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बुधवार, 26 अगस्त 2015

विरह पाती -तुम बिन

             विरह पाती -तुम बिन

डबलबेड की जिस साइड पर ,तुम अक्सर सोया करती थी ,
जब से मइके गयी ,पड़ा है, तब से ही वो कोना  सूना
गलती से करवट लेकर के ,उधर लुढ़क जो मैं जाता हूँ,
मेरी नींद उचट जाती है ,लगता जीवन बड़ा अलूना
उस बिस्तर में,उस तकिये में ,बसी हुई तुम्हारी खुशबू ,
अब भी मुझे बुलाती लगती ,यह कह कर के ,इधर न आना
तुम बिन  मन बिलकुल ना लगता ,कैसे अपना वक़्त गुजारूं,
ना चूड़ी की खनक और ना पायल का  संगीत  सुहाना
इतनी ज्यादा आदत मुझको ,पडी तुम्हारी संगत की थी
कि तुम्हारे खर्राटे भी ,लोरी जैसे स्वर लगते थे
मेरी नींद उचट जाती तो ,तुमको हिला जगाता था मैं ,
तुम मुझ पर बिगड़ा करती थी ,फिर दोनों संग संग जगते थे
तुम चाहे मम्मी पापा संग ,दिन भर मौज उड़ाती होगी ,
किन्तु रात को कभी कभी तो ,होगी मेरी याद सताती
उठते विरह वेदना के स्वर ,करते मेरा  जीना दूभर ,
बहुत दिन हुए ,अब आ जाओ, मुझे रात भर नींद न आती

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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