मैं हूँ पानी
मैं औरों की प्यास बुझाता ,पर मन में तृष्णा अनजानी
मैं हूँ पानी
मधुर मिलन की आस संजोये , मैं कल कल कर ,बहता जाता
पर्वत , जंगल और चट्टानों से ,टकरा निज राह बनाता
तेज प्रवाह ,कभी मंथर गति ,कभी सहम कर धीरे धीरे
कभी बाढ़ बन उमड़ा करता ,कभी बंधा मर्यादा तीरे
कभी कूप में रहता सिमटा ,लहराता बन कभी सरोवर
मुझमे खारापन आ जाता ,जब बन जाता ,बड़ा समंदर
उड़ता बादल के पंखों पर,आस संजोये ,मधुर मिलन की
और फिर बरस बरस जाता हूँ,रिमझिम बूंदों में सावन की
तुम जब मिलती ,बाँह पसारे ,मेरा मन प्रमुदित हो जाता
तुम शीतल प्रतिक्रिया देती,तो मैं बर्फ बना जम जाता
कभी बहुत ऊष्मा तुम्हारी ,मुझे उड़ाती ,वाष्प बना कर
और विरह पीड़ा तड़फ़ाती ,अश्रुजल सा ,मुझे बहा कर
मैं तुम्हारा पागल प्रेमी ,या फिर प्यार भरी नादानी
मैं हूँ पानी
मदन मोहन बाहेती'घोटू'