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गुरुवार, 27 मई 2021

जाने कहां गए वो दिन 

जब भी मुझे याद है आते 
वह भी क्या दिन थे मदमाते 
जिसे जवानी हम कहते थे
 नहीं किसी का डर चिंता थी 
 एक दूजे के साथ प्यार में 
 बस हम तुम डूबे रहते थे 
 
 इतना बेसुध मेरे प्यार में 
 रहती कई बार सब्जी में 
 नमक नहीं या मिर्ची ज्यादा 
 फिर भी खाता बड़े चाव से
  उंगली चाट तारीफें करता 
  मैं दीवाना सीधा-सादा
  
  देख तुम्हारी सुंदरता को 
 सिकती हुई तवे की रोटी 
 ईर्षा से थी तुमसे जलती 
 तुमसे पल भर की जुदाई भी
  मुझको सहन नहीं होती थी
  इतना तुम तड़पा या करती 
  
  जब तुम्हारे एक इशारे 
  पर मैं काम छोड़कर सारे
   पागल सा नाचा करता था 
   तुम्हारे मद भरे नैन के 
   ऊपर भृकुटि नहीं जाए तन
   मैं तुमसे इतना डरता था 
   
   जब तुम्हारे लगे लिपस्टिक 
   होठों का चुंबन मिलता था 
   मेरे होठ नहीं  फटते थे 
   ना रिमोट टीवी का बल्कि
    तुमको  हाथों में लेकर के
    तब दिन रात मेरे कटते थे 
    
    जब मैं सिर्फ तुम्हारी नाजुक 
     उंगली को था अगर पकड़ता 
    पोंची तुम देती थी पकड़ा 
    आते जाते जानबूझकर
     मुझे सताने या तड़पाने 
     तुम मुझसे जाती थी टकरा 
     
      मैं था एक गोलगप्पा खाली
      तुमने खट्टा मीठा पानी 
      बनकर मुंह का स्वाद बढ़ाया 
      बना जलेबी गरम प्यार की 
      डुबा चाशनी सी बातों में 
      तुमने मुझे बहुत ललचाया 
      
      कला जलेबी कि तुम सीखी 
      बना जलेबी मेरी जब तब,
      आज हो गई हो पारंगत 
      लच्छेदार हुई रबड़ी सी 
      मूंग दाल के हलवे जैसी 
      बदल गई तुम्हारी रंगत 
      
      खरबूजे पर गिरे छुरी या
      गिरे छुरी ऊपर खरबूजा 
      कटता तो खरबूजा ही था 
      साथ उम्र के बदली दुनिया 
      किंतु सिलसिला यह कटने का 
      कायम अब भी,पहले भी था 

      मदन मोहन बाहेती घोटू

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