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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गुड़ और गुलगुले

    गुड़ और गुलगुले

कहते है खाने के बाद
गुड़ की एक डली,
खाई जाय ,लेकर के स्वाद
तो वो पाचन क्रिया में सहयोग देती है
और शक्कर कम खानी  चाहिए,
क्योंकि वो रोग देती है
मैं डाइबिटीज का मरीज ,
अक्सर जाता  हूँ खीज
जब लोग देते है उपदेश
गुड़ खाओ पर गुलगुलों से रखो परहेज
अरे हमारे रोज के खाने में ,
आटा भी होता है ,घी भी होता है
और ऊपर से गुड़ खालो तो चलता है
पर इन्ही तीन चीजों से तो गुलगुला बनता है
गुड़ के पानी में आटा घोल कर,जब जाता है तला
तो बनता है गुलगुला
तो फिर मेरी समझ में ये नहीं आता है
गुड़ खाने की मनाही नहीं है ,
प र गुलगुले से परहेज किया जाता है
इसके जबाब में किसी ने समझाया
शहद गुणकारी है,अगर जाय खाया
और घी खाने से बढ़ जाता बल है
पर शहद और घी ,बराबर मात्रा में मिल जाय ,
तो बन जाता घोर हलाहल है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुपूर्णिमा -दो दोहे

       गुरुपूर्णिमा -दो दोहे
                    १
ट्यूशन ,कोचिंग कर रहे ,कमा रहे है माल
पहले  होते  थे  गुरु, पर  अब  गुरुघंटाल
                     २
शिक्षा कुछ   देते नहीं,पैसे सिरफ़  कमाय
चेले गुड़ के गुड़ रहे ,गुरु शक्कर बन जाय

घोटू

गुरुपूर्णिमा पर दो कवितायेँ

      गुरुपूर्णिमा पर दो कवितायेँ
                       १
कहते है शक्कर
हमेशा होती है गुड़ से बेहतर
इसीलिये ,जब चेले लाखों कमाते है
और गुरुजी अब भी अपनी पुरानी,
 स्कूटर पर कॉलेज जाते है
लोग कहते है अक्सर
गुरूजी गुड़ ही रहे ,
और चेलेजी हो गए शक्कर
पर वो ये भूल जाते है कि गुड़ ,
सेहत के लिए बड़ा फायदेमंद होता है
और ज्यादा शकर खानेवाला ,
डाइबिटीज का मरीज बन,
जीवन भर रोता है
इसलिए लोग जो कहते है ,कहने दें
गुरु को लाभकारी ,गुड़ ही रहने दें
क्योंकि वो हमें देतें है ज्ञान
कराते है भले बुरे की पहचान
बनाते है एक अच्छा इंसान
इसलिए ऐसे गुरु को ,
हमारा कोटि कोटि प्रणाम
                   २
सच्ची निष्ठां से हमें शिक्षित किया ,
               हम है जो कुछ ,गुरु का अहसान है
कभी मारी छड़ी,दुलराया कभी,
                तभी मिल पाया हमें ये ज्ञान  है
सच्चे मन और समर्पण से पढ़ाते ,
                वो  गुरु, बीते  हुए  कल  हो गए 
कभी ट्यूशन ,कभी कोचिंग कराते ,
             आज गुरु कितने कमर्शियल हो गए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

शहजादे से

         शहजादे से

ओ बिन गद्दी के शहजादे
हो बड़े अधूरे,तुम आधे
ना तो कुर्सी पर चढ़ पाये
ना ही घोड़ी पर चढ़ पाये
जनता ने दिया नकार तुम्हे
और किया नहीं स्वीकार तुम्हे
इसलिए की तुम नाकारा हो
एक फूला सा गुब्बारा हो
पर गयी हाथ से जब सत्ता
 जनता ने काट दिया  पत्ता
तो तुम उनके घर जाते हो
और हमदर्दी दिखलाते हो
ये कर दूंगा ,वो कर दूंगा
मैं साथ तुम्हारा पर दूंगा
लेकिन जब तुम थे पॉवर में
बस बैठे रहते  थे घर  में
पर जब कुछ करवा सकते थे 
तो कुछ करने से भगते थे
जब मिली हार ,हो बेकरार
अब भी भगते हो बार बार 
हो जाते  लुप्त अचानक हो
सचमुच तुम नन्हे बालक हो
कोई दुर्घटना हुई कहीं
जाते दलबल के संग वहीँ
निज सहानुभूती दिखलाते हो
पब्लिसिटी  करवाते हो
खाते खाना गरीब के घर
कुछ चमचे ,कुछ गुर्गे लेकर
पदयात्राएं  करते  रहते 
कुछ रटे  हुए जुमले कहते
तुम्हारी ये जो कसरत  है
केवल फिजूल की मेहनत है
संसद में जा चिल्लाते हो
अपना मखौल उड़वाते हो 
जनता ने तुमको जाना  है
अब मुश्किल वापस आना है

घोटू

मैं ढूंढ रहा उस लड़की को

               मैं ढूंढ रहा उस लड़की को

मैं कल अपनी पत्नी जी को,था बड़े गौर से ताक रहा
उनकी आँखों में आँख ड़ाल ,उनके अंतर में झांक रहा
वो बोली क्या करते हो जी,क्यों देख रहे हो घूर घूर
मैं वो ही तुम्हारी बीबी हूँ  ,ना कोई  अप्सरा, नहीं हूर
अब नहीं हमारी उमर रही ,ऐसे यूं आँख लड़ाने की
धुँधली आँखे,ढलता चेहरा ,जरुरत क्या नज़र गड़ाने की 
मैं बोला ढूंढ रहा हूँ मैं ,एक लड़की, बदन छरहरा था
जिसकी आँखों में लहराता ,उल्फत का सागर गहरा था
जब हंसती थी तो गालों पर ,डिम्पल पड़ जाया करते थे
जिसके रक्तिम से मधुर अधर,मुझको तड़फ़ाया करते थे
रेशम से बाल बादलों से,हिरणी सी आँखें चंचल थी
जो भरी हुई थी मस्ती से ,मदमाती,प्यारी ,सुन्दर थी
हंसती थी फूल खिलाती थी,वह भरी  हुई थी यौवन से
मैं ढूंढ रहा वह प्रथम प्यार,जिसको मैंने चाहा  मन से
जिस यौवन रस में डूब डूब ,मैंने जीवन भरपूर जिया
वह कहाँ खो गयी इठलाती , मनभाती मेरी प्राणप्रिया
क्या वो तुम ही थी,नहीं,नहीं,वो लड़की तुम ना हो सकती
नाजुक पतली कमनीय कमर ,ऐसा कमरा ना हो सकती
वह कनकछड़ी इतनी थुल थुल ,ना ना ये है मुमकिन नहीं
क्या सचमुच वो लड़की तुम हो, ये आता मुझे यकीन नहीं
तुम तो कोई की नानी माँ,  कोई की लगती दादी हो
अम्मा हो या फिर किसी बहू की सासू सीधी  सादी हो
उलझी इस तरह गृहस्थी में ,तुमको अपना ही होश नहीं
तुम अस्त व्यस्त और पस्त रहो,तुममे वो वाला जोश नहीं
सेवा में पोते पोती की  ,तुम पति की सेवा भूल गयी
अपना कुछ भी ना ख्याल रखा ,तुम दिन दिन दूनी फूल गयी
मैं ढूंढ रहा उस लड़की को ,मैं जिसे ब्याह कर लाया था
जिसने तन मन से प्यार किया ,अपना सर्वस्व लुटाया था
क्या बतला सकती तुम मुझको,खो गयी कहाँ,वो कहाँ गयी
पत्नीजी हंस कर यूं बोली, मैं वही ,सामने  खड़ी ,यहीं
ये सब करतूत तुम्हारी है ,जो मेरी  है ये  हालत कर दी
आहार प्यार का खिला खिला ,इतनी खुशियां मुझ में भरदी
मेरा स्वरूप जो आज हुआ  ,ये  सब  गलती तुम्हारी है
क्या कभी आईने में तुमने,अपनी भी शकल निहारी है
उड़ गए बाल आधे सर के ,ढीले ढाले से लगते हो
पर तुम जैसे भी हो अब भी ,उतने ही प्यारे लगते हो
सच तो ये है ,मैं ना बदली,नज़रें तुम्हारी बदल गयी
 अब भी मुझमे ढूँढा करते ,सकुचाती दुल्हन नयी
ये मत भूलो  बढ़ रही उमर ,यौवन ढलान पर है आया
ना तुममे जोश बचा उतना,मेरा स्वरूप भी कुम्हलाया
,पर मैं ही तो हूँ वो लड़की ,जिससे तुमने की थी शादी
तुम ही वो प्रेमी हो जिन संग,थी जीवन डोर कभी बाँधी
यदि वो ही दिवाने आशिक़ बन ,कर करीब तुम आओगे
तुम वही पुरानी प्यार भरी , लड़की मुझमे  पा जाओगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ईश्वर की मेहरबानी

     ईश्वर की मेहरबानी

चलाया ए.सी.तो कमरा ,एक  ही ठंडा हुआ,
                    चलाई तूने हवा,ठंडक भी आयी साथ में
नलों में पानी नहीं था ,हर तरफ सूखा पड़ा,
                     लगे बहने नदी नाले ,एक ही बरसात में
बल्ब बिजली के कई ,जल एक घर रोशन करे,
                    तेरा एक सूरज उजाला ,करता कायनात में
लाख कोशिश करले इन्सां ,तेरे आगे कुछ नहीं ,
                      बात ही कुछ और है ,ईश्वर तेरी हर बात में

घोटू

चाय और बिस्किट

             चाय और बिस्किट

रिश्ता मेरा तुम्हारा ,बिस्किट और चाय का है
चाय के  साथ  बिस्किट     ,देते बड़ा मज़ा  है
तुम चाय सी गुलाबी ,बिस्किट मैं  कुरकुरा हूँ
तुम गर्म गर्म मीठी ,   मैं  स्वाद से भरा  हूँ
अलबेली,नित नवेली तुम हो,न  मैं भी कम हूँ
तुम्हारा प्यार  रस  पी,  होता नरम नरम हूँ
आता है स्वाद दूना ,  जब होता ये मिलन है
चाय के साथ बिस्किट ,सबका लुभाते मन है
ये दोस्ती हमारी  ,कायम  सदा सदा  है
चाय के साथ बिस्किट ,देते बड़ा मज़ा है

घोटू

चाय और बिस्किट

             चाय और बिस्किट

रिश्ता मेरा तुम्हारा ,बिस्किट और चाय का है
चाय के  साथ  बिस्किट     ,देते बड़ा मज़ा  है
तुम चाय सी गुलाबी ,बिस्किट मैं  कुरकुरा हूँ
तुम गर्म गर्म मीठी ,   मैं  स्वाद से भरा  हूँ
अलबेली,नित नवेली तुम हो,न  मैं भी कम हूँ
तुम्हारा प्यार  रस  पी,  होता नरम नरम हूँ
आता है स्वाद दूना ,  जब होता ये मिलन है
चाय के साथ बिस्किट ,सबका लुभाते मन है
ये दोस्ती हमारी  ,कायम  सदा सदा  है
चाय के साथ बिस्किट ,देते बड़ा मज़ा है

घोटू

लम्हों ने खता की थी

        लम्हों ने खता की थी

पहले मैं सोचता था,कि 'एकला चालो रे '
                  जीवन का सफर तन्हा ,लगने लगा दुखदायी
शादी के लेने फेरे ,कुछ लम्हे ही लगे थे ,
                   लम्हों ने खता की थी,सदियों ने सज़ा  पायी
जैसे ही सर मुंडाया ,ओले लगे बरसने ,
                    घर के न घाट के अब , हालत है ये बनायी
ना तो रहे इधर के ,ना ही रहे उधर के ,
                    ना चैन ही मिला और ना शांति ही मिल पायी

घोटू    

बच्चा-बच्चा तुम्हें याद करता रहे...


जब जुड़े विज्ञान से तो
अग्नि मिसाइल बना डाली,
जब बच्चों को पढ़ाने चले तो
जोड़ दिये कई नये अध्याय...
जब जुड़े देश की सेवा से तो
कायम कर दीं कई नई मिसालें,
बन बैठे जनता के राष्ट्र्पति
और आपसे सम्मानित होने लगे
देश के सारे के सारे सम्मान...
बहुत खूबसूरत नहीं थे तो क्या
खूबियां इतनी पैदा की कि
खूबसूरती खुद तरसा करे
आपके करीब आने के लिये,
व्यवहार इतना सीधा और सरल
कि बचपना देखे सपने
आप जैसा बन पाने के लिये...
सच में आप थे हैं और रहेंगे
एक ऐसे खूबसूरत कलाम
जिसको गर्व से गुनगुना रहा है
और गुनगुनाता रहेगा पूरा देश
आपको दिल से करते हुए सलाम...
आपकी शान में एक शेर कि -

एक ऐसी कहानी से तुम बन गये
बच्चा-बच्चा तुम्हें याद करता रहे

हार्दिक नमन एवं श्रद्धांजलि के साथ

- विशाल चर्चित

सोमवार, 27 जुलाई 2015

दो बद्दी वाली चप्पल

  दो बद्दी वाली चप्पल

यह दो बद्दी वाली चप्पल
सस्ती,टिकाऊ,नाजुक,मनहर
चाहे  बजार या  बाथरूम,
ये साथ निभाती है हरपल
चाहे नर हो चाहे नारी ,
सबको लगती प्यारी,सुन्दर
ना मन में कोई भेदभाव ,
सब की ही सेवा में तत्पर
सब को आजाती ,कोई भी,
पावों में डाला,देता चल
गन्दी होती तो धुल जाती,
और बहुत दिनों तक जाती चल
हम भी इसके गुण  अपनायें ,
और काम आएं सब के प्रतिपल
वो ही मृदु सेवाभाव  लिए,
सबकी  सेवा में रह तत्पर
गर्मी में पैर न जलने दें,
उनको ना  चुभने दें पत्थर
हम साथ निभाएं,काम आएं
यह जीवन होगा तभी सफल

घोटू

बुढ़ापे में नींद कहाँ है आती

  
 
कुछ तो बीबी खर्राटे भरती है , 
                     और कुछ बीते दिन की याद सताती 
यूं ही बदलते इधर उधर हम करवट,
                        बुढ़ापे  में  नींद  कहाँ  है   आती 
कभी पेट में गैस बना करती है ,
                         और कभी  सिर में होता भारीपन 
कंधे ,गरदन कभी दर्द करते है,
                          पैरों या पिंडली में होती तड़फन 
अंग अंग को दर्द  कचोटा करता ,
                          कभी  काटने लगता है सूनापन 
बार बार प्रेशर बनता  ब्लेडर में,
                          बाथरूम जाने को करता है मन 
कभी हाथ तो कभी  पैर दुखते है ,
                            एक अजीब सी तड़फन है तड़फ़ाती 
यूं ही बदलते  इधर उधर हम करवट,
                                बुढ़ापे   में  नींद  कहाँ  है  आती 
भूले  भटके यदि लग जाती झपकी,
                                तो फिर सपने आकर हमें सताते 
बार बार मन में घुटती रहती है,
                                कुछ अनजान ,अधूरी मन की बातें 
जब यादों के बादल घुमड़ा करते ,
                                आंसू   की  होने  लगती  बरसातें
मोह माया के बंधन को अब छोडो,
                                 यूं ही बस हम है खुद को समझाते 
ऐसी नींद उचटती है आँखों से ,
                                भोर तलक फिर नहीं लौट कर आती 
यूं ही बदलते इधर उधर हम करवट ,
                                 बुढ़ापे   में नींद   कहाँ है  आती 

मदन मोहन  बाहेती'घोटू' 
                                 

गोलगप्पे

     
एक बड़े माल के ,नामी रेस्तराँ में,
छह गोलगप्पे खाने के लिये 
हमने पूरे साठ  रूपये खर्च किये 
कूपन देकर ,इन्तजार करने के बाद 
एक प्लेट आयी हमारे हाथ 
जिसमे एक कटोरी में पुदीने का पानी डाला था 
दूसरी में छह गोलगप्पे ,
और उबले हुए आलू का मसाला था 
खुद ही गोलगप्पे में ,हमने जब छेद किये 
उसमे ही एक दो तो ,बेचारे टूट गये 
बाकी में भर कर आलू का मसाला 
धीरे धीरे चम्मच से ,पानी था डाला 
तब जाकर मुश्किल से गोलगप्पे खा पाये 
ऐसे में वो गली के ठेले वाले के ,
वो प्यारे गोलगप्पे याद आये 
वो ठेले वाला ,आपको प्रेम से बुलाता है 
दोना पकड़ाता है ,
फिर आपकी मर्जी के मुताबिक़ ,
आटे  के या सूजी के गोलगप्पे खिलाता है 
 छेद  वो ही करता है ,आलू भी भरता है 
 फिर आपके स्वादानुसार ,खट्टा मीठा पानी भर ,
एक एक गोलगप्पा ,दोने में धरता है 
जब तक आपके मुंह में ,
पहले गोलगप्पे का जायका घुलता है 
तब तक ही आपको ,दूसरा गोलगप्पा  मिलता है 
आखिर में दोना भर ,खट्टा मीठा पानी भी ,
मुफ्त  देता है 
उस पर छह गोलगप्पों के ,
सिर्फ दस रूपये लेता है 
माल में ,छह गुने पैसे भी खर्च करो 
फिर खुद ही चम्मच से ,गोलगप्पे में पानी भरो 
फिर बड़े अनुशासन में ,धीरे धीरे खाओ 
भले ही पानी,खट्टा या तीखा है 
अरे ये भी कोई चाट खाने का तरीका है 
चाट खाओ और चटखारे  ना लो,
ऐसे भी कोई चाट खाता है 
गोलगप्पे का असली मज़ा तो ,
ठेले पर खड़े होकर ,
चटखारे ले लेकर ,खाने में आता है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

मॉल कल्चर

          मॉल कल्चर

बड़े बड़े मालों के ,शोरूमों की शॉपिंग ,
                      प्लास्टिक की  थैली के भी पैसे लगते है
वही चीज सेल लगा ,दे आधे दामो में ,
                      तभी पता लगता है,वो कितना ठगते है
ब्रांड की चिप्पी से ,दाम बहुत बढ़ जाते ,
                      बिन चिप्पी के उनकी ,कीमत बस आधी है
गाँवों में वही चीज ,लाला  की गुमटी पर,
                       मोलभाव करने पर    सस्ती मिल जाती है
असल में मालों का ,अपना ही खर्चा है ,
                         सेल्स गर्ल,ऐ.सी. है, बिजली जलाते है
इन  सबकी कीमत भी,सौदे में जुड़ती है ,
                           इन सबका खर्चा भी ,हम ही चुकाते है
 पर जब भी होता है ,घर घर में पॉवरकट,
                            मज़ा लेने ऐ ,सी. का,लोग यहाँ जुटते है
समय काटने को हम,फिर शॉपिंग करते है,
                           मंहगी है चीजें पर ,ख़ुशी  ख़ुशी  लुटते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 25 जुलाई 2015

मैं तुम्हारा मीत रहूंगा

                मैं तुम्हारा मीत  रहूंगा

चाहे तुम मुझको अपना समझो ना समझो,
                पर जीवन भर ,मैं तुम्हारा मीत  रहूंगा
तुम बरबस ही अपने होठों से छू लगी ,
                मधुर मिलन का प्यारा प्यारा गीत रहूँगा
जिसकी सरगम दूर करेगी सारे गम को ,
               मैं मन मोहक,वही मधुर संगीत रहूँगा  
जिसकी कलकल में हरपल जीवन होता है,
               मै गंगा सा पावन  और पुनीत  रहूँगा
पहना तुमको हार गुलाबी वरमाला का ,
             मैं कैसे भी , ह्रदय तुम्हारा जीत रहूँगा
निज सुरभि से महका दूंगा तेरा जीवन ,
              सदा तुम्हारे दिल में बन कर प्रीत रहूँगा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

हम कितने पागल है

         हम कितने पागल है

बुढ़ापे में अपने को परेशान करते हैं 
बीते हुए जमाने को  याद करते हैं 
संयम से संभल संभल ,रहते  हरपल हैं  
सचमुच  हम कितने पागल हैं 
अरे बीते जमाने में क्या था ,
दिन भर की खटपट
गृहस्थी का झंझट
कमाई के लिए भागदौड़
आगे बढ़ने की होड़
उस जमाने में हमने जो भी जीवन जिया
अपने लिए कब जिया
सदा दूसरों के लिए जिया
इसलिए वो ज़माना औरों का था ,
हमारा ज़माना आज है
आज हमें किसी की परवाह  नहीं ,
घर में अपना राज है
एक दूसरे को अर्पित
पूर्ण रूप से समर्पित
हमारा प्यार करने का निराला अंदाज है
न किसी की चिता ,न किसी का डर
मौज मस्ती में  डूबे हुए,बेखबर
एक दुसरे का है सहारा
आज ही तो है,ज़माना हमारा
प्यार में डूबे हुए ,रहते हर पल है
फिर भी बीते जमाने को याद करते है,
सचमुच ,हम कितने पागल है
जवानी भर,मेहनत कर ,जमा की हुई पूँजी
अपने पर खर्च करने में,दिखाते कंजूसी
ऐसी आदत पड़  गयी है,पैसा बचाने की
अरे ये ही तो उमर है ,
अपना कमाया पैसा ,अपने पर खर्च करके ,
मौज और मस्ती मनाने की
क्योंकि अपने पर कंजूसी कर के ,
तुम जो ये पैसा बचा रहे है जिनके लिए 
वो तुम्हारे,क्रियाकर्म के बाद ,
आपस में झगड़ेंगे ,इसी पैसे के लिए
 तुम जिनकी चिंता कर रहे हो  ,
उन्हें आज भी तुम्हारी परवाह नहीं ,
तो तुम क्यों उनकी परवाह करते हो
उनके भविष्य के लिए बचा कर ,
क्यों अपना आज तबाह करते हो
तुम्हे उनके लिए जो करना था ,कर दिया,
आज वो अपने पैरों पर खड़े है
अपनी अपनी गृहस्थी में मस्त है
उनके पास ,तुम्हारे लिए कोई समय नहीं ,
वो इतने व्यस्त है
तो अपनी बचत,अपने ऊपर खर्च करो ,
खूब मस्ती में जियो ,
उनकी चिता मत व्यर्थ करो
मरने के बाद ,स्वर्ग जाने के लालच में ,
यहाँ पर नरक मत झेलो
अरे स्वर्ग के मजे यहीं है ,
खुल कर खाओ,पियो और खेलो
ये  बुढ़ापे की उमर ही ,
एक ऐसी उमर होती है ,
जब आदमी अपने लिए जीता है
बिना रोकटोक के ,अपनी ही मर्जी का ,
खाता और पीता है
क्या पता फिर ये ख़ुशी के पल ,हो न हो
क्या पता,कल,हो न हो
आदमी दुनिया में उतने दिन ही जीता है
जितना अन्न जल है
फिर भी हम परेशान रहते है,
सचमुच,हम कितने पागल है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

नफरत की दीवारें

        नफरत की दीवारें

तुम भी इन्सां ,हम भी इन्सां ,हम  में कोई फर्क नहीं है 
अलग अलग रस्तों पर चलते,आपस में संपर्क नहीं है 
सब है हाड मांस के पुतले ,एक सरीखे ,सुन्दर प्यारे
कोई हिन्दू ,कोई मुसलमां ,खड़ी बीच में क्यों दीवारें
ध रम ,दीन ,ईमान हमेशा,  फैलाता  है  भाईचारा
तो क्यों नाम धरम का लेकर ,आपस में होता बंटवारा
ठेकेदार धरम के है कुछ, जो है ये नफरत फैलाते
भाई भाई आपस में लड़वा ,है अपनी दूकान चलाते

घोटू

सड़ी गर्मी

      सड़ी गर्मी

जेठ की तपती धूप -कँवारापन
शादी--बारिशों का मौसम
शादी के बाद बीबी का मइके जाना -
विरह की आग में तपना ,आंसू बहाना
जैसे बारिश के बाद की सड़ी गर्मी -
उमस और पसीना आना

घोटू

गुलाब जामुन और रसगुल्ला

गुलाब जामुन और रसगुल्ला

जब रहा उबलता गरम दूध,उसने निज तरल रूप खोया
अग्नि ने इतना तपा दिया ,वो आज बंध  गया,बन खोया
वह खोया जब गोली स्वरूप ,था तला गया देशी घी  में
सुन्दर गुलाब सी  हुई देह , फिर डूबा गरम चाशनी में
वह नरम,गुलाबी और सुन्दर था गरम गरम सबको भाया
सबने जी भर कर लिया स्वाद ,गुलाब जामुन वो कहलाया
था दूध वही पर जब फाड़ा ,तो  रेशा  रेशा  बिखर गया
जब छाना ,पानी अलग हुआ ,वो छेना बन कर निखर गया
जब बनी गोलियां छेने की ,चीनी के रस में जब उबला
इतना डूबा वह उस रस में ,एक नया रूप लेकर निकला
वह श्वेत ,रस भरा ,स्पोंजी,जब प्लेटों में  मुस्काता है
स्वादिष्ट बहुत,मन को भाता,वह रसगुल्ला कहलाता है
रसगुल्ला और गुलाबजामुन ,ये दोनों भाई भाई  है
है  बेटे एक ही माता के  ,पर  अलग   सूरतें पायी है
है एक गुलाबी ,एक श्वेत ,एक गरम ,एक ठंडा  अच्छा
दोनों ही बड़े रसीले है, दोनों का स्वाद  बड़ा अच्छा
एक नरम मुलायम टूट जाए ,एक निचुड़ जाए पर ना टूटे
हर दावत और पार्टी में , दोनों ही वाही वाही  लूटे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

धरम का चक्कर

         धरम का चक्कर 

हमेशा जली कटी सुनाने वाली बहू ने ,
अपनी जुबान में मिश्री घोली
और अपनी सास से बड़े प्रेम से बोली
अपने शहर में आ रहे है ,
एक नामी गिरामी संत
जो करेंगे सात दिन तक,
भागवत कथा और सत्संग 
 सुना है उनके सत्संग में ,
भक्तिरस की गंगा बहती है
इसीलिये लाखों लोगों की,
भीड़  उमड़ती रहती है
अम्माजी,आप भी पुण्य कमालो,
ऐसा मौका बार बार नहीं आएगा
ड्राइवर सुबह आपको छोड़ आएगा ,
और शाम को ले आएगा
बहू के मुख से ,ये मधुर वचन सुन ,
सासूजी  हरषाई
सोचा ,थोड़ी देर से ही सही,
बहू को सदबुद्धि तो आई
इसी बहाने हो जाएगी थोड़ी ईश्वर की भक्ती
और कुछ रोज मिलेगी ,
गृहकलह और किचकिच से मुक्ती
सास ने हामी भर दी ,
तो बहू की बांछें खिल गयी
वो भी बड़ी खुश थी ,
सात दिन की पूरी आजादी मिल गयी
न कोई रोकने वाला,न कोई टोकने वाला,
हफ्ते भर की मौज मस्ती और बहार
इसे कहते है ,एक तीर से करना दो शिकार
सास भी खुश,बहू भी खुश ,
हर घर में ऐसी ही राजनीती चलती है
अब तो आप समझ ही गए होंगे ,
आजकल सत्संगों में और तीर्थों में
,इतनी भीड़ क्यों  उमड़ती है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

अब क्या करे भगवान ?

       अब क्या करे भगवान ?

सूरज तपा रहा था-बड़ी गर्मी थी
अब तो जल बरसा -भगवान से प्रार्थना की
बादल छाये -अच्छा लगा
ठंडी  हवा चली -अच्छा लगा
बारिश आयी -अच्छा लगा
दूसरे दिन भी बारिश आयी -अच्छा लगा
तीसरे दिन भी पानी बरसा-बोअर हो गए
चौथे दिन भी बारिश आयी -उकता  गए 
पांचवें दिन भी बारिश आयी -खीज आने लगी
छटवें दिन की बारिश से -परेशानी छाने लगी
सातवें दिन की बारिश पर -भगवान से प्रार्थना की
अब तो बहुत हो गया-रोक दे ये झड़ी
अजीब है -हम इंसान
वो नहीं देता -तो भी  परेशान
वो देता है-तो भी परेशान
अब क्या करे भगवान ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

करलें थोड़ा आराम प्रिये !

          करलें थोड़ा आराम प्रिये !

अब नहीं रहे दिन यौवन के ,उड़ते थे आसमान में जब
फिर काम काज में फंसे रहे ,फुर्सत मिल ही पाती थी कब
था बचा कोई रोमांच नहीं ,बन गया प्यार था नित्यकर्म
हम रहे निभाते पति पत्नी ,बन कर अपना ग्राहस्थ्य धर्म
दुनियादारी के चक्कर में ,हम रहे व्यस्त,कर भागदौड़
अब आया दौर उमर का ये,हम तुम दोनों हो गए प्रौढ़ 
आया ढलान पर है यौवन ,अब वो वाला उत्थान नहीं
ना कह सकता तुमको बुढ़िया,पर अब तुम रही जवान नहीं
 धीरे धीरे  हो रहा शांत  , वो यौवन  का तूफ़ान प्रिये
अब उमर ढल रही है अपनी ,करलें थोड़ा आराम प्रिये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

इत्ती सी बात

           इत्ती सी बात

पंडित और मौलवी ने ,अपनी बसर चलाने
लोगों को कर दिये बस,सपने यूं ही दिखाने
दो दान तुम यहाँ पर,जन्नत तुम्हे मिलेगी
हूरें और अप्सराएं, खिदमत  वहां  करेगी
जन्नत की हक़ीक़त को ,कोई न जानता है
मरने के बाद क्या है,किसको भला पता है
सब खेल सोच का है,मानो जो तुम अगर ये
दुनिया बहिश्त है ये,देखो जो उस नज़र से
हर रोज ईद समझो,हर दिन दिवाली मानो
बरसेगी रोज खुशियां ,जन्नत यहीं ये जानो
इत्ती सी हक़ीक़त तुम,लेकिन जरूर समझो
घर ही लगेगा जन्नत,बीबी को हूर समझो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

    कंधे से कन्धा मिला कर काम करो

 नेता बार बार यह कहते है ,
कि यदि देश के नर और नारी
अगर कंधे से कन्धा मिलाकर काम करे,
तो निश्चित ही होगी प्रगति हमारी
मैंने  उनसे प्रेरित होकर ,
राह  में जाती एक युवती से कन्धा मिलाया
तो प्रगति तो नहीं,मेरी दुर्गती हो गयी,
जब उसने मुझ पर अपना सेंडिल उठाया
मैं भागा और अबकी बार ,
एक लड़के के जाकर मिलाया कन्धा
वो बोला ,अबे क्या तू है अँधा
मैं बोला चलो ,
कंधे से कन्धा मिला कर काम करते है
वो बोला किसी और को ढूंढो ,
हम छोटी लाइन पर नहीं चलते है
फिर मैंने सोचा ,छोडो ये चक्कर
काम करने के लिए पहुँच गया दफ्तर
वहां ,अपने एक सहकर्मी के साथ,
बैठ  गया , कन्धा मिला कर
और बोला की अब हम ऐसे ही ,
कंधे से कन्धा मिला कर ,काम करेंगे
वो बोला  सीधे सीधे क्यों ना कहते ,
न खुद काम करेंगे  ,न तुमको करने देंगे
बॉस  ने  देखा तो बोला ये चिढ
क्यों लगा रखी है ,यहाँ पर ये भीड़
गुस्से में आकर ,बोला झल्ला कर
काम करो अपनी अपनी सीटों पर जाकर
कहीं पर भी जब हम ,कर कुछ न पाये
तो सोचा कि घर पर ही ये नुस्खा आजमाये
हमने पत्नीजी से बोला कि अगर ,
प्रगति की ओर हमें होना है अग्रसर
तो  काम करना होगा,कंधे से कन्धा मिलाकर
 इसलिए मुझे अपने कंधे से कन्धा मिलाने दो
पत्नी बोली ,बड़े रोमांटिक मूड में लग रहे हो,
थोड़ी देर रुको,बच्चों को सो जाने दो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


नारी जीवन

            नारी जीवन

                                       कितना मुश्किल नारी जीवन
उसे बना कर रखना पड़ता,जीवन भर ,हर तरफ संतुलन
                                       कितना मुश्किल नारी जीवन
जिनने जन्म दिया और पाला ,जिनके साथ बिताया  बचपन
उन्हें त्यागना पड़ता एक दिन,जब परिणय का बंधता बंधन 
माता,पिता,भाई बहनो की , यादें  आकर  बहुत  सताए
एक पराया , बनता  अपना , अपने बनते ,सभी  पराये
नयी जगह में,नए लोग संग,करना पड़ता ,जीवन व्यापन
                                       कितना मुश्किल नारी जीवन
कुछ ससुराल और कुछ पीहर ,आधी आधी वो बंट  जाती
नयी तरह से जीवन जीने में कितनी ही दिक्कत   आती
कभी पतिजी  बात  न माने , कभी  सास देती है ताने
कुछ न  सिखाया तेरी माँ ने ,तरह तरह के मिले उलाहने
कभी प्रफुल्लित होता है मन, और कभी करता है क्रंदन 
                                     कितना मुश्किल नारी जीवन
इसी तरह की  उहापोह में ,थोड़े  दिन पड़ता  है  तपना
फिर जब बच्चे हो जाते तो,सब कुछ  लगने लगता अपना
बन कर फिर ममता की मूरत,करती है बच्चों का पालन
कभी उर्वशी ,रम्भा बन कर,रखना पड़ता पति का भी मन
 किस की सुने,ना सुने किसकी ,बढ़ती ही जाती है उलझन    
                                        कितना मुश्किल नारी जीवन
बेटा ब्याह, बहू जब आती  ,पड़े सास का फर्ज निभाना
तो फिर, बेटी और बहू में ,मुश्किल बड़ा ,संतुलन लाना
बेटा अगर ख्याल रखता तो, जाली कटी है बहू सुनाती
पोता ,पोती में मन उलझा ,चुप रहती है और गम खाती
यूं ही बुढ़ापा काट जाता है  ,पढ़ते गीता और  रामायण
                                 कितना मुश्किल नारी जीवन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 15 जुलाई 2015

         मैं रहा छीलता घांस प्रिये 

मैं तो यूं ही सारा जीवन,बस रहा छीलता घांस प्रिये 
शायद तुमने खाई होगी ,तुम ही थी मेरे पास  प्रिये
                                       मैं हूँ तुम्हारा  दास   प्रिये 
वो घांस भैंस यदि खा लेती ,तो देती दूध ढेर सारा ,
तुम हुई भैस जैसी मोटी ,चढ़ गया बदन पर मांस प्रिये 
                                      मुझ पर करलो विश्वास प्रिये 
तुम्हारी काया कृष्ण वर्ण ,इस तरह फूल कर फैलेगी ,
मैं तुम्हे डाइटिंग करवाता ,यदि होता ये आभास प्रिये 
                                       तुम तो मेरी ख़ास प्रिये 
तुम स्विमिंग पूल मे मत जाना,मारेंगे लोग मुझे ताना ,
लो गयी भैंस पानी में कह,मेरा होगा  उपहास  प्रिये 
                                     आये  ना मुझको रास प्रिये 
 आधे से ज्यादा डबलबेड ,पर तुम कब्जा कर सोती हो,
उस पर तुम्हारे खर्राटे ,   देतें है मुझको   त्रास  प्रिये 
                                       मैं  आ ना पाता पास प्रिये 
 मैं क्षीणकाय ,दुबला पतला ,तुम राहु केतु सी छा जाती,
मैं होता लुप्त  ग्रहण मुझ पर ,लग जाता है खग्रास प्रिये 
                                          मैं ले ना पाता सांस  प्रिये 
तुम्हारा खाने पर ना बस ,तुम्हारे आगे मैं  बेबस ,
तुमने अपने संग मेरा भी ,कर डाला सत्यानाश प्रिये 
                                        फिर भी  जीने की आस प्रिये 
 
  मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कान्हा की मुश्किल

          कान्हा की मुश्किल

नहीं वृन्दावन तुम,हो  आते कन्हैया
न लीलायें अपनी  ,दिखाते कन्हैया
सुनी बात ये तो ,कहा ये किशन ने
बहुत कुछ गया अब ,बदल वृन्दावन में
कभी हम चराते थे गायें जहाँ पर
नयी बस्तियां ,बस गयी है वहां पर
नहीं गोपियाँ जा के ,जमुना नहाये 
भला उनके कैसे वसन हम चुराएं
सभी के घरों में ,बने स्नानघर  है
नहा कर वहीं से ,निकलती ,संवर है
सुना करती दिन भर है वो फ़िल्मी गाने
उन्हें क्या लुभाएगी ,मुरली की ताने
घरों में अब मख्खन ,बिलौते नहीं है
चुराऊं क्या, ना दूध है  ना  दही  है 
मैं  जमुना नहाऊँ ,बहुत आता जी में
मगर है प्रदूषण ,बड़ा जमुना जी में
कई कालियानाग,वमन विष का करते
 हुई जमुना मैली,इन्ही की वजह से 
पुलिस से शिकायत ,करेगा जो कोई
दफा,हर दफा वो लगा देंगे  ,कोई
चुराऊं जो माखन,अगर घर में घुस कर
दफा वो लगा देंगे ,तीन सौ अठहत्तर
फोडूं जो मटकी ,अगर मार  कंकर
दफा पांच सौ नो में ,कर देंगे अंदर
अगर गोपियों के ,चुराउंगा  कपडे
तीन सो चोपन में ,वो मुझको पकडे
मै बोला डरो मत,कन्हैया तुम इतने
पुलिस और दारोगा,सभी भाई अपने
तुम्हारे लिए माफ़ ,हर एक खता है
यदुवंशियों का ही  शासन  यहाँ  है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू' 

स्वच्छता अभियान

        स्वच्छता अभियान

स्वच्छता अभियान अच्छी बात है
गली,गाँव ,सबको  रखना  साफ़ है
पर सफाई ये सिरफ़ ,काफी नहीं
कहीं पर भी गंदगी  ,भाती  नहीं
राजनीति स्वच्छ होनी चाहिए
नीतियां ,स्पष्ट   होनी    चाहिए
पारदर्शक ,दफ्तरों में काम हो
काम करवाना जहाँ आसान हो
स्वच्छता हो ,आचरण ,व्यवहार में
काम सारे निपट जाएँ,प्यार  में
नहीं मन में मैल होना चाहिए
और सभी में मेल होना चाहिए
नहा धोकर ,साफ़ तुम करलो बदन
कितने ही उजले ,धुले पहनो वसन
पर न मन में पाप होना चाहिए
दिल तुम्हारा साफ़ होना चाहिए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 13 जुलाई 2015

बंधन का सुख

           बंधन का सुख

आवश्यक जीवन में बंधन ,बंधन  रहता  अनुशासन
उच्श्रृंखलता बांध जाती है ,जब बंधता शादी का बंधन
बिखरे रहते है अस्त व्यस्त ,पर खुले बाल जब बंधते है
नागिन सी चोटी बन कर ये,कितने ही  दिल को डसते है
जब तक कंचुकी की डोर बंधी, तब तक उन्नत,यौवन उभार
जो  खुली डोर ,स्वच्छंद हुए ,तो नज़र आएंगे ये  निढाल
यदि नहीं रहे जो बंधन में ,ये कलश ढलक फिर जाते है
बंधन है  तब ही तने हुए ,ये  सबके  मन  को  भाते है
कितना ज्यादा सुख देता है ,जब बंधता बाँहों का बंधन
तुम्हारी लाज  बचा कर के , रखता तुम्हारा कटिबंधन
आवारा बादल के जैसे ,  हर कहीं बरसना ठीक नहीं
बंधन में ही सच्चा सुख है ,स्वच्छंद विचरना ठीक नहीं

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


प्रभु की रचना -नारी

         प्रभु की रचना -नारी

प्रभु तेरी रचना यह नारी,कितनी अद्भुत,कितनी सुन्दर
सर पर बादल के दल के दल ,मुस्कान गुलाबी गालों पर
चन्दा से चेहरे पर शोभित, दो नयन,मीन से,मतवाले
मोती सी प्यारी दन्त लड़ी,दो अधर ,भरे रस के प्याले
पीछे है भार नितम्बों का,आगे यौवन का भरा भार
इसलिए संतुलित रहता तन,ना कमर लचकती बार बार
वरना इतनी कमनीय कमर ,ना जाने कितने बल खाती
मतवाली चाल देख कर के,कितनी ही नज़र फिसल जाती
नारी तन पर दे युगल कलश ,पहले उन्माद  भरा उनमे
फिर जब मातृत्व जगाया तो,ममता का स्वाद भरा उनमे
नाजुक गोरा तन टिका हुआ ,कदली के दो स्तम्भों पर
कितना महान वह रचयिता ,जिसकी रचना इतनी सुन्दर

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ग्रास रुट वर्कर

          ग्रास रुट वर्कर

ये हरे भरे मखमली लॉन ,जो नज़र  आ  रहे है सुन्दर
इनकी ये रौनक,चमक दमक,सब टिकी हमारे ही बल पर 
वो सत्ता पर आसीन हुए ,हम ही लाये है चुनवा  कर
भूले भटके ही मुश्किल से , वो लेने आते कभी खबर
वो राज कर रहे महलों में,हम भटक  रहें है सड़कों पर
फिर भी सेवा को हम तत्पर,हम ग्रास रुट के है वर्कर
 कर बड़ी रैलियां नेताजी  ,जब हाथ जोड़ मुस्काते है
झूंठे  वादे कर ,जनता को ,मीठे सपने दिखलाते है
इतनी जनता जो आती है ,हम ही  वो भीड़ जुटाते है  
करवाते जयजयकार और हम ही ताली बजवाते है
भूले भटके कोई नेता ,तारीफ़ हमारी देता कर
हम उसमे ही खुश हो जाते ,हम ग्रासरूट के है वर्कर
ये कौम मगर नेताओं की ,सत्ता पा हमें भुलाती है
होने लगता मौसम उजाड़ तब याद हमारी आती है
जाने लगती है जब बहार  ,तब याद हमारी आती है
आने वाला होता चुनाव , तब याद हमारी आती है
हम ही दिलवाते उन्हें वोट ,फिर गावों में घर घर जाकर
वो जीत भुला देते हमको, हम ग्रास रुट के है वर्कर
वो पांच साल मे एक बार ,अपना चेहरा है दिखलाते
वो करे प्रदर्शन हम जाते,पोलिस के डंडे हम खाते
मुश्किल से ही छोटे मोटे ,उनसे कुछ काम करा पाते 
गांववाले कहते हमको ,नेताजी,हम खुश हो जाते
वो करे खेल ,हम भरें जेल ,और भटका करते है दर दर
फिर भी हम नहीं बदलते दल,हम ग्रास रुट के है वर्कर

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 11 जुलाई 2015

अलग अलग राधायें

            अलग अलग राधायें

कोई अपना आपा खोती ,तो कोई तृप्त रहती ,धापी
हर एक राधा के जीवन में ,चलती रहती  आपाधापी 
कोई राधा यमुना तट पर,कान्हा संग रास रचाती है
रहती है व्यस्त कोई घर का ,सब कामकाज निपटाती है
है नहीं जरूरी हर राधा को नाच नाचना  आना है 
तुम उसे नाचने  की बोलो ,तो देती बना बहाना है
कोई राधा ना नाचेगी , बतलाती  टेढ़ा  है  आँगन
कोई राधा तब नाचेगी ,जब तेल मिले उसको नौ मन 
यदि नहीं नाचने का उसके ,मन में जो अटल इरादा है
तो कई बहाने बना बना ,बस नहीं नाचती राधा  है
यमुना तट ,कृष्ण बुलाते है ,मुरली की ताने बजा बजा
 खूंटी ताने सोती रहती  ,राधा निद्रा का लिए  मज़ा
राधा की अलग अलग धारा ,राधा राधा में है अंतर
कोई को विरह वेदना है, कोई बैठी देखे पिक्चर
कोई प्यासी है तो कोई बरिस्ता में जा पीती  है कॉफी
हर एक राधा के जीवन में ,चलती रहती आपाधापी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आओ थोड़ी सी करवट लें

          आओ थोड़ी सी करवट लें

चित्त पड़े चित नहीं लग रहा ,थोड़ा अपना ध्यान पलट लें
                                             आओ थोड़ी सी करवट लें          
रहे देखते आसमान को,लगा टकटकी,आस लगाए
ऊपरवाला कुछ  सुध ले ले,अपनी कृपासुधि बरसाए
लेकिन उसने ध्यान दिया ना,रहे कब तलक ऐसे लेटे
दांयें बाएं करवट लेकर ,अपने अगल   बगल  भी  देखें
कई बार अपना मनचीता ,मिल जाता है आसपास  ही ,
उसको  खोजें और टटोलें ,उसके आने   की आहट   लें
                                      आओ  थोड़ी सी करवट  लें
कई बार ऐसा  होता  है,घर में छोरा ,गाँव   ढिंढोरा
इसीलिये ये आवश्यक है,आस पास भी देखें थोड़ा
आस लगा कर देख रहें है,मन में जिसके सपने प्यारे
बैठी हो वो ऋद्धि सिद्धि ,अगल बगल ही ,पास तुम्हारे
सीधे पड़े लगी है दुखने ,अब तो कमर ,नींद ना आती,
शायद पलट जाय किस्मत ही ,कुछ परिवर्तन,हम झटपट लें
                                             आओ थोड़ी सी करवट लें
सिमटे,सिकुड़ रहें क्यों लेटे ,थोड़ा हाथ पैर फैलाएं
मिल सकते है हमको कितने,मोती बिखरे दांयें बांयें
सीमित बंधे हुए बंधन में ,रहना  बाधक है प्रगति में
कुछ  करके दिखलाना हो तो,रखें हौसला अपने जी में
रहें न कूपमण्डूकों जैसे , बाहर निकले हम कुवें से ,
है विशाल संसार,निकल कर,इसकी भी तो ज़रा झलक लें
                                          आओ थोड़ी सी करवट लें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 8 जुलाई 2015

बिगड़े रिश्ते

          बिगड़े रिश्ते

कई बार ,
सहेजे हुए गेहूं में भी घुन लग  जाते है
पिसे हुए आटे  में, कीड़े  पड़  जाते  है
संभाली हुई दालों में ,फफूंद लग  जाती है 
पर उन्हें हम फेंकते नहीं,
साफ कर,छान कर ,कड़क धूप  देते है
और फिर से सहेज लेते है
इसी तरह ,
जब आपसी रिश्तों में ,
शक के कीड़े और स्वार्थ का घुन लगता है
तो उन्हें ,प्यार की धूप देकर
और सौहार्द की चलनी से छान ,
फिर से सहेजा जा सकता  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

खाने के शौकीन

      खाने के शौकीन

हमारे शौक खाने के ,हमसे क्या क्या कराते है
हम मूली,गोभी,आलू के,बना खाते  परांठे   है
बड़ा चिकना सा वो बैंगन ,ताज पहने था मतवाला
इस तरह आग में भूना ,उसका भुड़ता बना डाला
गुलाबी छरहरी गाजर का था जो सेक्सी  जलवा
उसको किस किस किया ,भूना,बनाया टेस्टी हलवा
काट मोटे से कद्दू को ,बनाये  आगरा  पेठे
दूध को फाड़,छेना कर,हम रसगुल्ले बना बैठे
बना हम क्या का क्या देते ,बड़े खाने के हैं  रसिया
चने से दाल,फिर बेसन ,कभी लड्डू,कभी भुजिया
फुलकिया आटे की फूली ,में भर कर चरपरा पानी
आठ दस यूं ही गटकाते ,हमारा कोई ना सानी
कभी चटनी दही के संग , मसाला आलू भर खाते  
पानीपूरी ,गोलगप्पा,कहीं पुचका  कह पुचकाते
हम पालक ,मिर्ची ,बेंगन के, पकोड़े तल के खाते है
हमारे शौक खाने के ,हम से क्या क्या कराते है

घोटू

जड़-चेतन

             जड़-चेतन

अंकुरित बीज जब होता ,तो नीचे जड़ निकलती है
पेड़  पौधों में जीवन का ,जड़ें  संचार  करती  है
जड़ों में जान है जब तक ,वृक्ष सब चेतन रहते है
जो चेतन रखती है सबको,उसे फिर जड़ क्यों कहते है

घोटू

रूमानी मौसम

              रूमानी मौसम

कलेजा आसमां का चीर ,बरसती रिमझिम
ये बूँदें बारिशों की ,प्यार की ,जैसे सरगम
भीग कर कपडे भी ,तन से चिपकने लगते है ,
 रूमानी इस कदर बारिश का ये होता मौसम

घोटू 

ग़लतफ़हमी

                ग़लतफ़हमी

एक दिन मुर्गों के मन में , अचानक बात ये आई ,
            सवेरा तब ही  होता है कि जब हम बांग देते है
और इंसान है हमको ,भून तंदूर में खाता,
             करें हड़ताल एक दिन हम सुबह को टांग देते है
नहीं दी बांग एक दिन ,सूर्य पर निश्चित समय निकला
                   पड़ा ना फर्क रत्ती भर   ,रोज जैसा सवेरा  था
देख दिनचर्या हर दिन सी,ठिकाने आ गई बुद्धि  ,
              समझ औकात निज आयी ,ग़लतफ़हमी ने घेरा था        

घोटू

मधुमक्खी सी औरतें

          मधुमक्खी सी औरतें

औरतें होती है ,मधुमक्खी सी कर्मठ
परिवार हित करती दिन भर ही है खटपट
उड़ उड़ कर ,पुष्पों से ,करती है मधु संचित
छत्ते को भर देती ,रह जाती ,खुद  वंचित
डालता छत्ते पर ,कोई जो बुरी  नज़र
काट काट उसका वो बुरा हाल देती कर
एक दूजे संग गहरा ,बड़ा प्यार है इनका
बसा मधु छत्ते में ,परिवार  है  इनका

घोटू 

जमे हुए रिश्ते

           जमे हुए रिश्ते

आजकल हालत हमारी ,इस तरह की हो रही है
रिश्ते ऐसे जम गए है ,जैसे जम जाता  दही है
नींद हमको नहीं आती ,उनको भी आती नहीं है
जानते हम ,हो रहा जो ,सब गलत कुछ ना सही है
हमारे रिश्तों में  पर    ऐसी दरारें पड़  गयी है
अहम का टकराव है ये ,दोष कोई का नहीं है
सो रहे हम मुंह फेरे,वो भी उलटी  सो रही  है
मिलन की मन में अगन पर ,जल रही वो वही है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जीत का अंदाज

                 जीत का अंदाज          

हरेक चूहे में इतनी काबलियत कहाँ होती है ,
                 मिले एक कपडे की चिंदी ,और बजाज बन जाए
कभी भी जिसके पुरखों ने ,न मारी मेंढकी भी हो,
                 हिम्मती बेटा  यूं निकले  ,कि तीरंदाज  बन जाए
भरा मन में जो ज़ज्बा हो,अगर कुछ कर दिखाने का,
                    तो कायनात की सब ताकतें भी साथ देती है,
तुम्हारे हौंसले को फक्र  से सलाम सब बोलें,  
                    तुम्हारी जीत का कुछ इस तरह ,अंदाज बन जाए  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

यादें -बरसात की

              यादें -बरसात की

हमको तो बारिश में भीगे ,एक अरसा हो गया ,
               मगर वो रिमझिम बरसता प्यारा सावन याद है
याद है वो नन्ही नन्ही ,बूंदों की मीठी चुभन ,
                      श्वेत  भीगे वसन से वो झांकता तन ,याद है
पानी में तरबतर तेरा थरथरा कर कांपना,
                     संगेमरमर से बदन की ,प्यारी सिहरन याद है
तेरी जुल्फों से टपकती ,मोतियों की वो लड़ी,
                      और भीगे से अधर का , मधुर चुम्बन  याद है
मांग से चेहरे बहती लाली वो सिन्दूर की,
                      आग तन मन में लगाता ,तेरा यौवन याद है
तेरे संग बारिश में मेरा ,छपछपा कर नाचना ,
                       आज भी मुझको वो अपना दीवानापन याद है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   

सोमवार, 6 जुलाई 2015

शिकायत -प्रियतमा से

         शिकायत -प्रियतमा से

 मैं करता थोड़ी छेड़छाड़ ,तुम देती हो फटकार प्रिये
क्या   है ये अदा सताने की , या फिर तुम्हारा प्यार प्रिये
तुम नहीं पवन से कुछ कहती ,जो आँचल रोज उड़ाती है
टकराती तुमसे बार बार  और जुल्फों  को  सहलाती है
 है नहीं शिकायत तुमको जब,मदमाती बूँदें  बारिश की
तुम्हारा बदन भिगो देती ,दीवाने ,पागल आशिक़ सी
वो बाथरूम का    आइना ,अंग अंग निहारा करता है
जब सजती और संवरती हो ,वो तुमको ताड़ा करता है
वो तुम्हे देख कर हँसता है ,खींसे निपोर ,आवारा सा
पर उसे देख तुम मुस्काती ,वो लगता तुमको प्यारा सा
ये सब के सब ही खुले आम,करते है तुमसे छेड़छाड़
पर तुमको अच्छी लगती है,उनकी ये हरकत बार बार
क्या मुझमे कांटे उगे हुए ,जो बदन तुम्हारा छीलेंगे
या मधुमक्खी बन लब मेरे, तेरा सब अमृत पी लेंगे
जो पास न आती हो मेरे ,इतने नखरे दिखलाती हो
मेरी बाहों से छिटक छिटक ,तुम दूर दूर हट जाती हो
तुम पास आओ,मैं बारिश  बन,तेरा अंग अंग भिगा दूंगा
मैं ह्रदय आईने में अपने ,तुम्हारा अक्स दिखा दूंगा
मेरी साँसों की गरम हवा ,देगी तुम्हारे उड़ा होश
दूने रस से  भर जाएंगे  ,तुम्हारे मादक मधुकोश
तुम मुझे समर्पित हो जाओ,जी भर मुझसे अभिसार करो 
सुख  का संसार बसा  दूंगा, तुम मुझे प्यार,बस प्यार करो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

रूढ़ियाँ

                        रूढ़ियाँ
प्रगति हमने बहुत कर ली ,हो रहे है आधुनिक,
              चन्द्रमा ,मंगल ग्रहों पर रखा हमने हाथ है
रूढ़िवादी सोच लेकिन और पुरानी भ्रांतियां ,
               आज भी चिपकी हुई,  रहती  हमारे साथ है
'रेड लाईट 'पर भले ही ,हम रुकें या ना रुकें,
                बिल्ली रास्ता काट देती,झट से रुक जाते है हम
कोई भी शुभ कार्य हो या जा रहे हो हम कहीं,
                 छींक जो देता है कोई ,तो सहम जाते   कदम
आधुनिक से आधुनिकतम ,सुरक्षित,सुविधाजनक ,
                  खरीदा करते कई लाखों की मंहगी  कार हैं
किन्तु पूजा करके नीबू चार लेकर सड़क पर,    
                   चार पहियों से दबाना  ,आज भी बक़रार है
शुभ मुहूर्त देखते रहते है और हर काम में,
                     दिशाशूलम,राहुकालम,आज भी है रोकता  
 आज भी हम ठिठक जाते और लगता है बुरा ,
                     निकलते जब कहीं जाने और कोई टोकता
काम यदि जो बन न पाये कुछ भी हो कारण भले ,
                    और यदि जो कुछ बुरा उस दिन हमारे संग हुआ
अपनी कमजोरी या कमियां ,कुछ नहीं आती नज़र ,
                      सुबह मुंह देखा था जिसका ,उसे  देते   बददुआ
ठेकेदारी धर्म की पण्डे और पंडित कर रहे , 
                        भागवत की कथाएं अब बन गयी व्यापार है
 कुटिल साधू  संत  के संग,चल रहा सत्संग है,
                        पुरानी सब संस्कृति  का ,हुआ  बंटाधार  है
ज्योतिषी  को जन्मपत्री ,हस्त रेखाएं दिखा ,
                        हम ग्रहों का शांति पूजन ,कराते  हर रोज है
महिमामंडित खुद को कितना भी करें हम शान से ,
                       सत्य यह ,अब भी हमारी ,बड़ी कुंठित सोच है
 सवेरे दूकान ,ठेले  और हर   शोरूम  पर ,
                      नीबू और मिर्ची पिरोये  ,लटकते  मिल जाएगे
हम कहाँ थे ,और कहाँ है और कहाँ तक जाएंगे ,
                      पर  पुरानी  मान्यताएं  ,क्या बदल हम पाएंगे             

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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