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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

डिजिटल ज़माना

         डिजिटल ज़माना
ये जमाना अब डिजिटल हो गया है
वो भी तेरह मेगापिक्सल हो गया है
पहले होता बॉक्स वाला कैमरा था,
         ब्लेक एंड व्हाइट सदा तस्वीर खिंचती
हुई शादी ,तब हुआ रंगीन जीवन ,
         कलरफुल थी तब हमारी छवि दिखती
कैमरे की रील के छत्तीस फोटो,
         जब तलक खिंचते नहीं थे,धुल न पाते
और फिर दो तीन दिन में प्रिंट मिलते ,
          तब कहीं हम फोटुओं को देख पाते
कौन अच्छा,कौन धुंधला ,छाँट कर के,
            एल्बम में उन्हें जाता था सजाया
कोई आता,खोल कर एल्बम ,उनको,
            था बड़े उत्साह से जाता  दिखाया
अब तो मोबाइल से फोटो खींच,देखो,
            नहीं अच्छा आये तो डिलीट कर दो
अच्छा हो तो फेसबुक में पोस्ट कर दो,
    या कि फिर 'व्हाट्सऐप'में तुम फीड करदो   
जब भी जी चाहे स्वयं की सेल्फ़ी लो ,
    मेमोरी में कैद हर पल हो गया  है
    ये जमाना अब डिजिटल हो गया है
याद अब भी आता है हमको जमाना ,
           होता था इवेंट  जब फोटो खिचाना
खूब सजधज कर के स्टुडिओ जाना,
         फोटोग्राफर ,चीज बोले,मुस्कराना
सबसे पहला हमारा फोटो खिंचा था,
         जब हमारा जन्मदिन पहला मनाया
फॉर्म हाई स्कूल के एग्जाम का जब ,
          भरा था, तब दूसरा फोटो   खिंचाया   
तीसरा फोटो हमारा तब खिंचा था,
          बात शादी की हमारी  जब चली थी   
बड़े सज धज ,चौथा फोटो खिंचाया जब,
        बीबी की फरमाइशी  चिट्ठी मिली थी
और जब से हुई शादी ,उसी दिन से ,
        रोज ही खिंच रही है फोटो  हमारी
गनीमत है फोन अब स्मार्ट आया ,
       हो गयी है जिंदगी ,खुशनुमा ,प्यारी
बात करलो,देखो दुनिया के नज़ारे ,
दोस्त अब तो अपना गूगल  हो गया है
जमाना तो अब डिजिटल हो गया है
वो भी तरह मेगापिक्सल हो गया है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

रविवार, 16 अगस्त 2015

मैं अब भी हूँ तुमसे डरता

  मैं अब भी हूँ तुमसे डरता

आया बुढ़ापा ,बिगड़ी सेहत
मुझसे अब ना होती मेहनत
 मैं ज्यादा भी ना चल पाता
और जल्दी ही हूँ थक जाता
जब से काटे अग्नि चक्कर
स्वाद प्यार का तेरे चख कर 
बना हुआ तब से घनचक्कर
आगे पीछे   काटूं   चक्कर
इसी तरह बस जीवन भर मैं
नाचा खूब इशारों पर मैं
मुझमे अब सामर्थ्य नहीं
लेकिन इसका अर्थ नहीं है
मेरा प्यार हो गया कुछ कम
हाजिर  सेवा में हूँ  हरदम
इस चक्कर से नहीं उबरता 
मैं अब भी हूँ तुमसे डरता
अब भी हूँ मैं तुम पर मोहित
अब भी तुम पर पूर्ण समर्पित
वैसा ही पगला दीवाना
आशिक़ हूँ मैं वही पुराना
 भले हो गयी कम तत्परता 
तुम बिन मेरा काम न चलता
पका तुम्हारे हाथों  खाना
अब भी लगता मुझे सुहाना
स्वाद तुम्हारे हाथों में है
मज़ा तुम्हारी  बातों में है
तुम्हारी मुस्कान वही है
रूप ढला ,पर शान वही है
अब भी तुम उतनी ही प्यारी
पूजा  करता  हूँ    तुम्हारी
नित्य वंदना भी हूँ करता 
मैं अब भी हूँ तुम से डरता
साथ जवानी ने है छोड़ा
अब मैं बदल गया हूँ थोड़ा
सर पर चाँद निकल आयी है
काया भी कुछ झुर्रायी है
और तुम भी तो बदल गयी हो
पहले जैसी रही नहीं हो
हिरणी जैसी चाल तुम्हारी
आज हुई हथिनी सी प्यारी
ह्रष्ट पुष्ट और मांसल है तन
और ढलान पर आया यौवन
रौनक ,सज्जा साज नहीं है
 जीने का अंदाज  वही  है
वो लावण्य रहा ना तन पर
लेकिन फिर भी तुम्हे देख कर 
ठंडी ठंडी  आहें भरता
मैं अब भी हूँ तुमसे डरता
भले पड गयी तुम कुछ ढीली
पर उतनी ही  हो रौबीली
चलती हो तुम वही अकड़ कर
काम कराती सभी झगड़ कर
मैं झुकता  तुम्हारे आगे
पूरी करता सारी  मांगें 
 कभी कभी ज्यादा तंग होकर
जब गुस्से से जाता हूँ भर
उभरा करते विद्रोही स्वर
तो करीब तुम मेरे आकर
अपने पास सटा  लेती हो
करके प्यार,पटा  लेती हो
झट से पिघल पिघल मैं जाता 
तुम्हारे  रंग में   रंग जाता 
 चाल  पुरानी पर हूँ चलता
मै अब भी हूँ तुमसे डरता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सेल्फ़ी

             सेल्फ़ी

कोई दूसरा जब लेता है ,फोटो खिंच जाना कहते है
खुद अपनी फोटो जब लेते,उसे सेल्फ़ी हम कहते है
अपना काम कोई जब करता,नहीं किसी पर हो अवलम्बित
मदद दूसरों की लेने की ,नहीं जरुरत पड़ती किंचित
सेल्फ़ी जैसे मन मर्जी से ,खुद ही पकाओ ,खुद ही खाओ
औरों से फोटो खिंचवाना ,  जैसे होटल में जा खाओ
अपने आसपास वाले भी ,सब निग्लेक्ट हुआ करते है
खुद कैसे हो बस ये दिखता,आप आत्म दर्शन  करते है
फेमेली फोटो होती था ,जब सब रहते संग में मिलजुल
अब एकल परिवार सिमट कर,हुआ सेल्फ़ी जैसा बिलकुल
सेल्फ़ी में वो ही आ पाता ,जितनी दूर हाथ है जाते
सेल्फ़ी बड़ी सेल्फिश होती ,आस पास वाले कट जाते
होता है संकीर्ण दायरा ,सेल्फ़ी के कुछ लिमिटेशन है
आत्मकेंद्रित हम होते है,फिर भी सेल्फ़ी का फैशन है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

हम दोनों

         हम दोनों
अहंकार से एक भरा ,एक है चारा चोर
पहला है छप्पन छुरी ,और दूजा मुंहजोर
एक भालू उल्टा चढ़े,एक गुर्राता  बाघ,
एक पीना चाहे शहद,और एक सत्ताखोर
दोनों ही घबरा रहे,आया बब्बर शेर ,
इसीलिए है हो गया ,दोनों में गठजोड़
बिल्ली मौसी खा गयी,बुरी तरह से मात ,
वो भी है संग आ गयी,सभी हेकड़ी छोड़ 
एक खुद को चदन कहे,और दूजे को सांप ,
दोनों ही विष उगलते ,मचा रहे है शोर
एक दूजे को गालियां,देते थे जो रोज,
शुरू हो गया दोस्ती ,का अब उनमे दौर
दोनों ही है पुराने ,घुटे हुए और घाघ ,
राजनीति डी.एन.ऐ.,दोनों का कमजोर
उत्तर गए मैदान में,सबने  कसी लंगोट,
सब के सब है कह रहे'ये दिल मांगे मोर'

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कैसे कह दें हम है स्वतंत्र ?

       कैसे कह दें हम है स्वतंत्र  ?

बचपन में मात पिता बंधन,
               मस्ती करने पर मार पड़े
फिर स्कूल के अनुशासन में,
               हम बेंचों पर भी हुए खड़े
जब बढे हुए तो पत्नी संग ,
               बंध  गया हमारा गठबंधन
 बंध कर बाहों के बंधन में ,
           करदिया समर्पित तन और मन  
उनके बस एक इशारे पर ,
           नाचा करते थे सुबह शाम
वो जो भी कहती,हम करते ,
          इस कदर हो गए गुलाम    
फिर फंसे गृहस्थी चक्कर में ,
          और काम काज में हुए व्यस्त
कोल्हू के बैल बने,घूमे,
           मेहनत कर कर के हुए पस्त
फिर बच्चों का लालन पालन ,
           उनकी पढ़ाई और होम वर्क
बंध  गए इस तरह बंधन में,
            बेडा ही अपना हुआ गर्क
जब हुए वृद्ध तो है हम पर 
            लग गए सैंकड़ो  प्रतिबन्ध
डॉक्टर बोला है डाइबिटीज ,
             खाना मिठाई अब हुई बंद
बंद हुआ तला खानापीना ,
              हम ह्रदय रोग से ग्रस्त हुए
उबली सब्जी और मूंग दाल ,
             हमरोज रोज खा त्रस्त हुए
आँखे धुंधलाई ,सुंदरता का ,
                    कर सकते दीदार नहीं
चलते तो सांस फूलती है,
              कुछ करने तन तैयार नहीं
तकलीफ हो गयी घुटनो में,
              और तन के बिगड़े सभी तंत्र
बचपन से लेकर मरने तक,
               बतलाओ हम कब है स्वतंत्र
थोड़े बंधन थे सामाजिक,
                तो कुछ बंधन  सांसारिक थे
कुछ बंधन बंधे भावना के,
                कुछ बंधन पारिवारिक थे
हरदम ही रहा कोई बंधन ,
                हम अपनी मर्जी चले नहीं
और तुम कहते ,हम हैं स्वतंत्र ,
                ये बात उतरती   गले नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'      

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