कवि की पीड़ा
एक जमाना था हम रहते बहुत बिज़ी थे
आज यहाँ,कल वहाँ तीसरे रोज कहीं थे
कविसम्मेलन मे निशदिन भागा करते थे
दिन मे चलते,रात रात जागा करते थे
थे शौकीन लोग,कविता के कदरदान थे
बड़े बड़े आयोजन मे हम मेहमान थे
रोज रोज तर माल मिला करता था खाने
और सुरा भी मिल जाती दो घूंट लगाने
उस पर वाह वाह का टॉनिक मिल जाता था
श्रोताओं की भीड़ देख ,दिल खिल जाता था
और बाद मे पत्र पुष्प से जेब भरे हम
महीने मे अच्छी ख़ासी होती थी इन्कम
और होली पर इतने कविसम्मेलन थे होते
जैसे श्राद्धों मे ,पंडित को मिलते न्योते
हर वरिष्ठ कवि का अपना ही ग्रुप होता था
और ठेका लेकर के कविसम्मेलन होता था
टाइम कब था,नई नई कविता गढ़ने का
एक कविता हिट ,तो सदा वो ही पढ़ने का
जब से टी.वी.पर कामेडी सर्कस आया
लोगों ने ,कविसम्मेलन करवाना भुलवाया
भूले भटके कभी कभी मिलता आमंत्रण
वाह वाह और भीड़ देखने तरसे है मन
और बड़ी मुश्किल से घर का चले गुजारा
वो दिन गए,फाकता ,मियां करते मारा
बंद हुये अखबार ,कविताए कम छपती
और छपास की भी भड़ास अब नहीं निकलती
बहुत कुलबुलाता,कविसम्मेलन का कीड़ा है
मेरी नहीं,हरेक कवि की ये पीड़ा है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'