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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

लुटियन की दिल्ली

  लुटियन की दिल्ली

ये दिल्ली तो है लुटियन की ,जी चाहे लूट लो उतना ,
यहाँ पर तो लुटेरों की ,बहुत ही भीड़ रहती है
ये तो एक डाइनिंग टेबल है ,जो जी में आये ,वो खाओ ,
परसने ,खानेवाले चमचों की भी भीड़ रहती है
ये पार्लियामेंट की बिल्डिंग ,बनायी गोल उनने है,
इसलिए गोलमालों की ,यहाँ भरमार रहती है ,
ये  दिल्ली है,ओपोजिट पार्टियाँ भी ,दिल मिला कर के,
यहाँ पर सत्ता करने को ,सदा तैयार  रहती है
घोटू  

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

झपकी

         झपकी
सुबह उठे जब आँख खुली तो ,आलस हम पर मंडराया ,
थोड़ी देर और सो ले हम,हमने  एक झपकी ले  ली
ऑफिस में जब लंच ब्रेक था ,खाना खाया ,सुस्ताये ,
कुर्सी पर बैठे बैठे ही  ,हमने  एक  झपकी ले ली
शाम हुई,जब घर जाने को ,हम गाडी में जा बैठे,
ट्राफिक जाम मिला रस्ते में,हमने एक झपकी ले ली
टी वी पर खबरे सुनते थे ,रोज रोज की घिसीपिटी ,
लंबा एक ब्रेक आया और हमने एक झपकी  ले ली
पत्नी जी थी व्यस्त काम में ,हम फुर्सत में लेटे थे ,
तो बस उनके इन्तजार में ,हमने एक झपकी ले ली
देख हमें भरते खर्राटे ,उनने हमको जगा दिया ,
हलकी सी करवट बदली और हमने एक झपकी ले ली
झपकी छोटी बहन नींद ,सभी कहीं आ जाती है ,
जब भी चाहा उससे मिलना ,हमने एक झपकी ले ली
झपकी की झप्पी लेने में ,बड़ा मज़ा है आ जाता ,
नयी ताजगी मिलती है जब ,हमने एक झपकी ले ली

मस्दन मोहन बाहेती'घोटू'


नसीहत

                 
                  नसीहत
भले बुद्धू हो ,नालायक ,पर बड़े बाप का बेटा ,
समझदारी इसी में है,पटा कर के ,रखा जाये
भले ही सिक्का खोटा हो ,बचा कर चाहिए रखना,
पता ना कब पड़े जरुरत और कब वो काम आ जाये
न मालूम कब ,तुम्हारा दोस्त ,ऊंचे पद पे जा बैठे ,
कभी बचपन का याराना ,बड़ा ही काम आता है
खिलाये कृष्ण को दो मुट्ठी ,थे चावल जिस सुदामा ने,
सुना है ,आजकल वो ,चार राईस मिल चलाता  है
घोटू

नसीब अपना अपना

    
     नसीब  अपना  अपना
समंदर  के  किनारे ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धुप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद पल लहरें,भीगा कर भाग  जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर तड़फडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर ,दिया ये रेत में उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन  कन्याये
तपाने धूप मे,अपना बदन  जब है यहाँ  आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगों को
भला ऐसे में,मै भी रोक ना पाती ,उमंगों को
हसीनो का वो मांसल ,गुदगुदा तन ,पास आता है
वो सुख अद्भुत ,निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही  मिलता ,मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

शिकायत

         
शिकायत उनने की ये ,जवानी मे घाँस ना डाली ,
बुढ़ापे मे ,हमे क्यों इस तरह ,इतना सताते  है 
कहा हमने कि ताज़े  फलों का है शौक कम हमको,
हमारी तो ये  आदत ,हम तो सूखा मेवा  खाते  है 
घोटू 

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