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शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला

अब भी मुझे याद आता है,वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला
पश्चिम की संस्कृती ने आकर,सब व्यवहार बदल ही डाला
जब सर ढके पत्नियाँ घर में,पति का नाम नहीं लेती थी
अजी सुनो पप्पू के पापा,या चूड़ी खनका  देती थी
कभी बुलाना हो जो पति को,कमरे की सांकल खटकाना
कभी कोई आ जाये अचानक,शर्मा कर झट से हट जाना
चंदा से मुखड़े को ढक कर,दिन भर घूंघट करके रहना
कितना प्यारा ,मनभाता था,उनका 'ऐ जी'ओ जी'कहना
ले लेने से नाम पति का,उमर पति की कम होती थी
तब पति पत्नी के रिश्ते में,थोड़ी झिझक,शरम होती थी
घर के बूढ़े बड़े बैठ कर,कर देते थे रिश्ता पक्का
पहली बार सुहागरात में,मुंह दिखता था,पति पत्नी का
कैसा होगा जीवन साथी,मन में कितना 'थ्रिल 'होता था
मुंह दिखाई से मन रोमांचित,प्रथम बार जब मिल होता था
इस युग में,शादी से पहले,मिलना जुलना  अब होता है
होती रहती डेटिंग वेटिंग,पिक्चर विक्चर  सब होता है
हनीमून हिल स्टेशन पर,घूंघट,मुंह दिखाई सब गायब
जींस और टी शर्ट पहन कर,नव दम्पति घूमा करते अब
एक दूजे को ,प्रथम  नाम से ,पति पत्नी है अब पुकारते
गया  ज़माना,'सुनते हो जी',का पुकारना बड़े  प्यार से
लेकर नाम बुलाने का तो, होता है अधिकार सभी का
पर 'ऐ जी'ओ जी'कहने का,हक़ था केवल पति पत्नी का
रहन सहन सब बदल गया है,इस युग का है चलन निराला
अब भी मुझे याद आता है,वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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बुधवार, 2 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक
उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर
होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

दफ्तरी लंच

दफ्तरी लंच
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एक बड़े दफ्तर के आगे,
हम्मर एक खोखा है
जहाँ पर दफ्तरी लंच खाने का,
बड़ा अच्छा मौका है
जैसे घर का खाना खा कर,
आप फील करते है 'होमली'
इसी तरह हमारे यहाँ खाकर,
आप फील करेंगे 'दफ्तरी'
जैसे कागज़ की प्लेटें,लकड़ी के चमचे,
जो  काम निकलने के बाद,
फेंक दिए जाते है
जैसे चाटुकार चमचे,जो अपने 'बॉस 'को,
मक्खन लगाते है और  चाटते है पाँव
उनके लिए मिलते है,
मौजे और जूतों की बदबू रहित,पाव
और वो भी मख्खन लगे,फिर भी सस्ता भाव
चाटुकारों ने ,जब से हमारे पाव खाएं है
एसा टेस्ट बदला है,बार बार आये है
दूसरा आइटम 'सेंडविच आम' है
आम आदमी के लिए,
एक तरफ घर की समस्याओं की स्लाइस है,
और दूसरी तरफ दफ्तर की मुश्किलों की स्लाइस
बीच में ,थोड़ी सी मजबूरी का मख्खन,
टिमटिमाती आस का  टमाटर ,
पत्ते दर पत्ते मुसीबतों से आते हुए,
पत्ता गोभी के चंद कतरे
लोगों के उपहास की नमक मिर्च,
बस बन गयी सेंडविच
आम आदमियों सी कितनी आम साईं
फिर भी सस्ते दाम है
एक बाईट लेने पर लगता है,
सभी समस्याओं का हल हो गया है
मन को बहलाना कितना सरल हो गया है
तीसरा आइटम 'ख्वाईशी दही बड़े 'है
बड़े बनने की इच्छा में,
दलहन को दल कर दाल बनना पड़ता है
फिर रात भर पानी में गलना पड़ता है
बचपन के साथी छिलकों का साथ छोड़ ,
समय के सिल पर पिसना पड़ता है
फिर  दुनियादारी की कढ़ाही में,
उबलते हुए समझोतों के तेल में तले जाना होता है
तब कही जाकर,माखनी दही में,
डुबकी लगाने का आनंद मिलता है
 इन दहिबडों को खाकर ही,
मन का कमल खिलता है
और भी कई आइटम है,
जो यदि आप खायेंगे,
दफ्तरी पायेंगे
जैसे गुलाब जामुन,
जिनमे  ना गुलाब की खुशबू है,
न जामुन का स्वाद,
फिर भी गुलाब जामुन कहाते है
बिलकुल आपके बॉस की तरह,
या आपके जॉब की तरह
जिनके नाम और काम में ,
आप बहुत बड़ा फर्क पाते है
सभी आइटमो का बेसिक सेलरी की तरह,
सस्ता दाम है
और मंहगाई भत्ते की तरह,
पानी पीने का मुफ्त इंतजाम है
क्योकि साहब,बेसिक सेलरी तो,
बेसिक मदों में ही चली जाती है
महीने खर्चा तो डी.ए.से चलता है
उसी तरह सेंडविच ,दहिबडों से,
भूख थोड़े ही मिटती है,
पेट तो पानी से ही भरता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जिस क्यारी से की यारी,वो क्यारी फिर क्यारी न रही
जिस डाली पे नज़र डाली,वो डाली फिर डाली  न रही
जिस गुलशन में हम पहुँच गये,कुछ गुल न खिले नामुमकिन है,
जिस महफ़िल के मेहमान हुए,वो महफ़िल फिर खाली न रही

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अगज़ल ----- दिलबाग विर्क



     माना  कि  जुदाई  से  गए  थे  बिखर  से  हम 
     नामुमकिन तो था मगर, संभल गए फिर से हम. 
                           साहित्य सुरभि  


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