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शनिवार, 1 जुलाई 2023

ग़ज़ल 

बस्ती में भरे बबूलो की 
तुम चाह कर रहे फूलों की 
ऊपर ,नीचे ,दाएं, बाएं,
हर तरफ चुभन है फूलों की 
झुलसाती लू में करते हो,
आशा सावन के झूलों की
 डिस्को का डांस नहीं होता,
 महफिल में लंगड़े लूलों की 
 जब स्वार्थ सिद्ध हो जाता है,
 चढ़ जाती बली उसूलों की 
 "घोटू" मिल जाती हमें सजा ,
 जीते जी अपनी भूलों की

घोटू 
साठ के पार 

साठ बरस की उम्र एक ऐसा पड़ाव है 
जब बुढ़ापा आता दबे पांव है 
पर आदमी जब होता है पिचोहत्तर के पार 
तब खुल्लम-खुल्ला बनता है उम्र का त्यौहार अनुभव की गठरी साथ होती है 
तब बूढ़ा होना गर्व की बात होती है 
भले ही बालों में सफेदी हो या झुर्रियां हो तन में 
मैंने एक अच्छा जीवन जिया है ,संतोष होता है मन में 
लेकिन जब धीरे-धीरे उम्र और बढ़ती जाती है 
उम्र जन्य कई बीमारियां हमें सताती है 
तन में शिथिलता व्याप्त होती है 
थोड़ी थोड़ी याददाश्त खोती है 
फिर भी लंबा जीने की तमन्ना बढ़ती जाती है 
जैसे बुझने के पहले दीपक की लौ फड़फड़ाती है
नहीं छूटती है माया मोह और आसक्ति 
जब की उम्र होती है करने की ईश्वर की भक्ति सचमुच को होता है बड़ा अचंभा 
आदमी बुढ़ापे से तौबा करता है,
 फिर भी चाहता है जीना लंबा

मदन मोहन बाहेती घोटू 
बुढ़ापे का आलम 

आजकल अपने बुढ़ापे का यह आलम है 
नींद तो आती कम है 
तरह तरह के ख्याल आते है
 ख्याल क्या बवाल आते हैं 
 पुराने जमाने की हीरोइने सारी 
 याद आती है बारी बारी
 जैसे कल ही मैंने सपने में देखा 
 सजी-धजी सी *उमरावजान की रेखा *
 मुझको लुभा रही थी 
 वो गाना गा रही थी 
 *दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए *
 *बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए*
  मेरी हो रही थी फजीहत 
  उसका कहा मानने की बची ही कहां है हिम्मत 
उसकी मांग जबरदस्त थी
  पर मेरी हिम्मत पस्त थी 
  मैंने झट चादर से अपना मुंह ढक डाला 
  तभी सामने आ गई *संगम की वैजयंतीमाला* 
उसका रूप था बड़ा सुहाना 
 और वह शिकायत भरे लहजे में गा रही थी गाना 
*मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया *
 सकपकाहट से मेरा मुंह सिल गया 
 मैं घबराया , शरमाया, सकुचाया
 कुछ भी नहीं बोल पाया 
 मैंने अपने ध्यान को इधर उधर भटकाया 
 पर सुई थी वही पर गई अटक 
 और मेरे सामने *पाकीजा की मीना कुमारी *हो गई प्रकट 
 और मुझे देख कर मुस्कुराने लगी 
 और मुझको चिढ़ाने लगी
  *ठाड़े रहियो ओ बांके यार *
  *मैं तो कर लूंगी थोड़ा इंतजार *
  मैंने कहा मैडम 
  इन हड्डियों में नहीं बचा है इतना दम 
 जवानी वाले हालात नहीं है 
ज्यादा देर तक खड़े रहना मेरे बस की बात नहीं है 
झेल कर इस तरह की मानसिक यातना 
मेरा मन हो जाता है अनमना 
मैं होने लगता हूं विचलित 
ऊपर से पूछती है *खलनायक की माधुरी दीक्षित* 
*चोली के पीछे क्या है *
*चुनरी के नीचे क्या है *
अब आप ही बताइए 
मुझे से खेले खाये खिलाड़ी से यह पूछना कहां तक है उचित 
यह सब है बुढ़ापे का त्रास 
मुझे लगता है सब उड़ाती है मेरा उपहास
इसलिए आजकल खाने लगा हूं 
बाबा रामदेव का च्यवनप्राश

मदन मोहन बाहेती घोटू 
भगवान से सीधी बात 

भगवान मुझे तू बतला दे अब क्या है तेरे एजेंडे में 
मेरी सारी अर्जी को तू, रख देता बस्ते ठंडे में 

तू तो है सबका परमपिता ,और मैं भी तेरा बच्चा हूं
थोड़ा जिद्दी हूं नटखट हूं लेकिन मैं मन का सच्चा हूं 
जो भी मेरी जरूरत होगी पापा से ही मनवाऊंगा 
पीछे पड़ करके जिद अपनी, सारी पूरी करवाऊंगा 
 तुझको पूरा करना होगा 
 मेरी झोली भरना होगा 
 मैं नहीं आऊंगा कैसे भी आश्वासन के हथकंडे में 
भगवान मुझे तू बतला दे अब क्या है तेरे एजंडे में
 
 ना मेरे पास पता तेरा, ना ही है मोबाइल नंबर अपनी ईमेल आईडी दे ,फिर चैट करूंगा मैं जी भर 
 मैं सभी समस्या का अपनी, तुझसे निदान करवाऊंगा 
और स्वीगी और जोमैटो से ,तुझ पर प्रसाद चढ़वाऊंगा 
मैं डायरेक्ट अपनी मांगें
रख दूंगा सब तेरे आगे 
विश्वास रहा ना अब मेरा तेरे पंडित या पंडे में भगवान मुझे तू बतला दे ,अब क्या है तेरे एजेंडे में

तेरी पूजा सेवा पानी ,करते यह जीवन गया गुजर 
तूने सुख मुझको भी बहुत दिए और दुख भी बांटे रह रहकर 
यह बचाकुचा जितना जीवन, हंसकर तू सुख से जीने दे 
अब नहीं बीमारी कोई रहे ,मनचाहा खाने पीने दे 
जपते जपते मैं राम नाम 
आ पहुंचूं तेरे पुण्य धाम 
बस दे देना तू मोक्ष मुझे, ना फंसू चौरासी फंदे में 
भगवान मुझे तू बतला दे कि क्या है तेरे एजेंडे में

मदन मोहन बाहेती घोटू

गुरुवार, 29 जून 2023

बूढ़ा बंदर 

वह छड़ी सहारे चलती है, 
मैं भी डगमग डगमग चलता 
फिर भी करते छेड़ाखानी, 
हमसे न गई उच्छृंखलता  

याद आती जब बीती बातें,
हंसते हैं कभी हम मुस्कुराते 
भूले ना भुलाई जाती है ,
वह मधुर प्रेम की बरसाते 
मन के अंदर के बंदर में ,
फिर से आ जाती चंचलता 
वो छड़ी सहारे चलती है ,
मैं भी डगमग डगमग करता 

आ गया बुढ़ापा है सर पर 
धीरे-धीरे बढ़ रही उमर 
लेकिन वो जवानी के किस्से 
है मुझे सताते रह-रहकर 
वह दिन सुनहरे बीत गए, 
रह गया हाथ ही मैं मलता 
वो छड़ी सहारे चलती है ,
मैं भी डगमग डगमग करता 

मुझको तड़फा ,करती पागल 
ये प्यार उमर का ना कायल
उसकी तिरछी नजरें अब भी,
कर देती है मुझको घायल 
कोशिश नियंत्रण की करता ,
बस मेरा मगर नहीं चलता
वो छड़ी सहारे चलती है,
मैं भी डगमग डगमग चलता 

हम दो प्राणी ,सूना सा घर 
एक दूजे पर हम हैं निर्भर 
है प्यार कभी तो नोकझोंक 
बस यही शगल रहता दिनभर 
वह चाय बनाकर लाती है ,
और गरम पकोड़े मैं तलता 
वो छड़ी सहारे चलती है,
मैं भी डगमग डगमग करता

मदन मोहन बाहेती घोटू 

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