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मंगलवार, 29 मार्च 2016

तू ही रहे साथ मेरे


















आह! दुनिया नहीं चाहती मैं, मैं बनकर रहूँ
वो जो चाहती है, कहती हैं, बन चुपचाप रहूँ
होठ भींच, रह ख़ामोश, ख़ुद से अनजान रहूँ
रहकर लाचार यूँ ही, मैं ख़ुद से पशेमान रहूँ

बनकर तमाशबीन मैं क्यों, ये असबाब सहूँ?
कहता हूँ ख़ुद से, जो हूँ जैसा हूँ वही ज़ात रहूँ
नहीं समझे हैं वो, कोशिशें उल्टी पड़ जाती हैं
मैं मजबूर नहीं, टूटना ऐसे मेरा मुमकिन नहीं

महसूस करता है हर लम्हा, दिल-ओ-दिमाग मेरा
ख़त्म हो रहा है मुझमें, धीमे-धीमे हर एहसास मेरा
दर्द से क्षत-विक्षत है, कहने को मज़बूत शरीर मेरा
चुका रहा है कीमत जुड़े रहने की, हर जज़्बात मेरा

दिल करता है कभी, लेट जाऊं और निकल जाऊं
ले आत्मा को साथ, ऊँचे नील-गगन में विचर जाऊं
पर समय अभी आया नहीं, तो जल्दी क्यों तर जाऊं
काज ज़िम्मे हैं कई जीवन में, छोड़ इन्हें किधर जाऊं

तो जब तक मुकम्मल ना हो जाएँ, सभी मस्लहत मेरे
तुम ही संभालो 'निर्जन', पल-पल उलझते लम्हात मेरे
उम्मीद छोटी सी, अमन पसंद ज़िन्दगी की है यारा मेरे
दूर रहे दुनिया मुझसे, फ़क़त एक तू ही रहे साथ मेरे

पशेमान - repentent, ashamed
तमाशबीन - spectator
असबाब - scene, stuff
मुकम्मल - complete
मस्लहत - policy
लम्हात -  moments


#तुषारराजरस्तोगी #दुनिया #बदलाव #अहसास #जज़्बात #निर्जन #मस्लहत #उम्मीद

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी को प्रणाम

आता है साल में एक बार
कहते जिसे 'हिंदी दिवस'
क्यों इसे मनाने के लिए
हम सभी होते हैं विवश

हिन्द की बदकिस्मती
हिंदी यहाँ लाचार है
पाती कोई दूजी ज़बां
यहाँ प्यार बेशुमार है

काश! हिंदी भी यहाँ
बिंदी बनकर चमकती
सूर्य की भाँती दमकती
अँधेरे में ना सिसकती

आओ मिलकर लें अहद
हिंदी को आगे लायेंगे
अपनी मातृभाषा को हम
माता समझ अपनाएंगे

शर्म न आये किसी को
अब हिंदी के उपयोग में
मान अब सब मिल करें
हिंदी के सदुपयोग में

हाथ जोड़े करता वंदन
'निर्जन' हिंदी भाषा को
अर्जी है हम आगे बढ़ाएं
राष्ट्रभाषा, मातृभाषा को

र्फ एक दिन नहीं साल का हर दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाएं | हिंदी को सर्वोच्च स्थान देने में सहायता करें | हिन्द में हिंदी की गरिमा बनायें रखें | अपनी मातृभाषा का सम्मान करें | उससे प्रेम करें | अत्यधिक प्रयोग में लायें | हिंदी भाषी बनें | हिंदी में लिखें पढ़ें अच्छा लगता है | सम्मानित और गौरवान्वित महसूस होता है | हिंदी जिंदाबाद | हिन्द जिंदाबाद | भारत माता की जय | जय हो मंगलमय हो |

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

मुक्ति


हे प्रभु
यह जीवन बहुत
विस्तृत है
और कठिनाइयाँ
अनेक हैं
अताह मुसीबतों का
सागर सामने हैं
कितने ही
आस्तीन के सांप
फन फैलाये बैठे हैं
इन सब के
स्थूलकाय अम्बुधि से
क्या मैं
मुक्त्त हो पाउँगा
जो अनंत काल से
स्मृति और कुटुंब  बन
सम्बन्धी और नातेदार बन
पीछे दौड़ते हैं
आईना दिखाते हैं
तरह तरह के
जिसमें अपने आप को
अपने मूल स्वरुप को
बदलता हुआ देख
घबरा जाता हूँ
आत्मा तक बेचैन
हो जाती है
कहीं आँखें
छलिया तो नहीं
मझे इस
स्मृति भरे
आयुर्बल से
न जाने कब
मुक्ति मिलेगी...

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