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शुक्रवार, 1 मार्च 2013

हर दिन होली

                हर दिन होली

खाना पीना ,मौज मनाना,मस्ती और ठिठौली है
अपनी तो हर रात दिवाली,और हर एक दिन होली है
रोज सुबह जब आँखें खुलती,तो लगता है जनम हुआ
 रात बंद जब होती आँखें,तो लगता है मरण हुआ 
यादों के जब पत्ते खिरते,लगता है सावन आया
अपनों से मिलना होने पर ,ज्यों बसंत हो मुस्काया
ऐसा लगता फूल खिल रहे ,जैसे कोयल  बोली है
अपनी तो हर रात दिवाली,और हर एक दिन होली है
दुःख के शीत भरे झोंकों से,ठिठुर ठिठुर जाता तन है
और जब सुख की उष्मा मिलती ,पुलकित हो जाता मन है
जब आनंद फुहार बरसती,लगता है सावन आया
दीप प्रेम के जला किसी ने,होली का रंग बरसाया
लगता जीवन के आँगन में,जैसे सजी रंगोली है
अपनी तो हर रात दिवाली,और हर एक दिन होली है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सबसे बड़ा सत्संग -पति के संग

   सबसे बड़ा सत्संग -पति के संग 

मै तो चाहूं ,संग  तुम्हारा ,और तुम डूबी हो सत्संग में
तुम्हारे इस धरम करम से ,बहुत हो  गया हूँ अब तंग मै 
जब देखो तुम ,भाग भाग कर ,
                                कथा भागवत  सुनने  जाती 
सात दिनों का लंबा चक्कर ,
                                पर फिर भी तुम नहीं अघाती
सोचा करती,स्वर्ग मिलेगा,
                              
    व्यासपीठ पर  दान चढ़ा कर 
और रहती हो,भूखी दिन भर,
                                   एक वक़्त बस खाना खाकर
पत्नी के कर्तव्य भुला कर,
                                   घर गृहस्थ की जिम्मेदारी
पुण्य कमाने के चक्कर में ,
                                   भटक रही हो ,मारी मारी
एक बार सुनना काफी है ,
                                  वही भागवत ,वही कथा है
बार बार तुम सुनने जाती ,
                                   मे्रे मन में यही व्यथा है 
चन्द भजनियों ने खोली है,  
                                   कथा भागवत की दूकाने 
दे जनता को पुण्य प्रलोभन ,
                                       लगे हुए है भीड़ जुटाने 
सुनो भागवत,मोक्ष मिलेगा ,
                                       टिकिट स्वर्ग का बाँट रहे है
भोली जनता को फुसला  कर ,
                                    अपनी चाँदी  काट रहे  है
कुछ बूढी,अधेड़ सी सासें ,
                                 बचने घर की रोज  कलह से
कथा भागवत के चक्कर में ,
                                 घर से जाती,निकल सुबह से
कुछ बूढ़े ,बेकार निठल्ले,
                                  आ जाते है ,समय  काटने
अपने ही हमउम्र साथियों ,
                                   से अपना दुःख दर्द बांटने
कुछ परसादी भगत और कुछ,
                                  श्रोता ,देखा देखी  वाले
यही सोच कर ,आ जुटते है ,
                                    हम भी थोड़ा ,पुण्य कमालें
और कथा वाचक पंडितजी ,
                                     पहले हैं ,खुद को  पुजवाते
कुछ पढ़ते,कुछ गढ़ते और कुछ,
                                     प्रहसन और  प्रसंग सुनाते
लगता श्रोता ,लगे ऊंघने ,
                                   भजन कीर्तन ,चालू करते
दान दक्षिणा ,हर प्रसंग पर ,
                                    चढवा  अपनी झोली भरते 
ये    आयोजन ,लाखों के है ,
                                     अब ये सब ,दुकानदारी है
ये सब चक्कर ,छोड़ो मेडम ,
                                     इसमें  बड़ी समझदारी है
ध्यान लगाओ ,परमेश्वर में ,
                                    और पति परमेश्वर होता है
पत्नी के कर्तव्य निभाना ,
                                   सब से बड़ा  धरम  होता है
अपने ढंग से जीवन  जी लें,तुम रंग जाओ ,मेरे रंग में
मै तो चाहूं ,संग तुम्हारा ,और तुम डूबी हो सत्संग में

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

नयनों की भाषा

        नयनों  की भाषा 

 मेरी थी उत्कट अभिलाषा ,समझूं मै नयनो की भाषा
दीदे फाड़ ,उमर भर सारी ,रहा देखता  सिर्फ  तमाशा
कभी मटकते,कभी खटकते कभी भटकते है ये नयना
कभी सुहाते,मन को भाते ,कहीं अटकते है ये नयना
सुरमा लगा,सूरमा बन कर,तीर चलाते है ये नयना
कोई मृग से,कोई कमल की तरह सुहाते है ये नयना
कैसे तिरछे नयन किसी के ,मन को घायल,कर कर  जाते
कैसे कोई नयन चुरा कर ,बार बार हमको तड़फाते 
कैसे तन कर गुस्सा करते,कैसे झुक कर हाँ कह जाते
हो जाते है ,बंद मिलन में,विरहां  में आंसू ढलकाते 
कैसे आँखें,चुन्धयाती है ,कैसे आँखे रंग बदलती
अच्छे अच्छों को बहकाती,जब ये चंचल होकर चलती
दिखी कोई सुन्दर सी कन्या ,कोई आँखें फाड़ देखता
कोई आँखें टेड़ी करता,तो कोई आँखें तरेरता
कैसे आँखों ही आँखों में ,हो जाते है कई इशारे
कोई आँख में धूल झोंकता,कोई दिखाता सपने प्यारे
होती आँखों की कमजोरी,कभी दूर की,कभी पास की
आँख बिछाये ,विरहन जोहती,राह  पिया की,लगा टकटकी
नयन द्वार से आकर कोई ,कैसे बस जाता है दिल में
चोरी चोरी नयन लड़ाना , डाल दिया करता मुश्किल में
कैसे कोई लाडला बच्चा,बनता है आँखों का  तारा
कैसे आँखें बंद होने पर,मिट जाता अस्तित्व हमारा
कैसे चमक आँख में आती,जब मिल जाता प्यारा हमदम
कैसे कोई ,किरकिरी बन कर ,आँखों में चुभता है हरदम
कैसे आँख इशारा करती,आता कोई याद,फडकती
थक जाने पर ,लग जाती है,कैसे सोती,कैसे जगती
कैसे कोई ,आँख मार कर,लड़की पटा लिया करता है
कैसे कोई  ,बना बेवफा ,नज़रें हटा लिया करता  है
कुछ रिसर्च करने वालों की,एक स्टडी ये कहती है
पलकें झपकाने में आँखे,बारह बरस बंद रहती है 
कभी अपलक ,उन्हें निहारे,बार बार या झपकें पलके
कैसे इन प्यारे नैनों में,बस जाते है,सपने कल के
कैसे एक लीक काजल की,इनकी धार तेज करती है
कैसे दुःख में,या फिर सुख में,ये आँखें,पानी भरती है  
 कैसे  मोती,आंसूं बन कर,टपका करते है आँखों से
कैसे दो दीवाने प्रेमी,बातें करते है आँखों से 
दिल से दिल तो मिले बाद में ,पहले आँख मिलाई जाती
लेने देने से बचना हो,तो फिर आँख चुराई जाती
कोई जब है मनको भाता ,आता ,आँखों में बस जाता
कैसे साहब की आँखों में,चढ़ कर कोई तरक्की पाता
आते नज़र ,गुलाबी डोरे,अभिसारिका की आँखों में
होती आँखे ,लाल क्रोध से ,कभी नशा छाता आँखों में
कभी बड़ी खुशियाँ मिलती है ,और मिलती है कभी निराशा
मन में थी उत्कट अभिलाषा ,समझूं मै नयनो की  भाषा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

मुक्ति


हे प्रभु
यह जीवन बहुत
विस्तृत है
और कठिनाइयाँ
अनेक हैं
अताह मुसीबतों का
सागर सामने हैं
कितने ही
आस्तीन के सांप
फन फैलाये बैठे हैं
इन सब के
स्थूलकाय अम्बुधि से
क्या मैं
मुक्त्त हो पाउँगा
जो अनंत काल से
स्मृति और कुटुंब  बन
सम्बन्धी और नातेदार बन
पीछे दौड़ते हैं
आईना दिखाते हैं
तरह तरह के
जिसमें अपने आप को
अपने मूल स्वरुप को
बदलता हुआ देख
घबरा जाता हूँ
आत्मा तक बेचैन
हो जाती है
कहीं आँखें
छलिया तो नहीं
मझे इस
स्मृति भरे
आयुर्बल से
न जाने कब
मुक्ति मिलेगी...

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

संतान और उम्मीद

      संतान और उम्मीद

अपनी संतानों से ज्यादा ,मत रखो उम्मीद तुम,
           परिंदे हैं,उड़ना सीखेंगे ,कहीं उड़ जायेंगे
घोंसले में बैठ कर ना रह सकेंगे उम्र भर,
          पेट भरने के लिए ,दाना तो चुगने जायेंगे
बेटियां तो धन पराया है,उन्हें हम एक दिन,
          किसी के संग ब्याह देंगे ,वो बिदा हो जायेंगी
ब्याह बेटे का रचाते ,बहू लाते चाव से,
           आस ये मन में लगाए,घर में रौनक आएगी
और पत्नी संग अगर वो,मौज करले चार दिन,
         लगने लगता है तुम्हे,बेटा  पराया हो गया
बात पत्नी की सुने और उस पे ज्यादा ध्यान दे ,
        जोरू का गुलाम वो माता का जाया हो गया
अगर बेटा कहीं जाता,नौकरी या काम से ,
        सोचने लगते हो बीबी ने अलग तुमसे किया
दूर तुमसे हो गया है ,तुम्हारा लख्ते -जिगर,
         फंसा अपने जाल में है,बहू ने उसको लिया
उसके भी कुछ शौक है और उसके कुछ अरमान है,
         जिंदगी शादीशुदा के ,भोगना है सुख सभी
उसके बीबी बच्चे है और पालना परिवार है ,
          बोझ जिम्मेदारियों का ,पड़ने  दो,उस पर अभी 
अरे उसको भी तो अपनी गृहस्थी है निभाना ,
           उसको अपने ढंग से ,जीने दो अपनी जिंदगी
खान में रहता जो पत्थर ,कट के,सज के ,संवर के ,
           हीरा बन सकता है वो ,नायाब भी और कीमती

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

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