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सोमवार, 19 जून 2017

पिताजी आप अच्छे थे 

संवारा आपने हमको ,सिखाया ठोकरे सहना 
सामना करने मुश्किल का,सदा तत्पर बने रहना 
अनुभव से हमें सींचा ,तभी तो हम पनप पाये 
जरासे जो अगर भटके ,सही तुम राह पर लाये 
मिलेगी एक दिन मंजिल ,बंधाया हौंसला हरदम 
बढे जाना,बढे जाना ,कभी थक के न जाना थम 
जहाँ सख्ती दिखानी हो,वहां सख्ती दिखाते थे 
कभी तुम प्यार से थपका ,सबक अच्छा सिखाते थे 
तुम्हारे रौब डर  से ही,सीख पाए हम अनुशासन 
हमें मालुम कितना तुम,प्यार करते थे मन ही मन 
सरल थे,सादगी थी ,विचारों के आप सच्चे थे 
तभी हम अच्छे बन पाए ,पिताजी आप अच्छे थे 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
तीन चौके 
१ 
अभी तो झेलना हमको, कई  तूफ़ान  बाकी  है 
चुकाने लोगों के अब तक,किये अहसान बाकी है 
जिन्होंने पीठ के पीछे,किया है  वार चुपके से ,
बहुत से ऐसे मित्रों की ,अभी पहचान  बाकी  है 
२ 
बड़े स्वादिष्ट होते ,दिल ,सभी का लूटते लड्डू 
अगर पुरसे हो थाली में,नहीं फिर  छूटते  लड्डू 
ख़ुशी,शादी के मौके पर ,सभी में बांटे जाते है,
हसीना कोई मुस्काती  ,तो मन में फूटते लड्डू 
३ 
अभी तक ये मेरी समझ में ये न आया 
 मेरी पोस्ट पर तुमने ,'थम्प्सअप 'लगाया     
ये मेरे विचारों की  तारीफ़ की  है ,
या फिर तुमने मुझको ,अंगूठा दिखाया 

घोटू 

गुरुवार, 15 जून 2017

रंग भेद की दरार

एक गेंहूं है ,एक चावल है ,
दोनों ही सबका पेट भर रहे है
दोनों ही अन्न है ,
पर लोग उनमे अंतर कर रहे है
गेंहूं का रंग भूरा है और चावल सफ़ेद है
इसलिए गेंहूं के साथ ,हमेशा होता रंगभेद है
वह बेचारा गौरवर्णी नहीं,
इसलिए हमेशा उसका दलन किया जाता है
उसे पीसा जाता है ,
उसका उत्पीड़न किया जाता है
और जब वो पिस कर आटे या मैदा जैसा ,
सफ़ेद नहीं हो जाता है
तब ही वो खाने के काम में आता है
हिन्दुस्थान में उससे रोटी,पूरी,परांठा ,
और हलवा बनाते है
विदेशी उसकी ब्रेड ,नूडल ,पिज़ा और पास्ता ,
बना कर खाते है
गेंहू ,अपना आकार खोकर  ,
हमेशा देते है अपना बलिदान
और सबका पेट भरते है ,
सेवा भावी है महान
पर फिर भी पूजा में उसे कलश के नीचे बिछाते है
और गौरवर्णी चावल को ,प्रभु पर चढ़ाते है
गेहूं पिस कर होता है क्षत विक्षत
और चावल रहता है अक्षत
गोरा,सफ़ेद ,सुन्दर,
पूरा का पूरा ही  पकाया जाता है
कभी पुलाव,कभी बिरयानी ,और अक्सर,
सादा  ही खाया जाता है
खिली खिली सी उसकी रंगत ,
और उसकी मुलायम सी सूरत
अनोखा स्वाद देती है ,जो मन को भाता है
और जब उसे दूध में पकाते है ,
तो खीर बन कर चौगुना स्वाद आता है
कभी मीठे केसरी भात ,
या कभी खिचड़ी बना कर उसे जाता है परोसा
तो कभी उससे इडली बनती है
और कभी बनता है डोसा
मस्तक पर तिलक लगा कर अक्षत से सजाते है
चावल के खाने को राजसी बतलाते है
देख कर के इस तरह का रंग भेद
और पक्षपाती व्यवहार
गेंहूं के मन में पद गयी है दरार
जिसका असर बाहर से भी
,उसके हर दाने पर है दिखता
जाने कब जायेगी ,हमारे दिलों से,
रंगभेद की ये मानसिकता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

     बच्चों को बचपन जीने दो

आज बच्चों की ये हालत हो गयी है
बचपने की मौज मस्ती खो गयी है
कॉम्पिटिशन से डरे,सकुचाये मन में
आज बच्चे ,जी रहे है ,टेंशन में
माँ पिता भी जाने क्या क्या सोचते है
अपने सपने,बच्चो पर वो थोपते है
कार्बाइड से पके ज्यों आम कच्चा
ले रहा इस तरह कोचिंग हरेक बच्चा
कभी हमने भी तो था बचपना जिया
माँ की छाती  से लगे थे ,दूध पिया
बोतलों का उन दिनों  फैशन नहीं था
मातृत्व से बड़ा तब  यौवन  नहीं था
लोरियां सुनते थे आती नींद तब थी
पालने में झूलने की उमर  जब थी
उन दिनों ना क्रेच थे ना नर्सरी थी
घर की रौनक ,भाई बहनो से भरी थी
 जिद पे आते ,रखते थे सबको नचा के
खेलते थे ,झुनझुना ,खुश हो बजा के
 सीधासादा  ,प्यारा सा ,बचपन वही था
हाथ में बच्चों के  मोबाईल नहीं था
बड़े हो स्कूल जब जाने लगे हम
गिल्ली डंडा और कबड्डी ,खेले हरदम
स्कूलों में ही सिर्फ करते थे पढाई
नहीं कोचिंग या कोई ट्यूशन लगाईं
फर्क इतना आगया हालात में अब
एक मोबाईल सभी के हाथ में अब
उसी पर ऊँगली घुमाकर व्यस्त रहता
पढाई के बोझ से वो त्रस्त रहता
कॉम्पिटिशन भूत सर पर चढ़ रहा है
खेलता ना,सिर्फ बच्चा पढ़ रहा है
डॉक्टर ,इंजीनियर सब चाहे बनना
इसलिए दिनरात पड़ता उन्हें खटना
और फिर भी कितने है जो चूक जाते
उनके देखे ,सभी सपने ,टूट जाते
और 'डिप्रेशन' उन्हें फील सालता है
मगर इसमें उनकी होती क्या खता है
सब के सब उत्तीर्ण तो हो नहीं सकते
बोझ क्षमता से अधिक ढो नहीं सकते
अतः बेहतर,नहीं थोंपे खुद को उन पर
मन मुताबिक़ ,बनाने दे ,अपना फ्यूचर
बोझ ज्यादा ,पढाई का ,नहीं लादें
जीने उनको ,प्रेम से निज बचपना दे
क्योंकि बचपन ,नहीं आता लौट कर है
जिंदगी की,सबसे प्यारी ,ये उमर  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


सभी को अपनी पड़ी है
सभी को अपनी पड़ी है ,
कौन किसको पूछता है
पालने को पेट अपना,
हर एक बंदा जूझता है
कोई जुट कर जिंदगी भर ,
है सभी साधन जुटाता
कोई पाता विरासत में ,
मौज जीवन भर मनाता
कोई जीवन काटता है,
कोई जीवन जी रहा है
कोई रहता है चहकता ,
कोई आंसू पी रहा है
अपनी अपनी जिंदगी का,
नज़रिया सबका अलग है
कोई तो है मस्त मौला ,
कोई चौकन्ना,सजग है
कोई जाता मंदिरों में ,
लूटने दौलत धरम की
ये जनम तो जी न पाता ,
सोचता अगले जनम की
गंगाजी में लगा डुबकी,
पाप कोई धो रहा है
और वो इस हड़बड़ी में,
आज अपना खो रहा है
कोई औरों के फटे में ,
मज़ा लेकर झांकता है
अपनी कमियों को भुलाकर ,
दूसरों की ,आंकता है
नहीं नियति बदल सकती ,
भाग्य के आधीन सब है
उस तरह से नाचते है ,
नचाता जिस तरह रब है
बहा कर अपना पसीना ,
तुमने जो दौलत कमाई
वो भला किस कामकी जो ,
काम तुम्हारे न आयी
इसलिए अपनी कमाई,
का स्वयं उपभोग कर लो
जिंदगी जितनी बची है,
उतने दिन तक मौज कर लो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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