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सोमवार, 24 सितंबर 2012

बढ़ने चला हूँ


आँखों में लेके एक नूर कोई,

सपनों की दुनिया सच करने चला हूँ;
अपनों के सपनों को दिल में लेकर,
दुनिया में अपना हक करने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

राहों में बाधक हैं, मुश्किलें भी हैं,
पर खुद ही हर मुश्किल से लड़ने चला हूँ,
मार्ग में सबको बस खुशियाँ परोसता,
खुशियाँ लुटाता मैं उड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

सपनों को अपने है साकार करना,
भागती इस दुनिया में दौड़ने चला हूँ;
पर्वत, पहाड़ या मिले कोई चट्टान,
हौसले का हथौड़ा ले तोड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

मौका परस्त दौर में एक जज्बा लेकर,
इंसानियत की खोज अब करने चला हूँ;
अँधियारों में अपना ही "दीप" लेकर,
हवाओं का रुख भी मोड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

रविवार, 23 सितंबर 2012

एक विलुप्त कविता / रामधारी सिंह "दिनकर"

आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" का जन्म दिवस है | उनकी इस रचना के साथ उन्हे अनेकानेक नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि |
बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।

(सन 1938 में पटना में अखिल भारतीय ब्रह्मर्षि महासम्मेलन क आयोजन किया गया था जिसमें काशी नरेश विभूति नारायण सिंह, सर गणेश दत्त, बाबू रज्जनधारी सिंह आदि गणमान्य लोग मौज़ूद थे। दिनकर जी ने उस महाजाति सम्मेलन के लिए यह कविता लिख भेजी थी जिसे उसमें स्वागत-गान के रूप में पढ़ा गया था। कविता कोश के सहयोगी पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड के निवासी श्री रवि रंजन ने बाबू रज्जनधारी सिंह के गाँव 'भरतपुरा' में बने उनके निजी पुस्तकालय से यह कविता उनकी नोटबुक से ढूँढ निकाली है। इस कविता का कोई शीर्षक नहीं दिया गया है।)

सौजन्य-"कविता कोश"

शनिवार, 22 सितंबर 2012

लब-प्यार से लबालब

     लब-प्यार से लबालब

चाँद जैसे सुहाने मुख पर सजे,

                          ये गुलाबी झिलमिलाते होंठ है
खिला करते हैं कमल के फूल से,
                         जब कभी ये खिलखिलाते होंठ है
ये मुलायम,मदभरे हैं,रस भरे,
                           लरजते हैं प्यार बरसाते कभी
दौड़ने लगती है साँसें तेजी से,
                           होंठ जब नजदीक आते है कभी
प्यार का पहला प्रदर्शन होंठ है,
                         रसीला मद भरा चुम्बन होंठ है
जब भी मिलते है किसी के होंठ से,
                         तोड़ देते सारे बंधन होंठ है
अधर पर धर कर अधर तो देखिये,
                         ये अधर तो प्यार का आधार है,
नहीं धीरज धर सकेंगे आप फिर,
                          बड़ी तीखी,मधुर इनकी धार  है
मिलन की बेताबियाँ बढ़ जायेगी,
                             तन बदन में आग सी लग जायेगी
सांस की सरगम निकल कर जिगर से,
                            सब से पहले लबों से टकरायगी
उमरभर पियो मगर खाली न हो,
                             जाम हैं ये वो छलकते,मद भरे
लब नहीं ये युगल फल है प्यार से,
                                लबालब, और लहलहाते,रस भरे
  मुस्कराते तो गिराते बिजलियाँ,
                         गोल हो सीटी बजाते होंठ  है
और खुश हो दूर तक जब फैलते,
                        तो ठहाके भी लगाते होंठ   है
सख्त से बत्तीस दांतों के लिए,
                        ये मुलायम दोनों ,पहरेदार हैं
हैं रसीले शहद जैसे ये कभी,
                        लब नहीं,ये प्यार का भण्डार है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

साथ छोड़ कर भागी ममता.....

         साथ छोड़ कर भागी ममता.....

साथ छोड़ कर भागी ममता,अब क्या होगा रे

नज़र आ रहा सूरज ढलता, अब क्या होगा  रे
नहीं मुलायम,रहते कायम,अपने  वादों पर
नज़र बड़ी आवश्यक रखना,गुप्त इरादों पर
उनका सपना,पी एम् पद का,अब क्या होगा रे
नज़र आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
माया महा ठगिनी हम जानी,आनी जानी है
कब इसका रुख बदल जाए, ये घाघ पुरानी है
यदि उसने जो पाला पलता,तब क्या होगा रे
नज़र आ रहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
अब तो करूणानिधि से ही करुणा की आशा है
सी बी आइ का दबाब भी अच्छा  खासा है
साम दाम से काम न बनता,तब क्या होगा रे
नजर आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
 सब चीजों के दाम बढ़ गए,जनता है अकुलायी
सुरसा जैसी मुख फैलाती,रोज रोज मंहगाई
साथ छोड़ देगी यदि जनता,तब क्या होगा रे
नज़र आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

पढ़ना था मुझे


पढ़ना था मुझे पर पढ़ न पाई,

सपनों को अपने सच कर ना पाई;

रह गए अधूरे हर अरमान मेरे,
बदनसीबी की लकीर मेरे माथे पे छाई |

खेलने की उम्र में कमाना है पड़ा,
झाड़ू-पोंछा हाथों से लगाना है पड़ा;
घर-बाहर कर काम हुआ है गुज़ारा,
इच्छाओं को अपनी खुद जलाना है पड़ा |

एक अनाथ ने कब कभी नसीब है पाया,
किताबों की जगह हाथों झाड़ू है आया;
सरकारी वादे तो दफ्तरों तक हैं बस,
कष्टों में भी अब मुसकुराना है आया |

नियति मेरी यूं ही दर-दर है भटकना,
झाड़ू-पोंछा, बर्तन अब मजबूरी है करना;
हालात मेरे शायद न सुधरने हैं वाले,
अच्छे रहन-सहन और किताबों को तरसना |

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