजी से

   फादर'स डे पर-पिताजी से

आपने ऊँगली थामी ,
           मैंने जीवनपथ पर चलना सीखा
आपने आँख दिखाई ,
          मैंने अच्छा बुरा देखना सीखा
आपने कान मरोड़े ,
          मैंने हर तरफ से चौकन्ना होना  सीखा 
आपने डाट लगाईं,
           मैंने डट कर मुश्किलों का सामना करना सीखा     
आपके हाथों ने कभी मेरे गालों को सहलाया था
                                 तो कभी चपत भी लगाई है
आपकी ये छोटी छोटी शिक्षाये ही,
                                मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमाई है
यूं भी  मेरी रगों में,आपका ही खून ,
                                  दौड़ता रहता दिन रात है  
पर ये मैं ही जानता हूँ,कि मेरी सफलता में,
                                    आपका कितना हाथ है
आपका प्यार और आशीर्वाद ,
                                    मेरी सब से बड़ी दौलत है
मैं आज अपनी जिंदगी जो कुछ  भी हूँ
                                     सब आपकी बदौलत   है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू;

रविवार, 15 जून 2014

जुदाई में

              जुदाई में

तुम्हारे बिन ,जुदाई का ,हमारा ऐसा है आलम ,
              परेशां मैं भी रहता हूँ,परेशां तुम भी रहती हो
तुम्हारी याद में डूबा  ,और मेरी याद में ग़ाफ़िल ,
             हमेशा मैं भी रहता हूँ,हमेशा तुम भी रहती हो
प्यार करते है फिर भी क्यों ,झगड़ते हम है आपस में ,
             पशेमां मैं भी रहता हूँ,पशेमां  तुम भी रहती हो
महोब्बत भी अजब शै है ,बड़े बेचैन पागल से ,
              खामख्वाह मैं भी रहता हूँ,खामख्वाह तुम भी रहती हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
     

पिताजी- एक चिंतन

        फादर'स डे पर
     पिताजी- एक चिंतन

बचपन में ,जब भी गलती होती थी,हर बार
मुझे सुननी  पड़ती थी ,पिताजी की फटकार
और  मैं गुस्से में,दुखी और  नाराज़   होकर      
निकल जाया करता था  ,छोड़ घर के बाहर 
और देर रात,गुस्साया सा ,जब लौटता  था
माँ प्रतीक्षा कर रही होगी,मुझे होता पता था
पिताजी की नाराजगी,निकालता था खाने पर
पर जब शांत होता था ,माँ के समझाने   पर
तब पता लगता था,पिताजी ने नहीं किया भोजन
तब बड़ा दुखी और  खिन्न होता था,मेरा मन 
सोचता था,माँ और पिताजी ,दोनों करते है प्यार
तो क्यों इतना अलग होता है ,दोनों का व्यवहार
 दोनों के आचरण में क्यों ,इतनी  विषमता  है
एक पुचकारता है और  दूसरा फटकारता  है
प्यार के तरीके में उनके क्यों है  ये अन्तर
किन्तु समझ में मेरे ,अब आया है जाकर
माँ तो हमेशा ही ,दुलारने के लिए होती है
पर पिताजी की डाट,सुधारने के लिए होती है 
जीवन पथ पर ,नहीं मिलता ,हमेशा,हर बार
माँ  के जैसी ममता या प्यार भरा व्यवहार
कितने ही संघर्षों से ,हमें गुजरना  पड़ता है
अलग अलग लोगों से ,दो चार करना पड़ता है
रोज रोज नयी मुसीबत ,हर बार  मिलती  है
कभी गाली,कभी डाट ,कभी फटकार मिलती ह
आदमी ,बचपन से यदि प्यार का आदी हो जाएगा  
तो इन सारी मुसीबतों को वो कैसे झेल पायेगा
पिताजी की डाट भी एक तरीका है,समझाने का
हमें दृढ़,मजबूत और अनुशासित  बनाने का
माँ की ज्यादा ममता भी बच्चे को बिगाड़ देती है
और पिताजी की डाट,जीवन को संवार देती है
इसीलिये पिताजी थोड़ा कठोर व्यवहार करते है
अगर डाटते हैं,समझ लो,बहुत प्यार करते है
नारियल से सख्त बाहर,अंदर  मुलायम होते
ये बात समझ तब आती ,जब पिता हम होते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 14 जून 2014

अच्छे बुरे दोस्त

         अच्छे  बुरे दोस्त

अगर अच्छा हुआ तो यश ,सभी ले लेते है खुद ही,
अगर होता बुरा कहते ,लिखा था ये ही किस्मत में
भिड़ाना एक दूजे को ,लगा कर के  नमक मिर्ची ,
दूर से फिर मज़े लेना ,है होता जिनकी आदत मे
बहुत सारे हितैषी आपको मिल जाएंगे  ऐसे ,
ख़ुशी में सबसे आगे है,छोड़ते संग मुसीबत में
बड़ी मुश्किल से मिलते दोस्त,सच्चे चाहने वाले ,
न होती खोट कोई भी ,कभी भी,जिनकी चाहत में

घोटू 

जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है

    जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है  

इस तरह से कहर कुदरत ढा  रही है
हर तरफ से मार पड़ती   जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता  जा रहा है ,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती   जा रही  है
बढ़ रही ऊंचाई जितनी बिल्डिंगों की ,
उतने ही इंसान बौने  हो गए है
अब न बच्चे खेलते है झुनझुनो से,
अब तो 'मोबाइल',खिलोने हो गए है
बच्चा पहला शब्द 'माँ' ना  बोलता है,
सबसे पहले 'हेलो'करना सीखता है       
पैदा होते आँख जब वो खोलता है ,'
'फेस बुक 'पर उसका चेहरा दीखता है
तरक्की की सीडियां हम चढ़ रहे है,
या तरक्की हम पे चढ़ती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा  है,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती जा रही है
दोस्ताना रोज रुसवा हो रहा है ,
और रिश्ते धुंवा धुंवा हो रहे है
बुजुर्गों को खुदा के मानिंद समझना ,
अदब के वो सब सलीके  खो रहे है
रोज अस्मत औरतों की लुट रही है,
बिक रहा ईमान ,खुल्ले आम  अब है
हम पतन के गर्द में नित गिर रहे है,
हो रहे संस्कार मटियामेट  सब है
आदमी खुदगर्ज होता जा रहा है ,
और इंसानियत  मरती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है ,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती जा रही है
सोचता इंसान है मंदिर में जा के ,
सर झुका कर,पाप धुल जाएंगे सारे
एक लोटा दूध शिवलिंग पर चढ़ा कर ,
स्वर्ग के भी द्वार खुल जाएँगे  सारे
पागलों सी भीड़ मन्दिरमे उमड़ती ,
भजन,प्रवचन ,एक धंधा बन गया है ,
करोड़ों का चढ़ावा ,जाता चढ़ाया ,
लोभ में इंसान अँधा बन गया है
पैसे के बल ,काम हो सकते है सारे,
आस्थाएं ,यूं  बदलती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है ,
मंदिरों में ,भीड़ बढ़ती  जा रही है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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