एक सन्देश-

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सोमवार, 30 जून 2014

सूत्र-सुखी जीवन के

           सूत्र-सुखी जीवन के 

भलाई तुम करो सबसे,इसी में ही भलाई है ,
         न जाने कौन,कब,किस रूप में भगवान मिल जाए
सभी से प्रेम से मिल कर,सभी में प्यार तुम बांटो,
          तुम्हारी सहृदयता ,तुम्हारी पहचान बन जाये 
नहीं होती कभी भी,किसी से भी दोस्ती यूं ही,
          कुछ न कुछ इसके पीछे होती है भगवान की इच्छा
भला हो भाग्य और मिल जाए तुमको कितना कुछ भी पर
                  नहीं होती कभी भी ख़त्म है ,इंसान की इच्छा
परायों में भी अपनापन,है अपनों से अधिक होता,
                  प्रेम के बोल दो,देते बना ,अपना, परायों को 
पराये और अपने में फरक क्यों मानते हो तुम ,
               तिरस्कृत करते देखा है,कई अपने ही जायों को  
अँधेरे हो हटाने को,दिये  की होती जरुरत है,
               फायदा क्या जला करके,रखो जो दिन में तुम दिया
अगर देना है जो कुछ तो,जरूरतमंद को दो तुम,
               हमेशा काम आता है ,किसी सत्पात्र को  दिया
भरी बरसात में क्या फायदा मिलता सिंचाई से ,
      सिचांई तब ही अच्छी है ,फसल को जब हो आवश्यक,
नदी का नीर तब तक ही,लिए मिठास होता है ,
       नहीं होता मिलन उसका ,समुन्दर संग है जब तक
किनारे पर खड़े हो लहर गिनने से न कुछ मिलता ,
            लगाते गहरी डुबकी जब,तभी तो मिलते मोती  है
 कभी मिठाई भी इंसान को बीमार कर देती,
            और कड़वी दवा बीमार का  उपचार होती है             
बोलते  कोई कड़वे बोल ,हम सुनते रहें सब कुछ ,
           तो अपने आप ही कुछ देर में ,वो शांत होवेंगे
बढ़ेगी बात,हाथापाई पर ,हो जाएगा झगड़ा ,
           अगर प्रतिकार में जो आप अपना धीर खोवेंगे
 अगर पत्थर तुम्हारे रास्ते में आता है कोई,
             तरीके दो है,पहला उठाओ और फेंक दो उसको
दूसरा ये है कि  उसको  वहीँ पर पड़ा रहने दो,
             तुम्हे क्या फर्क पड़ता है,लगे फिर चोट,कब,किसको
मगर ये बात मत भूलो कि टकरा कर के पत्थर से ,
             तुम्हारा कोई अपना भी ,चोट खा सकता है फिर से
तो बेहतर है ,हटादो रास्ते से सारे रोड़ो को,
            भावनाएं भलाई की,कभी ना जाने दो दिल से
सोच ये कि लिखा तक़दीर में जो,मिल ही जाएगा,
             तुम्हारी मानसिकता ये ,बदलनी अब तुम्हे होगी
हाथ पर हाथ रख कर बैठने से कुछ नहीं मिलता ,
            अगर कुछ पाना है ,कोशिश भी ,करनी तुम्हे होगी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
       

पराये का मज़ा

              पराये का मज़ा

पराई चीज का लेना मज़ा हमको सुहाता है,
              पराया चाँद ,पर हम चांदनी का सुख उठाते है
पराया सूर्य है पर धूप का आनंद लेते हम,
              पराये बादलों की रिमझिमो में भीग जाते है
पराये घर की लड़की  को ,बनाते अपनी घरवाली ,
              उसी के साथ फिर हम जिंदगी सारी  बिताते है
पराई थालियों में सबकी,घी ज्यादा नज़र आता ,
              पराई नार को हम प्यार कर, सुन्दर बताते है
परायों की छतों पर झांकने में मज़ा मिलता है,
              पराये माल को हम देख कर ,लालच में आते है
भले ही हो फटा कितना,हमारा ही गिरेबां पर,
              परायों के फटे में झाँकने पर सुख उठाते   है 
हमारे जिगर के टुकड़े ,बाँध बंधन परायों से ,
              ये ही देखा है अक्सर वो ,पराये हो ही जाते है 
पराये लोग कितनी बार अपनों से भी बढ़ कर के,
               आपका साथ देते जबकि अपने भूल जाते  है  
प्यार के बोल दो बस बोलते 'घोटू'हमेशा ही ,
                प्यार पाते परायों से,उन्हें अपना बनाते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बादलों चक्कर में किसके हो कहां खोये हुए हो....


रविवार, 29 जून 2014

दिन के ख्वाबों की जमापूँजी....


सियाही और रोशनाई

        सियाही और रोशनाई

है सूरत तो वही रहती,बदल जाती है पर सीरत ,
            उसे कब किस तरह से कोई इस्तेमाल करता है
किसी के हाथ लगती जब,सियाही ,वो समझ कालिख,
             किसी के चेहरे पर पोत कर ,बदहाल करता  है
वही सियाही जब लग जाती है कूंची से चितेरे की ,
             हुनर से उसके हाथों से ,कोई तस्वीर  बन जाती
कभी हालत बयां करती,तड़फ़ते दिल की आशिक़ के,
            कभी पैगामे-उल्फत बन,दिलों से दिल को मिलवाती
कभी छूती कलम  को जब,किसी मशहूर शायर की,
             ग़ज़ल प्यारी सी बन सबसे ,दिलाती वाही वाही है
कभी कुरान ,रामायण ,कभी बन बाइबल ,गीता,
              राह करती है वो रोशन , कहाती   रोशनाई    है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

शुक्रवार, 27 जून 2014

सुख-दुःख

         सुख-दुःख

जवानी में होता है,सजने सँवरने का सुख
शादी करके ,अपने प्रियतम से मिलने का सुख
थोड़े दिनों बाद फिर,माँ बाप बनने का सुख
और फिर धीरे धीरे ,बच्चों के बढ़ने का सुख
बड़ी ख़ुशी चाव से ,फिर बहू लाने का सुख
और कुछ दिनों,दादा दादी,कहलाने का सुख    
इतने सुख पाते पाते,बुढ़ापा है आ जाता
जो बड़ा सताता है और कहर है ढाता
थोड़े दिनों बाद जब ,अपने देतें है भुला
शुरू हो जाता है,दुखों का फिर सिलसिला
कभी बिमारी का दुःख,कभी तिरस्कार का दुःख
बहुत अधिक चुभता है,अपनों की मार का दुःख
जीवन में सुख दुःख की,मिलावट है होती
कभी चांदनी होती,कभी अमावस है  होती

घोटू

क्या हाल है?

         क्या हाल है?

दांत, डेंटिस्ट के भरोसे
सांस,दवाइयों के भरोसे
नज़र,चश्मे के भरोसे
वक़्त,टी. वी. के भरोसे
किससे क्या करें आस,
किसी को क्यों कोसे?
अब तो हम दोनों है,
एक दूसरे के भरोसे 
बाकी ये जीवन है ,
सिर्फ भगवान के भरोसे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बाकी सब ठीक है

           बाकी सब ठीक है

पंजों में सूजन है,और  दुखती  है  पिंडली
'आर्थराइटिस 'से, घुटनो की हालत है पतली
'प्रोस्टेट' बढ़ा हुआ,पाचन तंत्र  बिगड़ा है
'गॉलब्लेडर' में पथरी ,'किडनी' में लफड़ा है
श्वसन में दिक्कत है ,'लंग्स में  इन्फेक्शन '
और नहीं करता है,'हार्ट' ठीक से 'फंक्शन '
बदन में 'ओबेसिटी',बढ़ा हुआ  'ब्लडप्रेशर'
कम है 'विटामिन- डी 'और अधिक है 'शुगर '
बढ़ा 'थायराइड'है,'लिवर'भी 'वीक'  है
आँखों से कम दिखता , बाकी सब ठीक है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुवार, 26 जून 2014

खुशनुमा मौसम

               खुशनुमा मौसम

बहुत दिनों के बाद आज फिर ,ठंडी ठंडी हवा चली ,
बहुत दिनों के बाद आज फिर ,मौसम हुआ खुशनुमा है
कभी कड़कती है बिजली और कभी गरजते है बादल,
आसमान में उनकी हरकत ,बढ़ने लगी सौगुना है 
फिर से कुछ मृदुता आयी है ,आग उगलते सूरज में,
फिर से  उमड़ उमड़ कर छाये ,बादल के दल है नभ में 
फिर से इठला रही हवाएँ,पाकर बूंदों का चुम्बन ,
लहराती है शीतल होकर ,प्यार जगाती है सब में
तपिश कभी थी जो तड़फ़ाती चुभती तन पर लू बन कर ,
पा बारिश स्पर्श हो गयी ,फिर से शीतल मतवाली
फिर से नवजीवन आया है ,सूखे पौधों,पादप में,
फिर से फ़ैल गयी है भू पर ,सुन्दर ,मनहर हरियाली
फिर से बादल,प्यार नीर भर ,है बैचेन बरसने को,
फिर से मधुर मिलन की आशा ,जागी धरती के मन में
यादें  मधुर मिलन की,कड़क रही है बिजली बन,
फिर से होगा ,पिया मिलन और फूल खिलेंगे आँगन में
 फिर से सौंधी सौंधी खुशबू से माटी महकाई  है ,
रिमझिम रिमझिम की स्वरलहरी ,बादल रहे गुनगुना है
बहुत दिनों के बाद आज फिर ठंडी ठंडी हवा चली,
बहुत दिनों के बाद आज फिर ,मौसम हुआ खुशनुमा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


उमर के साथ साथ

     उमर के साथ साथ

कभी जब उनके कन्धों की,दुपट्टा शान होता था ,
      वो चलते थे तो लहराता ,हमें वो लगती  थी तितली
खुले बादल से जब गेसू,हवा में,उनके,उड़ते थे ,
       अदा से जब वो मुस्काते  ,चमकते दांत बन बिजली
जवानी में ये आलम था ,ठुमक कर जब वो चलते थे,
        थिरकता जिस्म मतवाला  , बना  देता  था  दीवाना
उमर ने करदी ये हालत, रही ना जुल्फ काली अब ,
         पाँव में आर्थराइटिस है,बड़ा मुश्किल है  चल  पाना
मगर एक बात है अब भी,कशिश जो पहले उन में थी,
          अभी तक वो ही कायम है,लुभाती हमको उतना ही
हमारी उनकी चाहत में,न आया कोई  भी अंतर ,
            गयी बढ़ती उमर जैसे ,बढ़ा है प्यार उतना ही

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चोरी चोरी -चुपके चुपके

        चोरी चोरी -चुपके चुपके

कुछ चीजें ,आम होकर भी,
हो जाती है  बड़ी ख़ास
जब वो नहीं मिल पाती तुम्हे ,
या तुम्हे नहीं जाने दिया जाता उनके पास
जैसे आम ,
इतने सारे तमाम ,
हर तरफ नज़र आते  है खुले आम
पर क्योंकि हमारे खून में है शकर
इसलिए डाक्टर के कहने पर,
हम आम खा नहीं सकते  है
सिर्फ तरसते हुये दूर से  तकते है
 बस खुशबूवें लेते हुए ,
अपनी मजबूरी पर करते है अफ़सोस
और रह जाते है मन को मसोस
जिसे कभी काट काट कर,
कभी गिलबिला कर,
रसपान किया  करते थे जी भर
आजकल बस दूर से निहार लेते है
और ,चोरी चोरी ,चुपके चुपके,
बीबी से नज़रें बचा,
कभी कभी डंडी मार लेते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

सोमवार, 23 जून 2014

तोहमत

        तोहमत

मेरी तारीफ़ करते ,लक्ष्मी घर की बताते हो
कमा कर दूसरी फिर लक्ष्मी तुम घर पे लाते हो
मेरी सौतन को जब मैं खर्च कर ,घर से भगाती हूँ,
मुझे खर्चीली कह कर के ,सदा तोहमत  लगाते  हो

घोटू

जरा सी रोशनी दे दो

              जरा सी रोशनी दे दो

मोहब्बत की अगर मुझको,जरासी रोशनी दे दो
        मेरे अंधियारे जीवन में ,उजाला  फैल  जाएगा
अगर जो देख लोगी तुम,ज़रा सा मुस्करा कर के,
          जलेंगे सैंकड़ों दीपक , मेरा घर जगमगाएगा
चढ़ाते लोग मंदिर में ,चढ़ावा मूर्तियों पर है ,
        मगर वो दक्षिणा के रूप में ,पंडित को मिलते है
फैलती हर तरफ है भीनी भीनी ,महकती खुशबू,
         भले ही फूल कोई और के गुलशन में खिलते है  
उधर अंगड़ाई तुम लोगी ,गिरेगी बिजलियाँ हम पर,
            बनेगी जान पर मेरी,तुम्हारा  कुछ न जाएगा
मोहब्बत की  मुझको,जरा सी रोशनी दे दो,
            मेरे  अंधियारे जीवन में ,उजाला फैल  जाएगा
गुलाबी गाल  की  रंगत ,रसीले होंठ है प्यारे,
            नशीला रूप तुम्हारा , मुझे करता दीवाना है
दिखा कर ये अदाएं छोड़ दो ,दिल को जलाना तुम,
            तुम्हे मालूम ना ये रूप कितना कातिलाना  है
निहारा मत करो तुम आईने में ,सज संवर कर यूं
             आइना सह न पायेगा ,बिचारा टूट  जाएगा
मोहब्बत की अगर मुझको ,जरासी रोशनी दे दो,
              मेरे अंधियारे जीवन में ,उजाला फ़ैल  जाएगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
   

कांच के टुकड़े

        कांच के टुकड़े

काँचों से मेरी दोस्ती है पुरानी
बचपन में कांच की बोतल से दूध पिया ,
कांच के गिलास से ही पिया  था पानी
वो आइना भी कांच ही था जिसमे पहली बार,
खुद को देख कर अपनी सूरत थी पहचानी
जब उम्र बढ़ी तो इन्ही आइनों में,
अपनी भीगती मसों  को निहारा था
और मदिरा का पहला पहला जाम,
इन्ही कांच के प्यालों में ढाला  था
इन्ही आइनों को देख कर ,
मैं सजता और संवरता था
और खुद को निहार कर,
अपने आप से कितना प्यार करता था
पर जब इन आइनों ने ,
मुझे दिखाए मेरे सफ़ेद होते हुए केश
 और चेहरे की उभरती हुई झुर्रियां 
तो देखकर ये परिवेश
तो जिंदगी लगने लगी बेमायने
और हमने तोड़ दिए
सभी गिलास,बोतलें और आईने
कुछ  पुराने दोस्त ,जब जिंदगी की ,
हक़ीक़त से वाकिफ कराते है
और गुस्से में ये ,छोड़ दिए या तोड़ दिए जाते है
तो इनके हरेक टुकड़े में भी,
आपका असली रूप नज़र आने लगता है
और जिंदगी की हक़ीक़त की तरह ,
हर टुकड़ा चुभने लगता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 22 जून 2014

डिजिटल जीवन

          डिजिटल जीवन

एक हसीना की दो आँखों के संग आँखे चार करो,

 लेकर फेरे सात बाँध लो ,तुम रिश्ता जीवन भर का

सात आठ दिन की मस्ती फिर ,पड़ता बोझ गृहस्थी का ,

बड़ा बुरा होता है  पड़ना ,ननयानू  के चक्कर का 

दूध छटी  का याद आ जाता,बजते चेहरे पर बारह,

चार दिनों की रात  चांदनी ,फिर अंधियारा पाओगे

मुरझा जाता साथ समय के ,चाँद चौदवीं सा चेहरा,

पडो न तीन और तेरह में,मुश्किल में पड़ जाओगे

हार जीत में अंतर होता ,बस उन्नीस बीस का है,

किन्तु जीतने वाले के,हरदम होते  है   पौबारह 

नहीं किसी से तीन पांच में ,उलझाओ तुम अपने को ,

अच्छा सा मौक़ा देखो और हो जाओ नौ दो ग्यारह

छप्पन भोग कभी चढ़ते है,चलती छप्पन छुरी कभी,

होते सोलह संस्कार है ,गुण छत्तीस  मिला करते

कोई कहे 'साठा को पाठा 'कोई पागल सठियाया ,

एक जीभ रहती है कायम ,बत्तीस दांत हिला करते

करते दो दो हाथ हमेशा,हम बचपन से पचपन तक ,

एक एक जब मिल जाते है ,तो है ग्यारह हो जाते  

आज जिंदगी हुई डिजिटल ,सारा खेल डिजिट का है,

 यह जीवन का अंकगणित हम,बिलकुल नहीं समझ पाते

 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

झुर्रियों के सल

           झुर्रियों के सल

जब तुम पैदा हुए ,
मेरे पेट पर सल पड़े
तुम्हारी पत्नी आयी,
मेरे माथे पर सल पड़े
उमर के साथ साथ
बदलते गए हालात
पर सलों का सिलसिला,थम नहीं पाया
समय ने मसल दिया
दिल के अरमानों को ,
और अब तो पूरा ही,बदन है झुर्राया

घोटू    

गोलियां

                    गोलियां
हमारे देश की सरहद पे जो तैनात सैनिक है ,
हिफाजत में वतन की गोलियों से खेलते अक्सर
और हम भी,ज़रा भी कम नहीं है कोई सैनिक से,
हिफाजत जिस्म की करने ,खा रहे गोलियां दिन भर

घोटू 

लड़ाई और प्यार

          लड़ाई और प्यार

मिले थे पहली पहली बार जब हम एक दूजे से ,
प्यार का सिलसिला जागा ,नज़र हममें लड़ाई थी
लड़ा था पेंच हममें और तुममे ,डोर थी उलझी,
पतंगें ,हमने ,तुमने ,प्यार की मिलकर उड़ाई  थी
हुई  शादी ,लडाया लाड़ हमने थोड़े दिन तक तो,
हुआ करती थी कितनी बार फिर हममें  लड़ाई थी
समर्पण तुम कभी करती,समर्पण मैं कभी करता ,
प्यार दूने से हमको जोड़ती,अपनी लड़ाई   थी
हमारा रूठना और मनाना चलता ही रहता था ,
मोहब्बत जो मिठाई थी ,चाट जैसी लड़ाई थी
हमारे प्यार की मजबूत सी जो ये इमारत है,
हमें मालूम है,बुनियाद में ,इसकी  लड़ाई थी

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

कोई मिलकर भी मिलता नहीं आजकल....


दो पत्नी पटाऊ कवितायें

         दो  पत्नी पटाऊ कवितायें
                         १
                 गृहलक्ष्मी
        तुम मेरी  प्यारी पत्नी हो
         और इस घर की गृहलक्ष्मी हो
          मेरे इस घर में चलता है ,एक छत्र शासन तुम्हारा
        मैं सारा दिन करके मेहनत
         लाता कमा,लक्ष्मी ,दौलत
        तुम झट से खर्चा कर देती, खुला हुआ है हाथ तुम्हारा
         मैं कहता तुम खर्चीली हो
         तुम कहती तुम पतिव्रता हो
         घर में कोई दूसरी लक्ष्मी ,आये तुमको नहीं गंवारा
          आओ ऐसा काम करें कुछ
           तुम भी हो खुश और मैं भी खुश
          मैं विष्णु ,तुम लक्ष्मी बन कर ,आओ दबाओ पाँव हमारा
                            २
                     स्वर्ण सुंदरी
         एक दिन बीबीजी
         खफा हुई थी खीजी
         बोली क्यों झगड़ा तुमकरते हो मेरे संग
          देखो जी ,मुझसे तुम,
          लोहा मत ले लेना
          तंग तुम्हे कर दूंगी,मुझसे जो छिड़ी जंग
           झट से कर सरेंडर
           हम बोले ये डियर
           सोने से ढला बदन ,स्वर्ण सुंदरी हो तुम
            सोना है  हमें पसंद  
            सोने की मूरत संग
            सोने की प्रतिमा से ,लोहा क्यों लेंगे हम ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

गुरुवार, 19 जून 2014

मिटटी का चूल्हा

       

याद मुझे आता गाँव का,वो मिटटी वाला चूल्हा ,
       जिसमे गोबर के कंडे और सूखी  लकड़ी जलती थी 
मुंह में स्वाद घूमता है उस,सोंधी सौंधी रोटी  का,
        जो लकडी के अंगारों पर ,सिक कर फूला करती थी    
सुबह सुबह चूल्हा सुलगाना ,फूंक फूंक कर फुँकनी से ,
        मुझे याद है अच्छी खासी ,एक कवायत  होती थी 
बारिश में भीगी लकड़ी  जब अग्नी नहीं पकड़ती थी,
         चौके में  धुंवे  के मारे  कितनी  आफत  होती  थी
हम सबके खाने के पहले ,एक अंगारा लेकर के ,
         उस पर डाल ज़रा सा  घी माँ,अग्नी देव जिमाती थी 
फिर गाय की पहली रोटी ,तब हमको खाना मिलता ,
          सबके बाद ,साथ दादी के, अम्मा  खाना खाती थी 
 फिर रोटी मेहतरानी की, और फिर बर्तन वाली की,
           जो चूल्हे की राखी से ही  ,मांजा  करती  थी बर्तन 
बचे हुए गूंथे आटे  का ,कुत्ते का   बाटा बनता ,
              जिसको बाहर गलियों में जा,कुत्ते को देते थे हम 
रोज सवेरे ,लीप पॉत  कर ,उसको शुद्ध किया  करते,
              और बाद में ही वो चूल्हा , सदा जलाया  जाता था 
आती  नयी बहू जो घर में ,तो उससे सबसे पहले,
               पूजा चूल्हे की करवा ,भोजन पकवाया जाता  था 
 अब तो खूब गैस के चूल्हे ,बिजली ,इंडक्शन चूल्हे ,
                 भुला दिया शहरी संस्कृती ने ,वह  चूल्हा मिटटी वाला 
अब भी मुझे याद आते जब,वो बचपन के दिन प्यारे ,
                आँखों के आगे जल उठता  ,वह  चूल्हा मिटटी वाला            

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 17 जून 2014

तो कैसा लगता होगा ?

          तो कैसा लगता होगा ?

वो जब हमसे टकराते है,तन में सिहरन होती है ,
पर्वत से पर्वत टकराते ,तो कैसा लगता होगा
कैसे स्वामी परायण होगी ,दो बद्दी वाली चप्पल,
सभी पहनते आते जाते,तो कैसा लगता होगा
यूं ही इशारों पर ऊँगली के ,हम तो नाचा करते है ,
वो ऊँगली कर ,हमें  सताते ,तो कैसा लगता होगा
हम तो उनका प्यार मांगते है कितनी बेशर्मी से ,
पर वो प्यार करें शर्माते ,तो कैसा लगता होगा
चन्द्र बदन ,हिरणी सी आँखों वाली सुन्दर सी ललना ,
'अंकल 'कहती ,हमें चिढ़ाते ,तो कैसा लगता होगा
पलकों पर रख पाला जिनको,पढ़ा लिखा कर बढ़ा किया ,
वो बच्चे जब तुम्हे भुलाते ,तो कैसा लगता होगा
अगर जिंदगी में अपनी जो ,केवल सुख ही सुख होते,
और दुःख आकर नहीं सताते ,तो कैसा लगता होगा
भरी भीड़ में ,बड़े चाव से ,'घोटू' जब पढ़ते  कविता ,
लोग तालियां नहीं बजाते,  तो कैसा लगता  होगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सास का अहसास

        सास का अहसास

बन गयी  सास जो तो क्या ,जवां तुम अब भी लगती हो
संवारती और सजती जब, दुल्हनिया  अब भी लगती हो
गलतफहमी हुई तुमको ,बुढ़ापा  आ  गया तुम पर
अदायें  जब दिखाती हो ,चलाती अब  भी    हो खंजर 
कशिश अब भी वही तुममे ,नशीला  रूप  है कातिल
गिराती बिजलियाँ  हो ,मुस्करा के लूट लेती  दिल
गठीला तन तुम्हारा और भी गदरा गया अब है
कभी थी छरहरी ,मांसल काया ,हो गयी अब  है
बरसता  प्यार है घर में, विवाहित है नयी जोड़ी
देख वातावरण ,रोमांटिक ,हो जाओ तुम  थोड़ी
लुटाती प्यार मुझ पर मेहरबां, तुम अब भी लगती हो
बन गयी सास जो तो क्या ,जवां तुम अब भी लगती हो

घोटू

नामुमकिन

            नामुमकिन
हम और तुम दोनों अकेले ,कोई भी ना पास में,
हाथ मेरे नहीं हरकत,करें ये मुमकिन नहीं
हो सुहाना सा समां ,उस पर नशीली रात हो,
और तुमसे ना महोब्बत ,करें ये मुमकिन नहीं
लरजते हो लब तुम्हारे ,लबालब हो प्यार से ,
और उनका नहीं चुम्बन,करें ये मुमकिन नहीं
प्यार की थाली परोसे ,निमंत्रण हो आपका,
और हम ना रसास्वादन ,करें ये मुमकिन नहीं

घोटू

आम की गुठली

             आम की गुठली

मैं  बूढ़ा हूँ
चूसी हुई मैं कोई आम की,गुठली सा,कचरा कूड़ा हूँ
मैं बूढा हूँ
ये सच है मैं बीज आम का,उगा आम का वृक्ष मुझी से 
विकसित होकर फूला,फैला  और हुआ फलदार मुझी से
कच्चे फल तोड़े लोगों ने, काटा और   आचार बनाया
चटनी कभी मुरब्बा बन कर ,मैं सबके ही मन को भाया
और पका जब हुआ सुनहरी ,मीठा और रसीला,प्यारा
सबने तारीफ़ करी प्यार से ,चूंस लिया मेरा रस सारा
देख उन्हें खुश,सुखी हुआ मैं ,मुर्ख न समझा नादानी में
हो रसहीन ,दिया जाऊंगा,फेंक किसी कचरे दानी  में
आज तिरस्कृत पड़ा हुआ मैं ,सचमुच  बेवकूफ पूरा हूँ
मैं बूढ़ा हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 16 जून 2014

फादर'स डे पर-पिताजी से

   फादर'स डे पर-पिताजी से

आपने ऊँगली थामी ,
           मैंने जीवनपथ पर चलना सीखा
आपने आँख दिखाई ,
          मैंने अच्छा बुरा देखना सीखा
आपने कान मरोड़े ,
          मैंने हर तरफ से चौकन्ना होना  सीखा 
आपने डाट लगाईं,
           मैंने डट कर मुश्किलों का सामना करना सीखा     
आपके हाथों ने कभी मेरे गालों को सहलाया था
                                 तो कभी चपत भी लगाई है
आपकी ये छोटी छोटी शिक्षाये ही,
                                मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमाई है
यूं भी  मेरी रगों में,आपका ही खून ,
                                  दौड़ता रहता दिन रात है  
पर ये मैं ही जानता हूँ,कि मेरी सफलता में,
                                    आपका कितना हाथ है
आपका प्यार और आशीर्वाद ,
                                    मेरी सब से बड़ी दौलत है
मैं आज अपनी जिंदगी जो कुछ  भी हूँ
                                     सब आपकी बदौलत   है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू;

रविवार, 15 जून 2014

जुदाई में

              जुदाई में

तुम्हारे बिन ,जुदाई का ,हमारा ऐसा है आलम ,
              परेशां मैं भी रहता हूँ,परेशां तुम भी रहती हो
तुम्हारी याद में डूबा  ,और मेरी याद में ग़ाफ़िल ,
             हमेशा मैं भी रहता हूँ,हमेशा तुम भी रहती हो
प्यार करते है फिर भी क्यों ,झगड़ते हम है आपस में ,
             पशेमां मैं भी रहता हूँ,पशेमां  तुम भी रहती हो
महोब्बत भी अजब शै है ,बड़े बेचैन पागल से ,
              खामख्वाह मैं भी रहता हूँ,खामख्वाह तुम भी रहती हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
     

पिताजी- एक चिंतन

        फादर'स डे पर
     पिताजी- एक चिंतन

बचपन में ,जब भी गलती होती थी,हर बार
मुझे सुननी  पड़ती थी ,पिताजी की फटकार
और  मैं गुस्से में,दुखी और  नाराज़   होकर      
निकल जाया करता था  ,छोड़ घर के बाहर 
और देर रात,गुस्साया सा ,जब लौटता  था
माँ प्रतीक्षा कर रही होगी,मुझे होता पता था
पिताजी की नाराजगी,निकालता था खाने पर
पर जब शांत होता था ,माँ के समझाने   पर
तब पता लगता था,पिताजी ने नहीं किया भोजन
तब बड़ा दुखी और  खिन्न होता था,मेरा मन 
सोचता था,माँ और पिताजी ,दोनों करते है प्यार
तो क्यों इतना अलग होता है ,दोनों का व्यवहार
 दोनों के आचरण में क्यों ,इतनी  विषमता  है
एक पुचकारता है और  दूसरा फटकारता  है
प्यार के तरीके में उनके क्यों है  ये अन्तर
किन्तु समझ में मेरे ,अब आया है जाकर
माँ तो हमेशा ही ,दुलारने के लिए होती है
पर पिताजी की डाट,सुधारने के लिए होती है 
जीवन पथ पर ,नहीं मिलता ,हमेशा,हर बार
माँ  के जैसी ममता या प्यार भरा व्यवहार
कितने ही संघर्षों से ,हमें गुजरना  पड़ता है
अलग अलग लोगों से ,दो चार करना पड़ता है
रोज रोज नयी मुसीबत ,हर बार  मिलती  है
कभी गाली,कभी डाट ,कभी फटकार मिलती ह
आदमी ,बचपन से यदि प्यार का आदी हो जाएगा  
तो इन सारी मुसीबतों को वो कैसे झेल पायेगा
पिताजी की डाट भी एक तरीका है,समझाने का
हमें दृढ़,मजबूत और अनुशासित  बनाने का
माँ की ज्यादा ममता भी बच्चे को बिगाड़ देती है
और पिताजी की डाट,जीवन को संवार देती है
इसीलिये पिताजी थोड़ा कठोर व्यवहार करते है
अगर डाटते हैं,समझ लो,बहुत प्यार करते है
नारियल से सख्त बाहर,अंदर  मुलायम होते
ये बात समझ तब आती ,जब पिता हम होते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 14 जून 2014

अच्छे बुरे दोस्त

         अच्छे  बुरे दोस्त

अगर अच्छा हुआ तो यश ,सभी ले लेते है खुद ही,
अगर होता बुरा कहते ,लिखा था ये ही किस्मत में
भिड़ाना एक दूजे को ,लगा कर के  नमक मिर्ची ,
दूर से फिर मज़े लेना ,है होता जिनकी आदत मे
बहुत सारे हितैषी आपको मिल जाएंगे  ऐसे ,
ख़ुशी में सबसे आगे है,छोड़ते संग मुसीबत में
बड़ी मुश्किल से मिलते दोस्त,सच्चे चाहने वाले ,
न होती खोट कोई भी ,कभी भी,जिनकी चाहत में

घोटू 

जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है

    जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है  

इस तरह से कहर कुदरत ढा  रही है
हर तरफ से मार पड़ती   जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता  जा रहा है ,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती   जा रही  है
बढ़ रही ऊंचाई जितनी बिल्डिंगों की ,
उतने ही इंसान बौने  हो गए है
अब न बच्चे खेलते है झुनझुनो से,
अब तो 'मोबाइल',खिलोने हो गए है
बच्चा पहला शब्द 'माँ' ना  बोलता है,
सबसे पहले 'हेलो'करना सीखता है       
पैदा होते आँख जब वो खोलता है ,'
'फेस बुक 'पर उसका चेहरा दीखता है
तरक्की की सीडियां हम चढ़ रहे है,
या तरक्की हम पे चढ़ती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा  है,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती जा रही है
दोस्ताना रोज रुसवा हो रहा है ,
और रिश्ते धुंवा धुंवा हो रहे है
बुजुर्गों को खुदा के मानिंद समझना ,
अदब के वो सब सलीके  खो रहे है
रोज अस्मत औरतों की लुट रही है,
बिक रहा ईमान ,खुल्ले आम  अब है
हम पतन के गर्द में नित गिर रहे है,
हो रहे संस्कार मटियामेट  सब है
आदमी खुदगर्ज होता जा रहा है ,
और इंसानियत  मरती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है ,
मंदिरों में भीड़ बढ़ती जा रही है
सोचता इंसान है मंदिर में जा के ,
सर झुका कर,पाप धुल जाएंगे सारे
एक लोटा दूध शिवलिंग पर चढ़ा कर ,
स्वर्ग के भी द्वार खुल जाएँगे  सारे
पागलों सी भीड़ मन्दिरमे उमड़ती ,
भजन,प्रवचन ,एक धंधा बन गया है ,
करोड़ों का चढ़ावा ,जाता चढ़ाया ,
लोभ में इंसान अँधा बन गया है
पैसे के बल ,काम हो सकते है सारे,
आस्थाएं ,यूं  बदलती जा रही है
जैसे जैसे पाप बढ़ता जा रहा है ,
मंदिरों में ,भीड़ बढ़ती  जा रही है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अंजाम-ए -आशिक़ी

         अंजाम-ए -आशिक़ी

नहीं हमतुम मिले शायद ,लिखा था ये ही किस्मत में,
              तू भी अच्छी तरह होगी ,मैं भी अच्छी तरह से हूँ
खैर ये है नहीं भटके हम  अपने रास्तों से है ,
              तू भी अपनी जगह पे है,मैं भी अपनी जगह पे  हूँ
इश्क़ की दास्ताने सभी की, रहती अधूरी है,
              मिली ना मजनू को लैला,नहीं फरहाद, शीरी को ,
हमारी आशिक़ी का भी, वही अंजाम होना था ,
               दुखी तू बे वजह से है ,दुखी मैं  बे वजह से हूँ

घोटू 

बुधवार, 11 जून 2014

दरिया रहा कश्ती रही लेकिन सफर तन्हा रहा....



दरिया रहा कश्ती रही लेकिन सफर तन्हा रहा
हम भी वहीं तुम भी वहीं झगड़ा मगर चलता रहा

साहिल मिला मंजिल मिली खुशियां मनीं लेकिन अलग
खामोश हम खामोश तुम फिर भी बड़ा जलसा रहा

सोचा तो था हमने, न आयेंगे फरेबे इश्क में
बेइश्क दिल जब तक रहा इस अक्ल पर परदा रहा

शिकवे हुए दिल भी दुखा दूरी हुई दोनों में पर
हर बात में हो जिक्र उसका ये बड़ा चस्का रहा

छाया नशा जब इश्क का 'चर्चित' हुए कु्छ इस कदर
गर ख्वाब में उनसे मिले तो शहर भर चर्चा रहा

- विशाल चर्चित 

मंगलवार, 10 जून 2014

मैं और मेरा नसीब

          मैं और मेरा नसीब

                 जो दिखा
                  सो लिखा
                  और मैं ,
                  नहीं बिका
                   उसूलों
                    पर टिका 
                 लोगों को,
                 सबक सिखा
                  सच से ,
                  नहीं डिगा
                  इसलिए  इधर
                   उधर  फिंका

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

         

अलग अलग धर्मस्थल

       अलग अलग  धर्मस्थल

चर्च में प्रार्थना करने ,ईसाई जाते सारे है
इबादत यीशु  की करते,बिना जूते उतारे  है
और मस्जिद में भी जब लोग जा नमाज पढ़ते है
उतारा करते है चप्पल पर, अपने पास रखते है
और मंदिर में दर्शन करने जाते  लोग  रोजाना
मगर  जूते उतारे बिन  ,मना है मंदिर में जाना
प्रार्थना प्रभु की करते ,ध्यान चप्पल में रहता है
चुरा ना कोई ले चप्पल ,यही डर मन में रहता है
नहीं होता कोई बुत मस्जिदों में,खुदा ,अल्ला का
मगर चर्चों में होता बुत यीशु और मरियम माँ का
और मंदिर में कितने देवता की मूर्तियां होती
रोज श्रृंगार होता ,दो समय है  आरती    होती
अन्य पूजागृहों में सिर्फ आशीर्वाद मिलता है
मगर मंदिर में आशीर्वाद संग परशाद मिलता है  
चर्च में मौन सब चुपचाप रहते ,शांति रहती है
कहीं प्रवचन ,कहीं उपदेश की बरसात बहती है
मज़ा पर मंदिरों में कीर्तन का,नाच गाने का
यहीं पर मिलता है मौका,नयी चप्पल चुराने का              

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 7 जून 2014

गयी हो जब से तुम मइके

             गयी हो जब से तुम मइके

गयी हो जब से तुम मइके,है मेरा मन नहीं लगता
विरह की वेदना सह के ,है मेरा मन नहीं लगता
नहीं तो भूख लगती है,न आता स्वाद खाने में
बना रख्खी है क्या हालत ,तुम्हारे इस दीवाने ने
कोई भी आके ये देखे कि मेरा मन नहीं लगता
गयी हो जबसे तुम मइके ,है मेरा मन नहीं लगता
करवटें बदला करता हूँ ,न ढंग से नींद आती है
तुम्हारी याद आ आ के,मुझे हरदम सताती है
तड़फता हूँ मैं रह रह के,है मेरा मन नहीं लगता
गयी जब से तुम मइके है मेरा मन नहीं लगता
तुम्हारा रूठना और रूठ के मनना ,लिपट जाना
झुक लेना वो नज़रें का,और वो'हाँ'भरी ना ना
याद आते वो क्षण बहके ,है मेरा मन नहीं लगता
गयी हो जबसे तुम मइके ,है मेरा मन नहीं लगता
जो तुम थी ,जिंदगानी थी ,सभी सूना है बिन तेरे
आजकल मैं अकेला हूँ,मुझे  तन्हाई  है   घेरे
कभी दिन रात थे महके,है मेरा मन नहीं लगता
गयी हो जब से तुम मइके ,है मेरा मन नहीं लगता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कमी हम मे रही होगी

        कमी हम मे रही होगी

उन्होंने छोड़ हमको थामा दामन ,और कोई का,
                 कमी  हम में ही निश्चित ही,कुछ न कुछ तो रही होगी
हमारे ही मुकद्दर में ,नहीं थी दोस्ती उनकी ,
                  गलत हम ही रहे होंगे ,और वो ही सही होगी
नहीं किस्मत में ये होगा ,जुल्फ सहलाएं हम उनकी,
                    और उनके रस भरे प्यारे ,लबों  का ले सके चुम्बन
बांह में बाँध कर के फूल जैसे बदन को कोमल,
                     महकते जिस्म की उनके,चुरा लें सारी खुशबू हम
नहीं तक़दीर में लिख्खी थी इतने हुस्न की दौलत ,      
                     जिसे संभाल कर के रख सकें ,अपने खजाने में
करे थे यत्न कितने ही कि उनको कर सकें हासिल,
                      मिली नाकामयाबी हमको ,उनका साथ पाने में
या फिर उनके मुकद्दर में ,कोई बेहतर लिखा होगा ,
                      करी कोशिश हमने पर,कशिश हम में,नहीं होगी
उन्होंने छोड़ हम को ,थामा दामन और कोई का,
                     कमी हम में ही निश्चित ही,कुछ न कुछ तो रही होगी
वो उनका मुस्कराना ,वो अदाएं चाल वो उनकी ,
                     और वो संगेमरमर का,तराशा सा बदन उनका
गुलाबी गाल की रंगत ,दहकते होंठ प्यारे से ,
                       कमल से फूल सा नाजुक ,वो गदराया सा तन उनका
तमन्ना थी कि उनका हाथ लेकर हाथ में अपने ,
                          काट दें साथ उनके सफर सारा जिंदगानी का
मगर अरमान सारे रह गए बस दिलके दिल में ही ,
                          यही अंजाम होना था, हमारी  इस  कहानी   का 
खुदा ही जानता है ,बिछड़ कर अब कब मिलेंगे हम,
                           न जाने हम कहाँ होंगे,न जाने वो कहीं होगी
उन्होंने छोड़ हमको ,थामा  दामन और कोई का,
                          कमी हम में ही ,निश्चित ही,कुछ न कुछ तो रही होगी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'     

शुक्रवार, 6 जून 2014

एक नारी-दुखिया बेचारी

           एक नारी-दुखिया  बेचारी

एक पूरब की नारी और एक दक्षिण की नारी ने,
                एक इटली की नारी की ,बड़ी हालत बिगाड़ी है
एक चौथी भी है जो राज,राजस्थान में करती ,
                 हरा कर इटली वाली को,छीन सब सीट डाली है
वो जब सत्ता में थी पत्ता भी ना हिलता इजाजत बिन,
                  उसीके लोग देते ,उसके शहजादे को गाली  है
जो टस से मस न   होती थी,हिला डाला है लोटस ने,
                  डुबो दी नाव मोदी ने ,बड़ी दुखिया  बिचारी है

घोटू 

गुरुवार, 5 जून 2014

जिंदगी का सफर

        जिंदगी का सफर

टर्मिनस से टर्मिनस तक ,बिछी हुई,लोहे की रेलें
जिन पर चलती रेल गाड़ियां ,कोई पीछे, कोई पहले
कोई तेज और द्रुतगामी,कोई धीमे और रुक रुक कर
स्टेशन से स्टेशन तक ,बस काटा करती है चक्कर
कोई भीड़ भरी पैसेंजर ,तो कोई ऐ. सी. होती है
कोई मालगाड़ियों जैसी ,जो केवल बोझा  ढोती है  
यात्री चढ़ते और उतरते ,हर गाडी में बहुत भीड़ है
हर यात्री की अलग ख़ुशी है,हर यात्री की अलग पीड है
कोई लूटता ,मज़े सफर के,कोई रहता परेशान है
कोई हेंड बेग लटकाये ,कोई के संग ताम झाम  है
अपनी यात्रा कैसे काटें,यह सब तुम पर ही निर्भर है
प्लानिंग सही,रिज़र्वेशन हो ,तो होता आसान सफर है
इन्ही रेल की यात्रा जैसा,होता है अपना जीवन पथ
एक जन्म का टर्मिनस है ,एक मृत्यु का है टर्मिनस
कोई गाड़ी कैसी भी हो,लेकिन सबका पथ है निश्चित
दुर्घटना का ग्रास बनेगी ,अगर हुई जो पथ से विचलित
और हम बैठे हुए ट्रेन में,जीवन का कर रहे सफर है 
रेल गाड़ियां,आती ,जाती,हम तो केवल ,पैसेंजर है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपना अपना स्वभाव

     अपना अपना स्वभाव

ऊपर के दांत,भले ही ,
नीचे के दांतों के साथ रहते है
मगर  आपस में किटकिटाते ,
और झगड़ते ही रहते है
सबके सब बड़े  सख्त मिजाज है
पर रहते नाजुक सी जिव्हा के साथ है
बिचारी जिव्हा को ,बड़ा ही ,
संभल संभल कर रहना पड़ता है
कभी कभी ,दांतों का,कोप भी सहना पड़ता है
फिर भी जीभ ,अपनी सज्जनता ,नहीं छोड़ती है
दांत के बीच ,यदि कुछ फंस जाता है,
तो उसे टटोल टटोल कर ,निकाल कर ही  छोड़ती है
सुई,तीखी और तेज होती है,चुभती है
मगर चुभे हुए कांटे निकाल देती है
और फटे हुए कपड़ों को टांक देती है
खजूर  का वृक्ष,इतना ऊंचा होते हुए भी ,'
छाया विहीन होता है
और आम ,भले ही छोटा है
पर देता फल और छाँव है
सबका अपना अपना स्वभाव है

 मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

लकीर के फ़कीर

            लकीर के फ़कीर

जो चलते है निश्चित पथ पर ,उनकी यात्रा होती सुखमय
ना तो  ऊबड़ खाबड़ रस्ता ,नहीं भटकने का कोई भय
लोह पटरियां, बिछी रेल की,पथ मजबूत ,बराबर,समतल
निश्चित पथ पर आती,जाती, ट्रेन चला करती है दिन भर
हम लकीर के यदि फ़कीर है ,सुगम जिंदगी का होता पथ
बिन बाधा के ,तीव्र गति से ,चलता रहता  है जीवन रथ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पिताजी याद आतें है

       पिताजी याद आतें है

हमारी जिंदगी में जब भी दुःख,अवसाद आते है
परेशाँ मुश्किलें करती ,पिताजी याद आते है
सिखाया जिनने चलना था,हमें पकड़ा के निज उंगली
कराया ज्ञान अक्षर का  ,पढ़ाया  लिखना अ ,आ, ई
भला क्या है,बुरा क्या है ,गलत क्या है ,सही क्या है
दिया ये ज्ञान उनने  था,बताया   कैसी दुनिया  है
कहा था ,हाथ मारोगे,  तभी तुम तैर पाओगे
हटा कर राह  के रोड़े ,राह  अपनी  बनाओगे
नज़र उनपे ही जाती थी, जब आती थी कोई मुश्किल
उन्ही के पथप्रदर्शन से ,हमें हासिल हुई मंज़िल
जरुरत जब भी पड़ती थी,सहारा उनका मिलता था
नसीहत उनकी ही पाकर,किनारा हमको मिलता था
ढंग रहने का सादा था ,उच्चता थी विचारों में
भव्य व्यक्तित्व उनका था ,नज़र आता हजारों में
अभी भी गूंजती है खलखिलाहट और हंसी उनकी
वो ही चेहरा चमकता सा और वो सादगी उनकी
भले ही सख्त दिखते थे  हमें करने को अनुशासित
मगर हर बात में उनकी ,छुपा रहता , हमारा हित
उन्ही की ज्ञान और शिक्षा ,हमारी सच्ची दौलत है
आज हम जो भी कुछ है सब,पिताजी की बदौलत है
आज भी मुश्किलों के घने बादल ,जब भी छाते है
उन्ही की शिक्षा से हम खुद को बारिश से बचाते है
उन्ही के बीज है हम ,आज जो ,विकसे,फले,फूले
हमें धिक्कार है ,उपकार उनका ,जो कभी  भूले
वो अब भी आशीर्वादों की ,सदा सौगात लातें है
भटकते जब भी हम पथ से, पिताजी याद आते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

चुनाव -२०१४ के बाद

              चुनाव -२०१४ के बाद
                    तीन चित्र
                         १
                 स्थान परिवर्तन 
   कोई कहता था इस करवट,कोई कहता था उस करवट
    सभी के मन  में शंका  थी,  ऊँट  बैठेगा  किस  करवट
   मगर  करवट बदल कर ऊँट है कुछ इस तरह बैठा
   खत्म ही हो गया  डर  खिचड़ी ,सरकार बनने  का 
   नहीं पी एम 'मौनी' और ना सरकार कठपुतली
   बने पी एम 'मोदी ',इस तरह सरकार है बदली
   नयी संसद की  अबके इस तरह बदली कहानी है
  जहाँ पर बैठती थी सोनिया जी, अब अडवाणी है
                              २
                      स्वप्न भंग 
 मुलायम सोचते थे बनेगी सरकार जो खिचड़ी
मिलेगी खाने को उनको,मलाई,मावा और रबड़ी
अगर जो उचट करके लग गयी और साथ दी  किस्मत
हमारे सांसदों से ही  मिलेगा,  किसी को  बहुमत
हाथ लग जाय मुर्गी ,रोज  दे जो , सोने का अंडा
किले पे दिल्ली के फहराएं अबकी बार हम झंडा
मगर टूटी कमर ऐसे गिरे हम ,औंधे मुंह के बल
सिमट कर रह गए परिवार के ही चार हम केवल
                             ३
                        गवर्नर  
पुराना राजवंशी हूँ,बहुत मुझमे था दम और ख़म
बड़ा कर्मठ खिलाड़ी हूँ ,रहा सत्ता में ,मैं  हरदम
टिकिट मुझ को मिला ना जब ,मुझे गुस्सा बड़ा आया
लड़ा चुनाव खुद के बल ,भले ही फिर मैं पछताया
ये है विनती ,पुरानी दोस्ती का,कुछ सिला देना 
किसी भी राज्य का मुझको ,गवर्नर तुम बना देना
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 3 जून 2014

प्राणायाम--एक शंका

प्राणायाम--एक शंका

ऐसा कहा जाता है
आदमी गिनती की सांस लेकर आता है
और जब वो गिनती पूरी हो जाती है
मौत आती है
जीवन जीने में हर रोज
देतें है महत्वपूर्ण सहयोग
भोग और योग
भोग की प्रक्रिया में ,साँसे गतिमान होती है
और आदमी जितना ज्यादा भोग में लिप्त होता है ,
उतनी साँसों की गिनती कम होती जाती है
और उम्र घट जाती   है 
इसीलिए ,ऐसा  कहा जाता है
 ब्रह्मचर्य , उम्र को बढाता  है
और योग की एक विधा ,
जिसे  हम प्राणायाम कहते है
जिसमे अलग अलग विधि से ,
जल्दी जल्दी सांस लेते है
ये भी कहा जाता है  कि ,
प्राणायाम करने  से , उम्र बढ़ जाती है
यह बात हमारी समझ में कम आती है
जब जिंदगी की साँसे ,गिनी चुनी होती है ,
तो क्यों हम प्राणायाम कर,
जल्दी जल्दी सांस लेकर ,
व्यर्थ ही अपनी साँसों की गिनती ,
 यूं ही कम कर दिया  करते है
और अपनी उम्र घटा दिया करते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पीड़ा-टूटे आईने की

              पीड़ा-टूटे आईने की

मुझे अब याद आते है ,वो दिन कितने सुहाने थे,
           मेरे ही सामने आकर ,संवरती थी, हसीनाएं
बड़ी नटखट निराली शोखियों से,कई कोणों से,
           गठीले जिस्म को अपने,निरख़ती  थी हसीनाएं
दिखाती थी कई नखरे,अदा से मुस्कराती थी ,
          कभी खुद पे फ़िदा ,खुद को चूमा करती थी,हसीनाएं        
कभी नयनों के खंजर पे,धार करती थी कजरे से,
           नज़र  तिरछी से  दिल पर  वार ,करती थी हसीनाएं
 लगा के लाली होठों पर ,सुलगती  आग भरती थी,
           जलाती सब के दिल को ,खुद भी जलती थी ,हसीनाएं
बसा करता था उनका अक्स ,मेरे जिस्म के अंदर ,
                  नहीं  मुझसे कभी भी  शर्म ,करती थी ,हसीनाएं     
मगर देखा उन्हें बेशर्मी से ,अठखेलियां करते ,
                  गैर के संग ,तो दिल टुकड़े टुकड़े  हो गया मेरा
 आज भी मेरे हर टुकड़े में जो वो झाँक कर देखें ,
                  बसा है अक्स उनका ही और वो,सुन्दर,हसीं चेहरा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

मैया,बहुत बुरे दिन आये

      घोटू के पद

मैया,बहुत बुरे दिन आये
ऐसे काटे पर जनता ने ,अब हम उड़ ना पायें
चौंवालीस पर सिमट गए हम,इतने नीचे आये
अपनी ही करनी का फल है ,क्या होगा पछताये 
कभी बोलती थी तूती  अब 'फुस'भी नहीं सुनाये
जो चमचे मुंह खोल न पाते ,अब खुल कर चिल्लाये
अपनी ही पार्टी वाले अब ,'जोकर'मुझे  बताये
बेटे फेर समय का है ये तू क्यों दिल पर लाये 
'जोकर'मतलब 'जो कर सकता'मम्मी जी'समझायें
फिर से अच्छे दिन आएंगे,जब तू ब्याह रचाये 

घोटू
 

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