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शनिवार, 17 नवंबर 2012

तुमने अचार बना डाला

         तुमने अचार  बना डाला

वैभव के सपने देखे थे,मैंने जीवन के शैशव में
इच्छाओं का बहुत शोर ,करता था मै किशोर वय में
यौवन के वन में आ जाना,यह तो थी मृगतृष्णा  कोरी
लेकिन अब मै हूँ समझ सका,जीवन भाषा ,थोड़ी थोड़ी
मै बनने वाला था कलाकार,तुमने बेकार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी,तुमने अचार बना डाला
मेरी सारी  आशाओं पर, उस रोज तुषारापात हुआ
जिस दिन से था इस जीवन में,मेरा तुम्हारा साथ हुआ
मैंने सोचा था पढ़ी लिखी ,तुम मेरा काव्य सराहोगी
तुम स्वयं धन्य हो जाओगी,जो मुझ सा कवि  पति पाओगी  
थी मधुर यामिनी की बेला,मै था तुम पर दीवाना सा
तुम्हारी रूप प्रशंसा में,मैंने कुछ गाया गाना सा
मै भाव विभोर हो गया था,सोचा था तुम शरमाओगी
या तो पलके झुक जायेगी ,या बाँहों में आ जाओगी
पर पलकें झुकी न शरमाई,तुम झल्ला बोली ,मत बोर करो
बाहर मेहमान जागते है,अब चुप भी रहो,न शोर करो 
फिर यह सुन कर अभिलाषाओं ने, था बाँध सब्र का फांद दिया
जब तुम बोली हे राम मुझे,किस कवि के पल्ले बाँध दिया
फिर दिया लेक्चर लम्बा सा ,तुमने घर ,जिम्मेदारी का
मुझको अहसास दिलाया था,तुमने मेरी बेकारी का
उस मधुर यामिनी में तुमने,फीका अभिसार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी,तुमने अचार बना डाला
फिर मुझे प्यार से सहला कर ,ऐसी कुछ मीठी बात करी
रह गयी छुपी ,दिल ही दिल में,मेरी कविताई ,डरी डरी
मै प्रेम डोर से बंधा हुआ ,जो भी तुम बोली ,सच समझा
फिर वही हुआ जो होना था,मै नमक ,तेल में ,जा उलझा
तुम्हारा कहना मान लिया,हो गया किसी का नौकर ,मै
बेचारी काव्य पौध सूखी ,जो पछताता हूँ ,बोकर ,मै
बाहर  कोई का नौकर पर ,घर में नौकर तुम्हारा था
तुम्हारी रूप अदाओं ने ,एक कलाकार को मारा था
अच्छा होता यदि उसी रात ,जो प्यार मुझे तुम ना देती
मीठी बातों के बदले में ,फटकार मुझे जो तुम देती
तो हिंदी जग में आज नया,एक तुलसीदास नज़र आता
पत्नी ताड़ित यदि बन जाता,पत्नी पीड़ित ना कहलाता
कितने ही काव्य रचे होते,मै कालिदास बना होता
मुरझाती यदि ना काव्य पौध ,तो अब वह वृक्ष घना होता
पर बकरी बन,उस पौधे को,तुमने आहार बना डाला
केरी पक कर ना आम बनी,तुमने अचार   बना डाला 
मै कई बार पछताता हूँ,यदि तुमसे प्यार नहीं होता
मै कुछ का कुछ ही बन जाता,मेरा ये हाल नहीं होता
लेकिन मुझसे भी ज्यादा तो,अब कलाकार हो अच्छी तुम
हर साल प्रकाशित कर देती ,कोई बच्चा या बच्ची तुम
ना जाने क्यों,मेरे मन को ,रह रह यह बात कचोट रही
तुम सौत समझती कविता को,क्यों गला ,कला का घोट रही
मै जब भी कुछ लिखने लगता ,सब काम याद क्यों आते है
अब तुम्ही बताओ उसी समय,बच्चे क्यों शोर मचाते है
मै भली तरह से समझ गया,यह तुम्ही उन्हें हो सिखलाती
क्या लिखूं रात में खाक तुम्हे ,लाइट में नींद नहीं आती
घंटो तक बोर नहीं करती ,सखियों की बातचीत तुमको
तो बतलाओ क्यों चुभते है,मेरे ये मधुर गीत  तुमको
मै अलंकार की बात करूं ,तुम आ जाती हो गहनों पर
मेरे कविता के टोपिक को,तुम ले आती निज बहनों पर
कहती  हो रचना को चरना,कवि को कपिकार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी,तुमने अचार बना डाला 
मै बात काव्य रस की करता,जाने क्यों मुंह बिचकाती हो
जब गन्ने और आम का रस ,दो दो गिलास पी जाती हो
मै जब भी समझाने लगता,कविता का भाव कभी तुमको
आ जाता याद बाज़ार भाव,लगता है मंहगा घी तुमको
जब मेरी काव्य साधना की ,दो बात नहीं सुन सकती हो
उस मुई सिनेमे वाली के,घंटों तक चर्चे करती हो
क्यों गज भर दूर ग़ज़ल से तुम,क्यों है रुबाई से रुसवाई
क्यों डरती हो तुम शेरो से,क्यों नज़म तुम्हे ना जम  पायी 
क्यों है नफरत,क्या इन सबसे ,है पूर्व जन्म का बैर तुम्हे
या मै ही सीधासादा हूँ,ना मिला कोई दो सेर तुम्हे
मत समझो यह सीधा प्राणी ,केवल घर का बासिन्दा है
मै भले गृहस्थी में उलझा,मेरा कवि  अब भी जिन्दा है 
पर तुम जब घर पर रहती हो ,तो कहाँ काव्य लिख सकता हूँ
दो,चार  माह ,मइके रहलो,तो महाकाव्य  लिख सकता हूँ
हे राम फंसा किस झंझट में,मेरे सर भार बना डाला
तुमने मुझको जाने क्या क्या ,मेरी सरकार बना डाला
मै बनने वाला था कलाकार ,तुमने बेकार  बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी,तुमने अचार बना डाला

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 14 नवंबर 2012

सोनू - मोनू - पिंकू - गुड्डू, आओ मनाएं बाल दिवस....






















बाल दिवस है बाल दिवस
    हम सबका है बाल दिवस,
             सोनू - मोनू - पिंकू - गुड्डू
                    आओ मनाएं बाल दिवस....
कागज़ की एक नाव बनाएं
    तितली रानी को बैठाएं,
         नदी किनारे संग संग उसके
                आओ हम सब चलते जाएँ....
तितली उड़े आकाश में
   भगवान जी के पास में,
       भगवान जी से लाये मिठाई
           खा करके चलो करें पढ़ाई....
पढ़ना है जी जान से
    ताकि हिन्दुस्तान में,
          खूब बड़ा हो अपना नाम
               खूब अच्छा हो अपना काम....
काम से पापा मम्मी खुश
      काम से सारे टीचर खुश,
           सारे खुश हो खुशी मनाएं
                 बड़े भी सब बच्चे हो जाएँ.....
बच्चों का हो ये संसार
     बचपन की हो जय जयकार,
          ना चालाकी - ना मक्कारी
                  ना ही कोई दुनियादारी.......
दुनिया पूरी हो बच्चों की
    केवल हो सीधे - सच्चों की,
         सच्चे दिल की ये आवाज
              आओ धूम मचाएं आज.....

               - VISHAAL CHARCHCHIT

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

बाबू जी की दीवाली........















  और सुनाएं बाबू जी
       दीवाली मना रहे हैं?!
           सबकुछ नया - नया और
               हाई टेक बना रहे हैं?!.....
  देसी दीये पुराने लगते
      चाइनीज झालर लाये हैं,
          लक्ष्मी गणेश की मूर्ति भी
              चाइना से ही मंगवाए हैं....
  देश हमारा बड़ा हो रहा
      पता आपसे चलता है,
           क्योंकि हर साल दीवाली पर
                बजट आपका बढ़ता है.....
  पटाखे कई हजार के
       इस बार भी लाये हैं न?!
             पूरा मोहल्ला हिलाने का
                   इस बार भी कार्यक्रम बनाए हैं न ?!
  अच्छा, एक राज की बात
       क्या आप मुझे बताएँगे?
             कितना सोना - कितना रुपया
                   इस बार लक्ष्मी जी को चढ़ाएंगे?
  सच कहें तो आपको देख कर
       बाबू जी हम खुश हो लेते हैं,
            और आपकी दीवाली को ही हम
                  अपनी दीवाली समझ लेते हैं.....
  वर्ना हम गरीब क्या जानें
         कि दीवाली क्या होती है,
                रोटी - दाल - दीये के अलावा
                        खुशहाली क्या होती है....
  लक्ष्मी जी को प्रसन्न कर सकें
       अपनी इतनी औकात कहाँ,
             आपकी तरह सोना - रुपया
                    और महंगे प्रसाद कहाँ....
  महंगाई ने हिला दिया है
      रोम - रोम तक बाबू जी,
            जाने कब तक और बचेंगे
                  हम गरीब अब बाबू जी....

                        - VISHAAL CHARCHCHIT

संरक्षक (रेफ्रिजेटर)

     संरक्षक (रेफ्रिजेटर)

कई रसीली ,मधुर रूपसी,
मेरे उर में  आती जाती
उनकी  सुरभि,मुझे लुभाती
निश्चित ही स्वादिष्ट बहुत वो होगी,
मेरा मन ललचाता
लेकिन मै कुछ कर ना पाता
क्योंकि मुझे गढ़ने वाले ने ,
मेरे मुख दांत  ना दिये
सिर्फ सूँघना ही नसीब में लिखा इसलिये
मै तो उनके रूप ,स्वाद को कर संरक्षित
उनकी जीवन अवधि बढाता रहता,परहित
यूं ही तरस तरस कर करना जीवन व्यापन
बिना किये रस का आस्वादन ,
कट जाता है ,मेरा जीवन
कई मिठाई,कितने ही फल
कितने ही पकवान,पेय जल
आकर्षित करते रहते है मुझको हर पल 
मेरा मन कितना ही चाहे
मै बेबस ,भरता ही रहता,ठंडी आहें
मन मसोस मै रहता हरदम
तुम चाहो तो इसको कह सकते  हो संयम
बचा खुचा ,घर का सब खाना
है मेरे ही हिस्से आना
मुझे चाहता दिल से गोरस
मै ना अगर मिलूँ,
तो उसका दिल जाता फट
मै संरक्षक ,
जो भी मेरे उर में बसता,
उसका यौवन,संरक्षित रहता है,
एक लम्बी अवधी तक
मै तो हूँ घर घर का वासी ,
सभी गृहणियों का मै प्यारा
मै  रेफ्रिजेटर  तुम्हारा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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