कैसे कह दें हम है स्वतंत्र ?
बचपन में मात पिता बंधन,
मस्ती करने पर मार पड़े
फिर स्कूल के अनुशासन में,
हम बेंचों पर भी हुए खड़े
जब बढे हुए तो पत्नी संग ,
बंध गया हमारा गठबंधन
बंध कर बाहों के बंधन में ,
करदिया समर्पित तन और मन
उनके बस एक इशारे पर ,
नाचा करते थे सुबह शाम
वो जो भी कहती,हम करते ,
इस कदर हो गए गुलाम
फिर फंसे गृहस्थी चक्कर में ,
और काम काज में हुए व्यस्त
कोल्हू के बैल बने,घूमे,
मेहनत कर कर के हुए पस्त
फिर बच्चों का लालन पालन ,
उनकी पढ़ाई और होम वर्क
बंध गए इस तरह बंधन में,
बेडा ही अपना हुआ गर्क
जब हुए वृद्ध तो है हम पर
लग गए सैंकड़ो प्रतिबन्ध
डॉक्टर बोला है डाइबिटीज ,
खाना मिठाई अब हुई बंद
बंद हुआ तला खानापीना ,
हम ह्रदय रोग से ग्रस्त हुए
उबली सब्जी और मूंग दाल ,
हमरोज रोज खा त्रस्त हुए
आँखे धुंधलाई ,सुंदरता का ,
कर सकते दीदार नहीं
चलते तो सांस फूलती है,
कुछ करने तन तैयार नहीं
तकलीफ हो गयी घुटनो में,
और तन के बिगड़े सभी तंत्र
बचपन से लेकर मरने तक,
बतलाओ हम कब है स्वतंत्र
थोड़े बंधन थे सामाजिक,
तो कुछ बंधन सांसारिक थे
कुछ बंधन बंधे भावना के,
कुछ बंधन पारिवारिक थे
हरदम ही रहा कोई बंधन ,
हम अपनी मर्जी चले नहीं
और तुम कहते ,हम हैं स्वतंत्र ,
ये बात उतरती गले नहीं
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बचपन में मात पिता बंधन,
मस्ती करने पर मार पड़े
फिर स्कूल के अनुशासन में,
हम बेंचों पर भी हुए खड़े
जब बढे हुए तो पत्नी संग ,
बंध गया हमारा गठबंधन
बंध कर बाहों के बंधन में ,
करदिया समर्पित तन और मन
उनके बस एक इशारे पर ,
नाचा करते थे सुबह शाम
वो जो भी कहती,हम करते ,
इस कदर हो गए गुलाम
फिर फंसे गृहस्थी चक्कर में ,
और काम काज में हुए व्यस्त
कोल्हू के बैल बने,घूमे,
मेहनत कर कर के हुए पस्त
फिर बच्चों का लालन पालन ,
उनकी पढ़ाई और होम वर्क
बंध गए इस तरह बंधन में,
बेडा ही अपना हुआ गर्क
जब हुए वृद्ध तो है हम पर
लग गए सैंकड़ो प्रतिबन्ध
डॉक्टर बोला है डाइबिटीज ,
खाना मिठाई अब हुई बंद
बंद हुआ तला खानापीना ,
हम ह्रदय रोग से ग्रस्त हुए
उबली सब्जी और मूंग दाल ,
हमरोज रोज खा त्रस्त हुए
आँखे धुंधलाई ,सुंदरता का ,
कर सकते दीदार नहीं
चलते तो सांस फूलती है,
कुछ करने तन तैयार नहीं
तकलीफ हो गयी घुटनो में,
और तन के बिगड़े सभी तंत्र
बचपन से लेकर मरने तक,
बतलाओ हम कब है स्वतंत्र
थोड़े बंधन थे सामाजिक,
तो कुछ बंधन सांसारिक थे
कुछ बंधन बंधे भावना के,
कुछ बंधन पारिवारिक थे
हरदम ही रहा कोई बंधन ,
हम अपनी मर्जी चले नहीं
और तुम कहते ,हम हैं स्वतंत्र ,
ये बात उतरती गले नहीं
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।