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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

 बदकिस्मती

मेरी बदकिस्मती की इंतहां अब और क्या होगी ,
       कि जब भी 'केच' लपका ,'बाल' वो 'नो बाल 'ही निकली
ख़रीदे टिकिट कितने ही ,बड़ी आशा लगा कर के,
          हमारी  लॉटरी  लेकिन ,नहीं  एक  बार ही  निकली
हमेशा जिंदगी में एक ऐसा दौर आता है ,
            हमे  मालूम  पड़ता जब कि क्या होती है बदहाली
सिखाता वो रहा हमको ,कि कैसे जीते मुश्किल में ,
               और हम व्यर्थ में  उसको ,यूं  ही  देते  रहे गाली
  
 घोटू
                      

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

गूगल पर सब कुछ मिल जाता

       गूगल पर सब कुछ मिल जाता

गूगल पर सब कुछ मिल जाता ,बस माँ बाप नहीं मिलते है
 आशीषों  की  वर्षा  करते  ,     बस वो हाथ नहीं   मिलते है
जानकारियां दुनिया भर की ,बटन दबाते, मिल जाती है
'गूगल अर्थ 'खोल कर देखो ,सारी  दुनिया  दिख जाती है
खोल 'फेसबुक',यार दोस्त से ,जितनी चाहो,बातें करलो
और 'ट्विटर' पर ,मन की बातें ,सारी कह,जी हल्का करलो
शादी का 'पोर्टल' खोलो तो ,ढूढ़ सकोगे  दूल्हा, दुल्हन
'स्काइप' पर ,साथ बात के ,कर सकते हो,उनका दर्शन
घर बैठे ही,दुनिया भर की ,शॉपिंग करना अब मुमकिन है
 जिसको चाहो,लाइन मारो ,सब कुछ यहाँ 'ऑन लाइन' है
पर दिल का अंदरूनी रिश्ता ,और जज्बात नहीं मिलते है
गूगल पर सब कुछ मिल जाता ,बस माँ बाप नहीं मिलते है
अब 'ई मेल' लिखी  जाती है ,प्रेम पत्र कर गए पलायन
दुनिया भर की ,हर घटना का ,होता है 'लाइव' प्रसारण
टिकिट सिनेमा,रेल,प्लेन के ,बुक हो जाते ,सभी यहाँ है
'जी पी एस' बता देता है ,मौजूद बन्दा ,कौन , कहाँ  है  
'व्हाट्स ऐप' पर,अपने ग्रुप की, सारी बातें ,करलो शेयर
अपने फोटो ,सेल्फी भेजो, बस लगता है ,केवल  पलभर
हर पेपर की,हर चैनल की,सारी  खबरें ,मिल जाती है
'लाइव क्रिकेट ''मैच देख कर,सबकी तबीयत खिल जाती है  
हो जाता  दीदार  आपका ,लेकिन  आप  नहीं  मिलते है
गूगल पर सबकुछ मिल जाता,बीएस माँ बाप ,नहीं मिलते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

सब नंगें है

      सब नंगें है

कपड़े उतारते है हम या तो  हमाम मे
खुद का जिसम निहारते ,शीशे के सामने
या फिर सताया करता जब गर्मी का मौसम
तब सुहाते है ,जिस्म पे ,कपड़े भी कम से कम
या मिलते है जब प्रेमी और होती मिलन की रात
कपड़े अगर हो दरमियाँ ,बनती नहीं है बात
लेकिन है अब माहौल कुछ  ऐसा बदल गया
कपड़े उतारने का एक फैशन सा चल गया
कुछ बाबाओं के गंदे जो धंधे थे ,खुल गए
कहते है लोग ,उनके सब कपड़े उतर गए
कुछ लोग नंगे हो रहे ,जात ओ धरम नाम
कुछ मिडिया भी कररहा है इस तरह का काम
फैशन के नए ट्रेंड ने भी कुछ कपड़े है  उतारे
कुछ कपड़े यूं ही उतरे , है  मंहगाई के मारे
नंगई  इस तरह से है सब और  बढ़ रही
सड़कों पे औरतों की है अस्मत उघड रही
आतंक ,लूट मार और  दंगे  है हो  रहे
दुनिया के इस हमाम मे ,सब नंगे हो रहे
 
घोटू

मेरी माँ

मेरी माँ

ये  मेरी माँ है ,प्यारी सी माँ है
मुझ से प्यार करती है ,मुझ पे मेहरबाँ है
उमर नब्बे के पार है
थोड़ी कमजोर और लाचार है
फिर भी हर काम करने को  तैयार है
कृषकाय शरीर में नहीं दम है
मगर हौंसले कहीं से भी नहीं कम है
घर में जब भी हरी सब्जी जैसे ,
मैथी,पालक या बथुआ आता है
वो खुश हो जाती है क्योंकि ,
उसे करने को कुछ काम मिल जाता है
वो एक एक पत्ता छांट छांट कर सुधारती है
मटर की फलियों से दाने निकालती है
ये सब करके उसे मिलता है संतोष
उसमे आ जाता है वही पुराना जोश 
हर काम करने के लिए आगे बढ़ती है
मना करो तो लड़ती है
जब हम कहते है कि अब आप की ,
ये सब काम करने की उमर नहीं है माता
तो वो कहती है कि कहने में क्या है जाता
काम करने की जिद कर  ,करती परेशाँ है
        ये मेरी  माँ है ,प्यारी सी माँ है                 
जब भी कोई मेहमान आता है
उसे बहुत सुहाता है
उनकी बातों में पूरी दिलचस्पी लेती है
बीच बीच में अपनी राय भी देती है
बहन,बेटियां या बहुए जब सामने पड़ती है
ये उनका ऊपर से नीचे तक निरीक्षण करती है
और अगर उनके हाथों में नहीं होती चूड़ियां
या पावों में न हो बिछूडियां
या फिर नहीं हो बिंदिया माथे पर
तो फिर ये लेती है उनकी खबर
उसे शुरू से ही छुवाछूत ,
व जातपात का बड़ा ख्याल है
इसलिए आज के जमाने में ,
इस मामले में उसका बुरा हाल है 
हालांकि समय के साथ साथ ,
उसे थोड़ा कम्प्रोमाइज करना पड़ा है 
और  उसका परहेज कड़ा है
  फिर भी दुखी रहती ख्वामखां   है
        ये मेरी माँ है ,प्यारी सी माँ है                       
रह रह के नींद आती है
बार बार उचट जाती है
जग जाती तो गीता या रामायण पढ़ती है
और पढ़ते पढ़ते फिर सोने लगती है
 खुद ही करती है अपने सब काम
आत्मविश्वास और स्वाभिमान
ये है उसकी पहचान
कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया
सब के लिए ,सब कुछ ,
सच्चे दिल से लुटाया
न पक्षपात है न बैरभाव है
सबके लिए मन में समभाव है
त्योंहार मनाने का चाव है
कब क्या पूजा करना व चढ़ाना
किस दिन क्या खाना बनाना
विधिविधान सी मनाती है हर त्योंहार
रीतिरिवाजों का उसके पास है भण्डार
यूं तो बुढ़ापे में कमजोर हो गई है याददास्त
पर अब भी याद है पुरानी सब बात
सुबह सूर्य को अर्घ्य देना,
या तुलसी को पानी चढ़ाना
शाम  और सवेरे ,
मंदिर में दीपक जलाना
पूजाघर में  चढ़ाना प्रसाद
खाने के पहले निकालना गौग्रास
बुढ़ापे में यही उसकी पूजा है
ये मेरी माँ है,प्यारी सी माँ है  
भूख कम लगती है
फिर भी खाने की कोशिश करती है
थाली में सब चीजें पुरुसवाती है
मगर खा नहीं पाती है
दांत बहुत कम रह गए है
 इसलिए चबा नहीं पाती है 
बहुत  पीछे पड़ने पर ,
थोड़ा बहुत निगल लेती है
रोटी के टुकड़ों को,
 कटोरी के नीचे छुपा देती है
और एक मासूम सी ,
मजबूरी भरी मुस्कान लिए ,
सारा खाना जूठा छोड़ देती है
और फिर  रौब  से कहती है ,
जितनी भूख है उतना खा पी रही हूँ
नहीं तो बिना खाये पीये ,
क्या ऐसे ही जी रही हूँ
सुबह और शाम उसकी
 स्पेशियल चाय बनती है  
एक कप में तीन चीनी चम्मच डलती है
इतनी है स्वाद की मारी
जरासा नमक या मिर्च कम हो
तो रिजेक्ट है चीजें सारी
जब एकादशी का व्रत करती है
तो फिर उसे बिलकुल भी भूख ना लगती है
वो सब पर ममता बरसाती है
अपना प्यार लुटाती है
उसने भगवान से अपने लिए कुछ नहीं माँगा
जो भी माँगा ,परिवार की ख़ुशी के लिए माँगा
वो सब पर अपना प्यार बांटती है 
नाराज होती है तो डाटती है
खुश होकर जब मुस्काती है
अपने स्वर्णदंत चमकाती है
उसके सब बच्चे ,अपने अपने घर सुखी है ,
इसलिए हमेशा उसकी आँखों  में संतोष झलका है
ये मेरी माँ है ,प्यारी सी माँ है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

अच्छे दिनों का संकेत

        अच्छे दिनों का संकेत

निकल कर के बिलों से सांप जो ये फनफनाते है
हमे बदलाव के लक्षण ,नज़र स्पष्ठ    आते  है

बिलों में छुपने वालों में ,संपोले ,नाग कितने है,
   बड़ा मुश्किल हुआ करता ,इन्हे पहचान यूं पाना
जरूरी इसलिए ये था ,निकाले जाय ये बिल से ,
    बिलों में जब भरा पानी ,पड़ा इनको निकल आना
निकल आये है ये विषधर ,बिलों से अपने जब बाहर ,
    कोई ना कोई लाठी तो ,कुचल  ही देगी ,इनका फन
हुई जमुना थी जहरीली ,जहाँ पर वास था इनका,
     कोई कान्हा फनों पर चढ़,करेगा कालिया मर्दन
जो तक्षक ,स्वांग रक्षक का ,धरे भक्षक बने सब थे ,
      परीक्षित को न डस पाएंगे ,ले कोशिश कितनी कर
बिलों में जो दबा कर के ,रखी थी नाग मणियां सब ,
      निकलते ही सब निकलेगी ,सबर रखना पड़ेगा पर
किसीने दक्षिणा इतनी ,दिला दी नारदो  को है  ,
       उन्ही का कर  रहे कीर्तन,उन्ही के गीत गाते है
उन्ही की शह पे फुँफकारा ,किया करते संपोले कुछ,
       है बूढ़े नाग चुप बैठे  ,समझ अपनी दिखाते है
तुम्हे क्या ये नहीं लगता ,बदलने वाला है मौसम ,
      घटाएं  आसमां में छा रही थी ,हट रही  सब है
उजाले की किरण ,रोशन हमारा नाम है करती,
       हमे विश्वास अच्छे दिन ,शीघ्र ही आ रहे  अब है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   
         

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