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मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

कमियां 

शादी के बाद 
बेटी और दामाद 
पहुंचे पहली बार ,ससुराल 
बाप ने पूछा बेटी खुश है ना,
कैसा है तेरा हाल 
बेटी ने शरमा कर कहा ,
पापा,मैं बहुत खुश हूँ '
आपके दामाद ,
मेरा बड़ा ख्याल रखते है 
बड़े 'रिस्पॉन्सीबल 'है 
मेरी पूरी साज संभाल रखते है 
बस एक ही शिकायत है ,
ये मुझे छेड़ते रहते है 
और हमेशा मुझमे कमियां ढूंढते रहते है 
पिताजी बोले बेटा ,
ये तो बड़ी प्रसन्नता की बात है 
अपने दिए हुए संस्कारों पर हमें नाज़ है 
वरना मोबाईल में डूबी हुई ,
आज की जनरेशन 
बस इनसे करवा लो फैशन 
पर गृहस्थी चलाने में होती है अनाड़ी 
इतनी कमिया होती है कि ,
मुश्किल से खिसकती है गृहस्थी की गाडी 
शादी के बाद हर पति,
 अपनी पत्नी में ,अपनी माँ की तरह,
 कुशल गृहणी देखना चाहता है 
और जब उसकी उम्मीद के विपरीत ,
निकलती उसकी ब्याहता है 
उसमे इतनी कमियां होती है अक्सर 
जो स्पष्ट आती है नज़र 
तो बात बात में टोका टाकी से ,
उनका अहम टकराने लगता है 
चार दिनों की चांदनी के बाद,
अँधियारा छाने लगता है 
मुझे ख़ुशी है कि तेरी माँ ने ,
तुझे ट्रेंड कर दिया है इतना 
कि तुझमे इतनी कम कमियां है कि ,
दामादजी को पड़ती है ढूंढना 
पत्नी अगर कुशल गृहणी हो तो,
 तो बड़े मजे की गुजरती है  
 और जिंदगी की गाडी ,
बड़े आनंद से आगे बढ़ती है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
घर का खाना 

चाट से अच्छी तो बीबी की डाट है ,
और मीठी ,मिठाई से ,तक़रार है 
पेट इनसे हमारा बिगड़ता नहीं ,
बाद में मिलता जी भर हमें प्यार है 
ना शुगर और न बढ़ना क्लोस्ट्रोल का 
है असर ऐसा बीबी के कंट्रोल का 
जेब भी अपनी ढीली है होती नहीं,
खर्च होता नहीं कोई बेकार है 
जिद नहीं करती बीबी कि होटल चलें 
क्योंकि वेज़ नॉनवेज संग जाते तले 
सब्जी दो सौ की ,रोटी मिले तीस की ,
यूं न पैसे लुटाते समझदार है 
चाट ठेले पर खाने का मन ना करे 
धुल मिटटी से सब है सने से पड़े 
गोलगप्पे का पानी ,भरोसा नहीं ,
कितना 'इंफेक्शियस 'और बेकार है 
इसलिए छोड़ होटल के सब चोंचले 
घर में बीबी के हाथों के फुलके भले 
मिलती तृप्ति है सच्ची इसी खाने से,
क्योंकि खाने में घर के बसा प्यार है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

क्या बात है उस घरवाली की 

रंगीन दशहरे मेले सी ,
       जो चमक दमक दीवाली की 
जो रौनक है त्योंहारों की, 
       क्या बात है उस घरवाली की 
नवरात्री के गरबे जैसी ,
       ज्योतिर्मय दीपक जो घर का 
जिसमे फूलों की खुशबू है,
          जिसमे गहनों की सुंदरता 
जो रंगोली सी सजीधजी ,
          मीठी ,मिठाई से ज्यादा है 
जो फूलझड़ी ,रंग बरसाती,
          जो लगती कभी पटाखा है 
जो चकरी सी खाती चक्कर,
         आतिशबाजी ,खुशिहाली की 
जो रौनक है त्योंहारों की ,
          क्या बात है उस घरवाली की 
जो करवाचौथ वरत करती ,
          भूखी प्यासी रहकर ,दिनभर 
जो मांगे पति की दीर्घ उमर ,
             और उसे मानती परमेश्वर 
जो शरदपूर्णिमा का चंदा ,
            माथे बिंदिया सी सजी हुई 
सिन्दूरी मांग भरी घर की ,
             हाथों की मेंहदी ,रची हुई 
है  अन्नकूट सी मिलीजुली,
         वह  खनक चूड़ियों वाली की 
जो रौनक है त्योंहारों की,
          क्या बात है उस घरवाली की 
वह जो गुलाल है होली की,
            उड़ता गुबार जो रंग का है 
जीवनभर जो रखता मस्त हमें,
             उसमे वो नशा भंग का है 
मावे की प्यार भरी गुझिया ,
           वह दहीबड़े सी स्वाद  भरी 
रस डूबी गरम जलेबी सी ,
            रसगुल्ले सी ,आल्हाद भरी 
मुंह लगी फिलम के गीतों सी,
             और ताली है कव्वाली की 
जो रौनक है त्योंहारों की,
          क्या बात है उस घरवाली की 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
मैं गधे का गधा ही रहा 

मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
         गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 
मै तो दीपक सा बस टिमटिमाता रहा ,
        तुम शीतल,चटक चांदनी बन गयी 
मैं तो कड़वा,हठीला रहा नीम ही,
     जिसकी पत्ती ,निबोली में कड़वास है 
पेड़ चन्दन का तुम बन गयी हो प्रिये ,
  जिसके कण कण में खुशबू है उच्छवास है 
मैं तो पायल सा खाता रहा ठोकरें ,
    तुम कमर से लिपट ,करघनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
       गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 
मैं था तन्हा कुआँ,आयी पनिहारिने ,
     गगरियाअपनीअपनी सब भरती गयी 
तुम नदी की तरह यूं ठुमक कर चली,
        पाट  चौड़ा हुआ ,तुम संवरती गयी
मैं तो कांव कांव, कौवे सा करता रहा ,
            तुमने मोती चुगे ,हंसिनी हो गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
        गाय थी तुम प्रिये, शेरनी बन गयी 
मैं तो रोता रहा,बोझा ढोता रहा ,
         बाल सर के उड़े, मैंने उफ़ ना करी 
तुम उड़ाती रही,सारी 'इनकम' मेरी,
        और उड़ती रही,सज संवर,बन परी   
मैं फटे बांस सा ,बेसुरा ही रहा,
          बांसुरी तुम मधुर रागिनी बन गयी
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी  
ऐसा टॉफी का लालच मुझे दे दिया ,
        चाह में जिसकी ,मैं हो गया बावला 
तुम इशारों पर अपने नचाती रही,
    आज तक भी थमा ना है वो सिलसिला 
मैं तो भेली का गुड़ था,रहा चिपचिपा,
         रसभरी तुम ,मधुर चाशनी हो गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी हो गयी 
         
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
             पटाखा तुम भी-पटाखा हम भी 

छोड़ती खुशियों का फव्वारा तुम अनारों सा,,
              हंसती तो फूलझड़ी जैसे फूल ज्यों झरते 
हमने बीबी से कहा लगती तुम पटाखा हो ,
             सामने आती हमारे ,जो सज संवर कर के 
हमने तारीफ़ की,वो फट पडी पटाखे सी,
            लगी कहने  पटाखा मैं  नहीं ,तुम हो डीयर 
मेरे हलके से इशारे पे सारे रात और दिन,
           काटते रहते हो,चकरी  की तरह,तुम चक्कर  
भरे बारूद से रहते हो ,झट से फट पड़ते,
           ज़रा सी छूती  मेरे प्यार की जो चिनगारी 
लगा के आग,हमें छोड़, दूर भाग गयी,
            हुई  हालत हमारी ,वो ही  पटाखे वाली 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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