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बुधवार, 10 जून 2015

जवानी के वो दिन

      जवानी के वो दिन

है याद जवानी के वो दिन ,था रूप तुम्हारा मायावी
मैं था दीवाना जोश भरा,अब उम्र हुई मुझ पर हावी
लेकिन मेरे दीवानेपन, का अब भी है वो ही आलम
है प्यार बढ़ गया उतना ही,जितना कि जोश हुआ है कम
अपनी धुंधलाई आँखों से ,तुम मुझे देखती मुस्का कर
मैं तब भी होता था पागल,मैं अब भी होता हूँ पागल
जब जब  भी हाथ पकड़ता हूँ  ,स्पर्श तुम्हारा मैं  पाता
बिजली सी दौड़ा करती है ,तन भी सिहरा सिहरा जाता
ये वृक्ष अभी भी खड़ा तना ,पर हरे रहे अब पान  नहीं
 फिर भी देते है मंद पवन ,माना लाते  तूफ़ान  नहीं
ये पुष्प भले ही सूख गए ,पर खुशबू अब भी है बाकी
मदिरा उतनी ही मादक है ,वो ही प्याला ,वो ही साकी
ये बात भले ही दीगर है,पीने की उतनी  ललक नहीं
गरमी अब भी अंगारों में ,माना की उतनी दहक नहीं
क्या हुआ अगर मै झुर्राया ,और त्वचा तुम्हारी है रूखी
उतना ही दूध गाय देती,हो घास हरी या   फिर  सूखी
सब जिम्मेदारी निपट गयी ,बच्चे खुश अपने अपने घर
अब बचे हुए बस हम और तुम,अवलम्बित एक दूसरे पर
अब भूल गए सब राग रंग,जीवन के बदले रंग ढंग
अब शिथिल हो रहे अंग अंग,और रूठ गया हमसे अनंग
ढल गयी जवानी,जोश गया ,मस्ती का मौसम बीत गया
आओ हम फिर से शुरू करें ,जीवन जीने का दौर  नया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

मंगलवार, 2 जून 2015

जल कितना नायाब हो गया

       जल कितना नायाब हो गया

 ये क्या  आज जनाब हो गया ,मिले शुद्ध जल,ख्वाब हो गया
  आबो हवा इस तरह बदली ,जीवन बड़ा , खराब हो गया
             बिकता आज ,बंद बोतल में ,जल कितना नायाब हो गया
मिला दूध संग ,दूध बन गया ,बहा गंदगी संग बन नाली
जिस रंग मिलता,उस रंग रंगता ,इस पानी की बात निराली
                मीठा कभी,कभी खारा है, मादक कभी शराब हो गया
सत्तर प्रतिशत पानी तन में ,फिर भी तन ,पानी को तरसा 
उड़ा ग्रीष्म में बादल बन कर,बारिश में रिमझिम कर बरसा
             बहा ले गया कितनो को ही ,उग्र हुआ ,सैलाब बन गया
पानी मिला ,लहू के संग तो,दौड़ गया ,तन की नस नस में
पानी ने ,खाना पचवाया ,  मिल कर आमाशय  के  रस में         
                 थोड़ा बन कर बहा पसीना ,बचा हुआ पेशाब हो गया
सुख में आँखों को पनियाया ,दुःख में आंसू बनकर टपका
कभी बहा बन गंगा ,जमुना ,सागर से मिलने को लपका
            सहमा रहा कभी कूवे में,और कभी तालाब बन गया
खेतों में ,बीजों को सींचा ,तो वह फसल बना ,लहलाया
बगिया में जब गया घूमने ,क्यारी क्यारी को महकाया
             नाचा कभी,जूही बेला संग ,तो फिर कभी गुलाब बन गया
कोई पीता  चुल्लू  भर कर,कोई डूबता चुल्लू भर में
कोई होता पानी पानी,कभी शरम में,या फिर डर में
                 पानी अगर ,चढ़ा चेहरे पर ,तो वह रूप,शबाब बन गया
पूजा में ,स्नान ध्यान में ,खानपान में जल का सम्बल
मंदिर में चरणामृत बनता ,शिवशंकर को चढ़ता है जल
              देख चाँद को उछला करता ,विष्णु का  आवास  हो गया
मैल दूसरों  का  हर लेता ,चाहे  खुद  हो  जाता  मैला
जल है अमृत ,जल है जीवन ,जलन मिटाता है अलबेला
            जम कर बरफ,वाष्प ऊष्मा से ,नारियल में छुप,डाब हो गया
             बिकता  आज बंद बोतल में ,जल कितना ,नायाब हो गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

हवा हवाई

              हवा हवाई

हवा कुछ इस तरह से आजकल बदली जमाने की
हवा सब हो गयी है  संस्कृति , रिश्ते  निभाने  की
कमाए चार  पैसे क्या ,  हवा में   लोग उड़ते है
हवा सारी  निकल जाती ,हक़ीक़त से जो जुड़ते है 
बनाते है हवाई  जो किले ,और कुछ  नहीं  करते 
हवा थोड़ी सी भी बदली ,   पतंगों की तरह कटते 
हवाबाजी दिखाते है ,बने अफसर जो  दफ्तर में
हवा उनकी खिसकती है ,पत्नी के सामने ,घर में
हवा के रुख के संग चलना ,समझदारी है कहलाता
हवा में जो उड़ा देता ,बड़ो की सीख,  पछताता
हवा जब तेज चलती है ,तो सब कुछ है उड़ा देती
हवा जब मंद बहती है तो मौसम का मज़ा देती
दर्द होता हवा मुंह से ,आह बन कर निकलती है 
उदर का दर्द, जाता जब, हवा नीचे  खिसकती  है
हवा में सांस हम लेते ,न जी सकते ,हवा के बिन
हवा है खुश्क ,हम सबकी,बढे मंहगाई है हर दिन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

लाल मिर्च और तुम

         लाल मिर्च और तुम

हरी ना ,काली ना वो लाल लाल मिर्ची थी ,
   और बस एक ही चुटकी तो डाली थी हमने
सोच कर ये कि तुमको स्वाद ये सुहायेगा,
  पता ना मुंह तुम्हारा इतना क्यों लगा जलने
कहीं कल पान जो खाया था मुंह रचाने को,
   किसी ने उसमे अधिक चूना लगाया होगा
काट ली होगी जुबां और मुंह , चूने ने,
   स्वाद जो तेरे हसीं होठों का पाया  होगा 
या कि फिर तुमने ही काटी जुबान खुद होगी ,
    बड़े चटखारे ले के खा रही थी कल खाना
या कमी तुममे हो गयी  विटामिन डी की,
      रही हो 'ए 'क्लास ही तो तुम ,जाने जाना
ये भी हो सकता है कि लाल लाल होठों ने ,
      जलन के मारे की हो सारी ये नाकाबंदी
घुसे जो लाल कोई चीज जो मुंह के अंदर ,
     लगे मुंह जलने,लगी मिर्च पे यूं पाबंदी
समझ के गोलगप्पा मुझको प्यार करती हो ,
   और रह रह के जब भरती  हो मुंह से सिसकारी
मेरा दिल बावला सा उछल उछल जाता है,
      तुम्हारी ये अदा ,लगती मुझे बड़ी  प्यारी 
इसलिए चाहता था ,चटपटा सा कुछ खाकर ,
     मिलन की आग सी लग जाए तुम्हारे दिल में
हरी ना,काली ना वो लाल लाल मिरची थी,
     और बस एक ही  चुटकी तो डाली थी हमने
सोच कर ये कि तुमको स्वाद ये सुहायेगा ,
      न जाने मुंह तुम्हारा ,इतना क्यों लगा जलने

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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