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मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

पत्नी -सौ टंच खरा सोना

    पत्नी -सौ टंच खरा सोना

मैं पति हूँ,
दुनिया का सबसे निरीह प्राणी
जिसे जली कटी ,
सिर्फ सुननी ही नहीं पड़ती ,
जलीकटी पड़ती भी है खानी
और वो भी तारीफ़ कर कर  के
रहना पड़ता है डर डर के
ये पति शब्द ही एसा  है,
जो 'विपति ' से जुड़ा है
इसलिए उसका रंग ,
हमेशा रहता उड़ा है
पत्नियां पुचकार करके
थोड़ा सा प्यार कर के,
पति को पटाया करती है
बेवकूफ बनाया करती है
और वो भी ख़ुशी ख़ुशी ,
बेवकूफ बन जाता है
उसे ,इसमें भी मज़ा आता है
उनका कभी कभी प्यार से 'डियर' कहना ,
बड़ा 'डीयर',याने मँहगा पड़ने वाला है ,
ये सन्देशा है
और जिस दिन वो प्यार से कहे 'जानू',
समझ लो ,जान और माल ,
दोनो की हानि का अंदेशा है
और जब वो'जरा सुनिए'कह कर बुलाती है
तो समझलो ,कोई आदेश सुनाती है
अपनी सहेलियों के बीच ,जब यह कह कर ,
कि 'हमारे ये तो बड़े सीधे है '
आपका गुणगान करती है
तो वह अपने वर्चस्व का बयान करती है 
 उनके हाथों का बनाया हुआ कोई भी खाना,
आपको 'टेस्टी'पड़ता है बतलाना
और जब वो सजधज कर,तैयार हो कर,
आपसे पूछे कि 'मै लग रही हूँ कैसी'
आपको तारीफ़ करनी ही पड़ती है ,
वरना हो जाती है ऐसी  की तैसी
कभी आइना देखकर वो बोले
क़ि 'सुनोजी ,लगता है मैं हो रही हूँ मोटी'
मरा बजन बढ़ रहा है '
तो खैरियत इसी में है की आप कहें,
'अब तुम  कली से फूलबन कर खिल रही हो,
तुमपर यौवन चढ़ रहा है'
कभी भी आपकी चलने नहीं देती ,
घर का हर फ़ैसला लेनेवाली,वो सरपंच होती है
पर ये बात भी सही है
आपकी सबसे बड़ी हितेषी भी वही है ,
वो खरा सोना है ,सौ टंच होती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

मै क्या पहनूं ?

       मै क्या पहनूं ?

अल्मारी में भरे हुए है,
कितने कपड़े ,कितने गहने
पर बाहर जाने के पहले ,
पत्नीजी ने हमसे पूछा ,
'हम क्या पहने ?
हम ने धीरे से कह डाला
'कुछ ना पहनो '
काहे को तुम करती हो,
 इतनी  माथापच्ची
बिन कुछ पहने भी तुम,
 मुझको लगती अच्छी
क्यों कपड़ों का बोझ,
 उठाती हो तुम तन  पर
वैसे ही साम्राज्य तुम्हारा,
 मेरे मन पर
लाख आवरण में ढक  लो ,
पर छुप ना पाती ,
तुम्हारे तन का ,
ये सौष्ठव और सुगढ़ता
सभी रूप मे तुम
 मुझको प्यारी लगती हो ,
कुछ भी पहनो ,
मुझको कोई फरक ना पड़ता

घोटू  
 

गुब्बारा

गुब्बारा

मै गुब्बारा ,हवा है तू ,
अगर मुझमे समाएगी
ख़ुशी से फूल ,हो पागल ,
हवाओं में उड़ेंगे हम
कोई नन्हा ,हमे बाहों में,
ले लेकर के चहकेगा ,
जरा सा जो चुभा काँटा ,
न तुम होगी,न होंगे हम

घोटू

वाह वाही

        वाह  वाही

कभी कभी ,ज्यादा वाहवाही
भी ला सकती है तबाही
गर्व के मारे आदमी ,
गुब्बारे सा फूल जाता है
अपने परायों का भेद भूल जाता है
पर जरा सा काँटा चुभने पर,
जब गुब्बारा फूटता है
तब भरम टूटता है
पर तब तक ,
बड़ी देर बड़ी हो चुकी होती है
पर क्या करें ,
वाहवाही आदमी की ,
सबसे बड़ी कमजोरी होती थी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

कोई छेड़े बुढ़ापे में

         कोई छेड़े बुढ़ापे में

बहुत सी आग होती है ,जवां सूरज के सीने में ,
मगर जब ढलने लगता तो नजारे और होते है
कली खिलती ,महकती है तो मंडराते कई भंवरें,
मगर मुरझाए फूलों के वो प्यारे और  होते है
बहारों में ,दरख्तों पर ,अलग ही नूर होता है ,
मज़ा तब है कि पतझड़ में भी ,वो हमको लगे प्यारे
सभी के मन लुभाती ,हर हसीना है जवानी में,
मज़ा आता बुढ़ापे में  ,कोई लाइन  जब मारे
चाहने वालों की जिनकी ,बड़ी फेहरिश्त होती थी ,
सुने फिकरे जवानी में ,न जाने कितने दिल तोड़े
बुढ़ापे में भी रह रह कर ,सताया करती  है उनको,
जवानी वाली वो यादें ,कभी पीछा  नहीं छोड़े
गयी रौनक ,गयी मस्ती ,उमर का मोड़ ये ऐसा ,
अगर इसमें भी दीवाना ,कोई  दिल को लुटाता है
तसल्ली मिलती है दिल को ,अभी भी बाकी हम में दम ,
शगल ये छेड़खानी का ,बड़ा दिल को सुहाता  है
किसी ने मुस्करा कर के ,अगर दो बात जो करली ,
न पड़ता फर्क मियां को ,न दुनिया को ही होता शक
भले तन में नहीं हिम्मत ,बदलना स्वाद पर चाहें ,
दबी दिल की तमन्नाएं ,भड़कती रहती है जब तब
पुराने राजमहलों की भी अपनी शान होती है ,
करे तारीफ़ कोई तो,दीवारें मुस्कराती है
हम हंस हंस कर उठाते है ,मज़ा ये छेड़खानी का ,
हमें बीती हुई अपनी  ,जवानी  याद आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

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