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शनिवार, 12 मई 2012

मै- स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक

 मै- स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक.

मेरे पिताजी चाहते थे मै इंजीनियर  बनू,मैंने बी.टेक.पास किया

मेरी माताजी चाहती थी मै डॉक्टर बनू,सो मैंने करेस्पोंडेंस कोर्स से
होमियोपेथी पढ़ कर अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाया.
मेरे दादाजी चाहते थे कि मै  कर्मकांडी पंडित बनू,तो उन्होंने मुझे
बचपन से कर्मकांड सिखलाया .मेरी दादीजी चाहती थी कि मै
कथावाचक संत बनू,तो मैंने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर
भागवत,रामायण और शास्त्रों का अध्ययन किया.और फिर
सभी की अपेक्षाओं पर खरा उतर कर,मैंने हर प्रोफेशन को ट्राय
किया और अंत में  इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरी दादीजी कितनी सही थी
और आज मै स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक.,कथावाचक संत हूँ.
इंजिनियर रहता तो रेत,बजरीऔर सीमेंट मिला कर बड़ी बड़ी
इमारतें खड़ी करता पर आज मै अपने प्रवचनों में कथा, भजन,और
संस्मरण मिला कर ऐसी कांक्रीट बनाता हूँ कि भक्तों के दिल में
जम कर ,स्वर्ग के सपनो कि ईमारत खड़ी हो जाती है-बीच बीच में,
मै थोड़े थोड़े घरेलू नुस्खे और चुटकुलों की छोटी छोटी,मीठी मीठी,
गोलियां देकर अपनी डाक्टरी के ज्ञान प्रदर्शन की भड़ास भी पूरी
कर लेता हूँ.कथा के पहले और बाद के कर्मकांडों व कुछ भक्तों की
विपदाओं को हरने के लिए की गयी विशेष पूजाएँ भी दादाजी के
आशीर्वाद से काफी धनप्रदायिनी होती है-और दादीजी के आशीर्वाद ने
मुझे एक प्रख्यात कथावाचक संत बना दिया है जिसके अमृत वचन
टी.वी. के कई चेनलों पर  दिन रात प्रसारित होते रहते है.अब मै एक पूजनीय
संत हूँ,-भक्त मुझे माला पहनाने को और मेरा आशीर्वाद पाने को
आयोजकों को मोटा चढ़ावा चढाते है
.मै इवेंट मेनेजर हूँ ,मेरी कथा में लाखों की उमड़ती भीड़ के लिए
पंडाल,टी.वी.,लाउड स्पीकर आदि की व्यवस्था मेरे ही लोग करते है
मै एम.बी.ए. की तरह अपने पूरे बिजनेस का मेनेजमेंट कुशल और
 लाभ दायक तरीके से करता हूँ जैसे भजन और प्रवचन के केसेट और
सी.डी.बना कर बेचना,मासिक पत्रिका छपवा कर अपने फोटो युक्त
फ्रोंट पेज पर अपने विचार और भक्तों के अनुभव छपवा कर अपना प्रचार
करना,या अपनी हर कथा पर १०८ या अधिक महिलाओं की कलश यात्रा
को बेंड बाजों के साथ शहर में घुमा कर अपना प्रचार करना आदि आदि-
मै    सी.ए. याने चार्टर्ड अकाउंटटेंट हूँ-मै जनता हूँ की  चढ़ावे  की इतनी कमाई को,
किस तरह टेक्स फ्री किया जाए या विदेशी रूट से काले पैसे को सफ़ेद बनाया जाये
कथा के साथ साथ और भी पैसे कमाने के कई गुर मैंने सीख लिए है ,जैसे,
भागवत कथा में रुकमनी विवाह पर भक्त महिलाओं से रुकमनी जी के दहेज़ में
साडी और आभूषण चढ़वाना,या कृष्ण सुदामा के मिलन प्रसंग पर भक्तों  से चावल
चढ़ा कर असीम दौलत प्राप्ति  का लालच देना आदि-इस तरह का चढ़ावा इतना आ जाता है
की समेटना मुश्किल हो जाता है अत:दूसरे दिन वही चढ़ावा कथा स्थल के बाहर भगवान
का प्रसाद बतला कर अच्छे दामो में बिक जाता है-इस तरह 'हींग लगे ना फिटकड़ी,रंग भी चोखो आय'
की कहावत को चरितार्थ करता हूँ.
प्रभू की असीम कृपा से ,कई तीर्थ स्थलों में मेरे आश्रम चल रहे है और मेरे पास अपार धन सम्पदा है
जो कदाचित इंजिनियर या डाक्टर बन कर मै नहीं कमा सकता था.-सत्ता और विपक्ष के कई
नेता मेरे परम भक्त है जिससे मेरे वर्चस्व  की वृद्धि होती है-मेरी तस्वीरें कितने ही भक्तों के
पूजा गृह में सु शोभित है. और अब मेरे बच्चों को अपने केरियर के बारे में सोचने की
कोई जरुरत ही नहीं है क्योंकि वो बाप की विरासत ही संभालेंगे अत :अभी से मेरी संतति
संत गिरी की ट्रेनिंग ले रही है.अरे हाँ,एक बात तो ना आपने पूछी,न मैंने बताई,-आप उत्सुक होंगे
मै मोम बाबा कैसे बना-इस नाम करण के पीछे कई कारण है-पहला ,जब भी कथा में कोई मार्मिक
प्रसंग आता है,मै अपने हाथो की कुशलता से अश्रु दायक द्रव अपनी आँखों पर लगा लेता हूँ
और मेरे चक्षुओं से आंसू की बरसात होने लगती है-भक्त समझते है की मै भाव विव्हल होकर
 मोम की तरह पिघल रहा हूँ पर असल में मै भाव विव्हल होकर अपने भाव बढाता हूँ.दूसरा,
मोम बत्ती की तरह मै लोगों के अन्धकार मय जीवन में प्रकाश भरता हूँ और तीसरा मुख्य
कारण है  की मेरा नाम मदन मोहन है जो काफी लम्बा है और भक्तों की जुबान पर छोटे नाम
जल्दी चढ़ते है सो मैंने ही अपने नाम के प्रथम अक्षरों से पहले म मो बाबा  सोचा पर थोडा अटपटा
लगा तो उलट कर मोम बाबा कर दिया जो सार्थक भी था.-आज मै जो भी हूँ,जनता की धर्म
के प्रति जागरूकता और पुन्य लाभ की आकांक्षा का प्रतिफल हूँ और आदरणीया दादीजी की
दूर दर्शिता,प्रेरणा और आशीर्वाद से हूँ-तो भक्तों !प्रेम से बोलो-राधे  राधे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 11 मई 2012

माटी की महक-ऊँचाइयों की कसक

माटी की महक-ऊँचाइयों की कसक

पहली पहली बारिश पर ,
माटी की सोंधी सोंधी महक
फुदकते पंछियों का कलरव,चहक
भंवरों का गुंजन
तितलियों का नर्तन
आम्र तरु पर विकसे बौरों की खुशबू
कोकिला की कुहू.कुहू
खिलती कलियाँ,महकते पुष्प
हरी घांस पर बिखरे शबनम के मोती,
या दालान में पसरी,कुनकुनी  धूप
कितना कुछ देखने को मिलता था
जब मै जमीन से जुड़ा था
अब मै एक अट्टालिका में बस गया हूँ,
जमीन से बहुत ऊपर,धरा से दूर
ऊपर से अपने लोग भी बोने से ,
रेंगते नज़र आते है,मजबूर
अब ठंडी बयार भी नहीं सहलाती है
हवाये सनसनाती,सीटियाँ बजाती है
अब सूरज को लेटने के लिए दालान भी नहीं है,
वो तो बस आता है
और खिड़की से झांक कर चला जाता है
कई बार सोचता हूँ,
जमीन से इतना ऊंचा उठ कर भी,
मेरे मन में कितनी कसक है
मैंने कितना कुछ खोया है,
न भंवरों का गुंजन है,न माटी की महक है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 9 मई 2012

यादें

          यादें
रात की नीरवता में,
जब तन और मन दोनों शिथिल होतें है,
और चक्षु बंद होते है,
मष्तिष्क के किसी कोने से,
सहसा एक  फाइल खुलती है
जो कभी थपकी देकर,नन्ही परी सी,
मन को सहला देती है,
या कभी कठोरता से,
मन को दहला देती है
कभी सूखते घावों की,
जमती हुई पपड़ी को,
अपने तीखे नाखुनो से खुरच,
घाव को फिर से हरा कर देती है
तो कभी रिसते घावों पर,
मलहम लगा कर राहत देती है
कभी हंसाती है,
कभी रुलाती है
कभी तडफाती है,
कभी झुलसाती है,
मीठी भी होती है
खट्टी भी होती है
कडवी भी होती है
चटपटी भी होती है
कभी पूनम की चांदनी सी
कभी मावस की कालिमा सी
कभी सुनहरी,कभी रुपहरी
कभी गुलाब की खुशबू भरी,
बड़ी ही द्रुत गति से,
जीवन के कई काल खण्डों को,
कूदती फांदती हुई,
स्मृति पटल पर ,छा जाती है,
  यादें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 8 मई 2012

मृत्यु

अभी हूं।
पर, पलक झपकते ही
हो सकता हूं
‘नहीं रहा’।

और, लग सकता है
पूर्णविराम।
सब-कुछ रह सकता है
धरा का धरा।

लेकिन, अभी सोचा नहीं
क्या फर्क है
होने और
चले जाने में।

अभी मनन करना है
कितना फासला है
दोनों स्थितियों में
बस कुछ, कदम या
मीलों।

पर, जाना तो है
एक दिन।
फिर, क्यूं मढ़़ रहा हूं
एक कपोल लोक
‘मेरा’ और ‘मेरे स्वार्थ का’।

रचनाकार-हरि आचार्य

रविवार, 6 मई 2012

नया जन-प्रतिनिधि

बनकर नव जन-प्रतिनिधि
हुआ आगमन मंच पर,
नमन कराकर सबसे
यह शीलवान ,
शुरू करता ह आत्म-आख्यान .....

शिक्षा- व्यापार में हूँ मैं,
राजनीति के प्रसार में हूँ मैं.
लोक-सभा में भी मैं,
और शोक सभा में भी मैं..!

मेरा अहं ही सब पर हावी,
सब की किस्मत की मैं चाबी,
ख्वाबो -ख्यालों में ही सही...

नग्न के झोपड़े में भी मैं,
इंसानी जूनूं के खोपड़े में भी मैं,
भोग-विलास में भी मैं,
निर्धनता की आस में भी मैं..!

नामौजूदगी में मेरी ,
ना हो कोई सौदा,
ना ही आंतरिक संधि,
ना ही कोई मसोदा क्योंकि...

हर व्यापार मैं भी मैं,
देश के सार में भी मैं,
कामगार में भी मैं,
और सरकार में भी मैं..!

तो समझ लूं..
मिलेंगें सब वोट मुझे ,
दावा है ये मेरे मन का,
पर प्रतिनिधि का नाम जानना,
अधिकार है जन-जन का....!

सोचते होगें
ये प्रतिनिधि है कैसा,
अरे अज्ञानी मतदाता..!
मेरा नाम है "पैसा"...!!

रचनाकार-कविता राघव

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