ऊंचाई का दर्द
मेरे मस्तक के हिम किरीट पर ,जब पड़ती है सूर्य किरण
पहले स्वर्णिम आभा देता ,फिर चांदी सा चमके चम चम
फिर ढक लेते मुझको बादल ,मै लुप्त प्राय सा हो जाता
खो जाता है व्यक्तित्व मेरा ,आँखों से ओझल हो जाता
फिर ग्रीष्म ऋतू का तीक्ष्ण ताप,पिघलाता मेरा तन पल पल
मै फिर हिम आच्छादित हो जाता ,जब फिर से आती शीत लहर
यह ऊंचाई , यह कद मेरा ,सब करते है मुझको आभूषित
वह स्वर्ण मुकुट ,वह रजत मुकुट ,होते मस्तक पर आलोकित
पर सर पर हिम की शीतलता ,देती मुझको कितनी सिहरन
मेरा व्यक्तित्व लुप्त करते ,जब मुझे घेरते मेघ सघन
यह ऊंचाई की पीड़ा है ,यह है ऊंचे कद का प्रसाद
ऊंचे हो,देखो, जानोगे ,तुम ऊंचाई से जनित त्रास
मै दिखता बहुत भव्य तुमको ,पर जाने मेरा अंतरमन
कितनी पीड़ा दायक होती ,है ऊंचाई की वो ठिठुरन
मेरे मस्तक का हिम किरीट ,दिखता तो बड़ा सुहाना है
पर मुझ पर क्या गुजरा करती ,क्या कभी किसी ने जाना है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
मेरे मस्तक के हिम किरीट पर ,जब पड़ती है सूर्य किरण
पहले स्वर्णिम आभा देता ,फिर चांदी सा चमके चम चम
फिर ढक लेते मुझको बादल ,मै लुप्त प्राय सा हो जाता
खो जाता है व्यक्तित्व मेरा ,आँखों से ओझल हो जाता
फिर ग्रीष्म ऋतू का तीक्ष्ण ताप,पिघलाता मेरा तन पल पल
मै फिर हिम आच्छादित हो जाता ,जब फिर से आती शीत लहर
यह ऊंचाई , यह कद मेरा ,सब करते है मुझको आभूषित
वह स्वर्ण मुकुट ,वह रजत मुकुट ,होते मस्तक पर आलोकित
पर सर पर हिम की शीतलता ,देती मुझको कितनी सिहरन
मेरा व्यक्तित्व लुप्त करते ,जब मुझे घेरते मेघ सघन
यह ऊंचाई की पीड़ा है ,यह है ऊंचे कद का प्रसाद
ऊंचे हो,देखो, जानोगे ,तुम ऊंचाई से जनित त्रास
मै दिखता बहुत भव्य तुमको ,पर जाने मेरा अंतरमन
कितनी पीड़ा दायक होती ,है ऊंचाई की वो ठिठुरन
मेरे मस्तक का हिम किरीट ,दिखता तो बड़ा सुहाना है
पर मुझ पर क्या गुजरा करती ,क्या कभी किसी ने जाना है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'