पर कुछ कहती हो "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"दिन में तारे गिनती रहती हो ,
खुली आँख से सपने बुनती हो ,
अछर धुंधला सा है, लेकिन ,
एक खुली किताब सी लगती हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"कभी बोलती थकती नही,
जैसे सारे जग का ज्ञान तुम्हे है !
कभी चुप शांत भोली सी,
जैसे कोई नादाँ हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"ख़ामोशी में तेरी बातों को ,
सुन लिया हैचुप से मैंने भी ,
आँखों के तेरे सपनों को ,
बुन लिया है मैंने भी ,
तुम किताब हो तेरी कविता ,
को पढ़ लिया है मैंने भी ,
तेरा बोलना हो या चुप रहना,
मुझको सब अच्छा लगता है !
तेरी बातों में मुझको,
बचपन का सब सच लगता है! "
मुझको याद नहीं है लेकिन ,
ये सुब मुझसे कभी कहा हो !
खामोश हो तुम,
पर कुछ कहती हो, ऐसा कहते हो तुम अकसर .....