साकार सपन
कभी कुछ करने का मन में ,सपन हमने संजोया था
प्यार से एक पौधे को , जतन से हमने बोया था
संवारा हमने तुमने मिल ,बड़ी मेहनत से सींचा है
खुदा की मेहरबानी से ,गया बन अब ,बगीचा है
बहारें आई अब इसमें ,फूल कितने महकते है
दरख्तों पर ,रसीले से ,हजारों फल लटकते है
यही कोशिश है हरदम ,कि आये कोई भी मौसम
फले,फूले और हरियाली ,सदा इसकी रहे कायम
मदन मोहन बाहेती;घोटू;
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