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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ ,
सच तो यह है ,
कि मैं खुद भी नहीं जानता ,
विचारों को शब्दों में ढाल कर ,
कुछ कहने की कोशिश करता हूँ ,
मैं कुछ नया नहीं गढ़ता ,
वही जो पहले भी सुना औए लिखा होता है ,
वही सब स्मरण कराता हूँ ,
मैं नहीं जानता मेरे लिखने से क्या होगा ,
पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है ,
उसका क्या कोई सार्थक परिणाम हुआ ,
शायद नहीं ,
लोग पढ़ते रहे ,
कुछ तारीफ़ के पुल गढ़ते रहे ,
जीवन में कौन उतार पाया ,
अच्छी बाते पढने में अच्छी लगती है ,
अमल कब हो पता है ,
शायद इसीलिए मैं सोचता हूँ ,
मैं क्या और क्यों लिखता हूँ ,
पर लिखना मेरा कर्म है ,
फल की इच्छा ना करूँ ,
तो लिखना जारी रहेगा ,


रचनाकार:-विनोद भगत
काशीपुर, उत्तराखंड

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

हम बच्चे एक ही माँ के (अनमोल बोहरा "अमोल")

हम बच्चे एक ही माँ के नाम उसका भारत माई ………….

हम हूण- द्रविड़ -मंगोल तो सब बाद में है
याद रखो सबसे पहले तो हम एक इंसान है

कौम के झगड़ों में मिट गए बड़े- बड़े तुर्रम खाँ
अमर कहलाये सिर्फ वही जो वतन पे लुटा गए
अपनी जाँ........अपनी जाँ .................

आओ मिलकर छेडें दोस्तों सब एकता की जंग
आओ कंधे से कन्धा मिलाकर एक सुर में बोलें
हम वन्दे मातरम .......वन्दे मातरम ....

क्या हिन्दू क्या मुस्लिम क्या सिख औ ईसाई
हम बच्चे एक ही माँ के नाम उसका भारत माई |

आओ "अमोल" सब मिलकर पूरी करें शहीदों की अधूरी जंग
शहीदों के अधूरे सपनों में आज भर दे हमारे लहू का रंग |
रचनाकार:-
अनमोल बोहरा "अमोल"

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

खुशियों के क्षण

खुशियों के क्षण
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नौ महीने तक रखा संग में ,पिया,खाया
जिसकी लातें खा खा कर के,मन मुस्काया
माँ जीवन में,खुशियों का पल ,सबसे अच्छा
रोता पहली बार,जनम लेकर जब  बच्चा
एक बार ही आता है  ये पल जीवन में
जब बच्चा रोता और माँ खुश होती मन में

मदन मोहन बहेती'घोटू'

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

दीन-हीन परदेश, छकाते छोरी-छोरा

दीन-हीन परदेश, छकाते छोरी-छोरा

छोरा होरा भूनता, खूब बजावे गाल ।
हाथी के आगे नहीं, गले हाथ की दाल ।

गले हाथ की दाल, गले तक हाथी डूबा ।
कमल-नाल लिपटाय, बना वो आज अजूबा ।

करे साइकिल  रेस, हुलकता यू पी मोरा ।
दीन-हीन परदेश,  छकाते छोरी-छोरा ।। 

प्रेमोत्सव या प्रेम का व्यापार


आज सुबह समाचार पत्र पर अचानक से नजर पड़ी,
"वेलेनटाईन डे की तैयारी" शीर्षक कुछ अटपटा सा लगा।
हृदय मे कुछ दुविधा उठी,
मन ही मन मै सोचने लगा|

वेलेनटाईन डे के नाम पर ये क्या हो रहा है?
कई फायदा उठा रहे है कईयों का कारोबार चल रहा है।
एक खाश दिन को प्रमोत्सव पता नहीं किसने चुना,
प्रेम अब हृदय से निकल के बाजार मे आ गया है।
व्यापारीकरण के दौर मे प्यार भी व्यापार हो गया है।
ग्रिटिंग्स कार्ड, बेहतरीन गिफ्ट्स, यहाँ तक की फूलो के भी दाम है
हर चीज अब खाश है बस प्रेम ही आम है।

कुछ इसे मनाने की जिद मे अड़ते रहते है,
कुछ संस्कृति के नाम पे इसे रोकने को लड़ते रहते है।
पर सोचने वाली बात है कि सच्चा प्रेम है कहाँ पे?
पार्क में घुमना, होटल में खाना प्रेम का ही क्या रूप है?
भेड़ों की चाल में शामिल हो जाना ही जिन्दगी है तो,
ऐसी जिन्दगी में सोचने की जगह ही कहाँ है?

अगर सच्चा प्रेम है तो क्या उसका कोई खाश दिन भी होता है?
हर दिन क्या प्रेम के नाम नहीं हो सकता?
क्या मानव होकर हर दिन हम मानव से प्यार नहीं कर सकते?
हर दिन किसी  से या देश से प्यार का इजहार नहीं कर सकते?
जो भी हो पर मष्तिष्क की स्थिति यथावत ही है,
मतिभ्रम है और ना थोड़ी सी राहत ही है।
पर किसी न किसी को तो सोचना ही होगा,
आगे आके गलतियों को रोकना ही होगा|
मष्तिष्क मे आया कि जेहन मे ये ना ही आता तो अच्छा था।

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