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रविवार, 28 जुलाई 2013

एक होटल के रूम की आत्म गाथा

        एक होटल के रूम की  आत्म गाथा
   
 मै होटल का रूम ,भाग्य पर हूँ  मुस्काता  
मुझ मे  रहने रोज़  मुसाफिर नूतन  आता 
थके हुये और पस्त यात्री है जब   आते 
मुझे देख कर ,मन मे बड़ी शांति  पाते 
नर्म,गुदगुदे बिस्तर पर जब पड़ते आकर 
मै खुश होता,उनकी सारी थकन मिटा कर 
मेरा बाथरूम ,हर लेता ,उनकी पीड़ा 
जब वो टब मे बैठ किया करते जल क्रीडा 
मुझ मे आकर ,आ जाती है नई जवानी 
कितने ही अधेड़ जोड़े  होते  तूफानी 
अपनी किस्मत पर उस दिन इतराता थोड़ा 
हनीमून पर ,आता नया विवाहित जोड़ा 
रात रात भर ,वो जगते,मै भी जगता हूँ 
सुबह देखना,बिखरा,थका हुआ  लगता हूँ 
कभी कभी कुछ खूसट बूढ़े भी आजाते 
खाँस खाँस कर,खुद भी जगते,मुझे जगाते 
तरह तरह के लोग कई अपने,बेगाने 
आते है मेरे संग मे कुछ रात बिताने 
देश देश के लोग ,सभी की अपनी भाषा 
मै खुश होता ,उनको दे आराम  ,जरा सा 
बाकी तो सब ,ये दुनिया है  आनी,जानी   
मै होटल का रूम,मेरी है  यही कहानी 

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

वादियाँ यूरोप की

(21 दिन के पूर्वी यूरोप के प्रवास के बाद आज वापस आया हूँ.यूरोप की वादियों पर लिखी एक रचना प्रस्तुत है )
    
         
आँख को ठंडक मिलीऔर आगया दिल को सुकूँ ,
मुग्ध हो देखा किया मै, वादियाँ  यूरोप की 
कहीं बर्फीली चमकती,कहीं हरियाली भरी,
सर उठा सबको बुलाती,पहाड़ियाँ यूरोप   की  
गौरवर्णी,स्वर्णकेशी,अल्पवस्त्रा ,सुहानी,
हुस्न का जैसे खजाना ,लड़कियां यूरोप की 
प्रेमिका से प्यार करने ,नहीं कोना ,ढूंढते ,
प्रीत खुल्ले मे दिखाये ,जोड़ियाँ,यूरोप  की 
हरित भूतल,श्वेत अंबर ,और सुहाना सा है सफर ,
बड़ी दिलकश,गयी मन बस,फिजायें यूरोप की 
शांत सा वातावरण है,कोई कोलाहल नहीं,
बड़ी शीतल,खुशनुमा है ,हवाएँ यूरोप की 
है  खुला  उन्मुक्त जीवन ,कोई आडंबर नहीं,
बड़ी है मन को सुहाती,  मस्तियाँ यूरोप  की 
देखता रहता है दिन भर,अस्त होता देर से,
सूर्य को इतना लुभाती, शोखियाँ  यूरोप की 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 
  

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

प्रियतमे कब आओगी


   प्रियतमे कब आओगी 
मेरे दिल को तोड़ कर 
यूं ही अकेला छोड़ कर 
जब से तुम मैके  गई 
चैन सब ले के   गयी 
इस कदर असहाय हूँ 
खुद ही बनाता चाय हूँ 
खाना क्या,क्या नाश्ता 
खाता  पीज़ा,  पास्ता
या फिर मेगी बनाता 
काम अपना चलाता 
रात भी अब ना कटे 
बदलता  हूँ करवटें 
अब तो गर्मी भी गयी 
बारिशें है आ गयी 
कब तलक तड़फाओगी 
प्रियतमे कब  आओगी ? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रियतमे कब आओगी


   प्रियतमे कब आओगी 
मेरे दिल को तोड़ कर 
यूं ही अकेला छोड़ कर 
जब से तुम मैके  गई 
चैन सब ले के   गयी 
इस कदर असहाय हूँ 
खुद ही बनाता चाय हूँ 
खाना क्या,क्या नाश्ता 
खाता  पीज़ा,  पास्ता
या फिर मेगी बनाता 
काम अपना चलाता 
रात भी अब ना कटे 
बदलता  हूँ करवटें 
अब तो गर्मी भी गयी 
बारिशें है आ गयी 
कब तलक तड़फाओगी 
प्रियतमे कब  आओगी ? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हाले-जुदाई

         
          हाले-जुदाई  
जुदाई मे जर्द चेहरा हो गया है,
             हिज्र की हर सांस भारी हो गयी है 
याद मे तेरी ये हालत बन गयी,
             लोग कहते है बीमारी हो गयी  है 
बदलते रहते है करवट रात भर हम ,
              इतनी ज्यादा बेकरारी  हो गयी है 
नींद हमको रात भर आती नहीं है ,
               इस कदर आदत तुम्हारी हो गयी है 
आजकल हम खुद से ही रहते खफा है,
               एसी  कुछ हालत हमारी   हो गयी है 
'घोटू'अब आ जाओ दिल लगता नहीं है,
                बड़ी लम्बी इंतजारी   हो गयी है 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'       

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