इमारत,दरख़्त और इंसान
कुछ घरोंदे बन गए घर , कुछ घरोंदे ढह गये
निशां कुछ के,खंडहर बन ,सिर्फ बाकी रह गये
कल जहाँ पर महल थे ,रौनक बसी थी ,जिंदगी थी
राज था रनवास था और हर तरफ बिखरी ख़ुशी थी
वक़्त के तूफ़ान ने ,ऐसा झिंझोड़ा ,मिट गया सब
काल के खग्रास बन कर ,हो गए वीरान है अब
उनके किस्से आज बस,इतिहास बन कर रह गए है
कुछ घरोंदे बन गए घर ,कुछ घरोंदे ढह गये है
भव्य हो कितनी इमारत, उसकी नियति है उजड़ना
प्रकृति का यह चक्र चलता सदा बन बन कर बिगड़ना
भवन भग्नावेश तो इतिहास की बन कर धरोहर
पुनर्जीवित मान पाते ,जाते बन पर्यटन स्थल
चित्र खंडित दीवारों के ,सब कहानी कह गये है
कुछ घरोंदे बन गये घर ,कुछ घरोंदे ढह गये है
वृक्ष कितना भी घना हो ,मगर पतझड़ है सुनिश्चित
टूटने पर काम आये ,काष्ठ ,नव निर्माण के हित
वृक्ष हो या इमारत,हो ध्वंस छोड़े निज निशां पर
मनुज का तन ,भले कंचन ,मिटे तो बस राख केवल
अस्थि के अवशेष जो भी बचे ,गंगा बह गये है
कुछ घरोंदे ,बन गये घर,कुछ घरोंदे ढह गये है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
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