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गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

कभी हम पास होते है,कभी हम फ़ैल होते है

कभी हम पास होते है,कभी हम फ़ैल होते है

हमारी जिंदगानी में,बहुत से खेल होते है

कभी हम पास होते है,कभी हम फ़ैल होते है
हरेक पल में परीक्षा है,हरेक पल में समीक्षा है
मगर धीरज नहीं खोना,बुजुर्गों की ये शिक्षा है
भले भी लोग मिलते है,बुरे भी लोग मिलते है
कहीं पर कांटे चुभते है,कहीं पर फूल खिलते है
कभी तन्हाई का आलम,कभी है भीड़  यारों की
कभी सूखी पड़ी फसलें,कभी मस्ती बहारों की
इस दुनिया के समंदर में,हमारी तैरती किश्ती
कभी ये डगमगाती है,कभी तूफां में जा फसती
कभी है ज्वार या भाटा ,कभी सुन्दर फिजायें है
कभी सूरज की गर्मी hai,कभी शीतल हवायें है
अगर तकदीर अच्छी है,भला हमराह मिलता है
हरेक  मुश्किल में तुम्हारी,जो थामे बांह मिलता है
न कोई आस कोई से,न कोई से अपेक्षा है
न कोई से गिले शिकवे, न कोई की उपेक्षा है
दुआ है दोस्तों की और नहीं हो खोट नीयत में
मिलेगा तारने वाला,तुम्हे हर एक मुसीबत में
लगन हो,कोशिशें होऔर अगर हो हौंसला हासिल
चले जाओ,चले जाओ,बड़ी आसान है मंजिल
किसी से अनबनी होती,किसी से मेल होते है
कभी हम पास होते हैं,कभी हम फ़ैल होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'





कभी सोलह की लगती हो, कभी सत्रह की लगती हो

कभी सोलह की लगती हो, कभी सत्रह की लगती हो

मुझे  जब कनखियों से देखती ,तिरछी नज़र से तुम

बड़ी हलचल मचा  देती हो     मेरे इस जिगर में तुम
दिखा कर दांत सोने का,    कभी जब मुस्कराती हो
तो इस दिल पर अभी भी सेकड़ों ,बिजली गिराती हो
हुआ है आरथेराइटिस, तुम्हे  तकलीफ   घुटने की
मगर है चाल में अब भी ,अदायें वो, ठुमकने  की
वही है शोखियाँ तुम में,वही लज्जत, दीवानापन
नजाकत भी वही,थोडा,भले ही  ढल गया है तन
बदन अब भी मुलायम पर,मलाईदार  लगती हो
महकती हो तो तुम अब भी,गुले गुलजार लगती हो
तुम्हारा संग अब भी रंग ,भर देता है जीवन में
जवानी जोश फिर से लौटता है तन के आँगन में
सवेरे उठ के जब तुम ,कसमसा ,अंगडाई भरती हो
कभी सोलह की लगती हो,कभी सत्रह की लगती हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आंसू

               आंसू
 
नहीं अश्कों पे जाओ तुम,ये आंसू बरगलाते है
ख़ुशी हो या हो गम ,आँखों में आंसू आ ही जाते है
जो पानी आँख से बहता, सदा आंसू नहीं  होता
ये तो चेहरा बताता है,कोई हँसता है या  रोता
कोई जब दूर जाता है ,तो आँखें डबडबाती  है
कोई मुद्दत से मिलता है,तो आँखें भीग जाती है
 कभी जब भावनाओं में,जो विव्हल होता है ये मन
तो अपने आप होते नम,हमारी  आँख के चिलमन
निकल जाते है आंसूं ,आँख में कचरा अगर पड़ता
दवाई सुरमा डालो तो भी पानी आँख से   बहता
रसोई में जो काटो प्याज, आंसू आ ही जाते है
मिर्च झन्नाट खा लो तेज,आंसू डबडबाते   है
बहुत ज्यादा हंसी भी आँख में पानी है ले आती
करुण कोई कहानी सुन के आँखें नीर भर लाती
बहुत गुस्से में बरसा करते आंसूं बन के अंगारे
कभी भी,किस तरह के हों,ये आंसू होते है खारे
मगरमच्छी है कुछ आंसूं,जो होते है दिखाने को
किसी की सहानुभूति या किसी का प्यार पाने को
अपनी जिद्द मनवाते है बच्चे,अस्त्र  है आंसू
त्रिया हाथ पूरी करवाने को तो ब्रह्मास्त्र है आंसू
हसीनो के कपोलों पर ये मोती बन ढलकते है
तो हो कितने ही पत्थर दिल,सभी के दिल पिघलते है
बड़े कमबख्त है आंसू,यूं ही आ जाते है जब तब
बहे गौरी के गालों पर,बिगाड़े चेहरे का मेक अप
ह्रदय की भावनायें,वाष्पीकृत हो जो उठती है
तो हो कंडेंस,आँखों से,वो बन आंसूं ,निकलती है
आदमी आता है रोता,वो जाता ,हर कोई रोता
मगर भंडार आंसूं का,कभी खाली  नहीं  होता
हंसाते है, रुलाते है, मनाते है, सताते   है
ख़ुशी हो या हो गम,आँखों में आंसूं आ ही जाते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ओ कलम !!



ओ कलम तू लिखना वादों को,
मेरे हर बुलंद इरादों को;
मेरे ऊर की हर बातों को,
हर उठते हुए जज़्बातों को |

मेरे भावों की भाषा बन,
अभिव्यक्ति की अभिलाषा बन;
तू सत्य समाज का उद्धृत कर,
मेरे सपनों को विस्तृत कर |

मेरे शब्दों के पंख लगा,
हर खोट पे जाके दंश लगा;
असत्य न स्वीकार कर,
कुरीतियों पे वार कर |

न व्यर्थ कहीं गुणगान कर,
जो है जायज़ तू मान कर;
गंदगी कभी न माफ कर,
लिख-लिख के उनको साफ कर |

हर ओर ईर्ष्या व्याप्त है,
मानवता बस समाप्त है;
नैतिकता की तू अलख जगा,
बुराइयों पर अग्नि लगा |

ओ कलम न डर न डरने दे,
हुंकार सत्य का भरने दे;
काँटों में भी मुझे राही बना,
लहू का मेरे तू स्याही बना |

पर सत्य मार्ग न छोड़ तू,
नाता हरेक से जोड़ तू;
अच्छा-बुरा जो होता लिख,
तू ध्यान दिला, सब जाए दिख |

ओ कलम तू प्रेरणास्रोत बन,
संदेशों से ओत-प्रोत बन;
लिखा तेरा जो पढे बढ़े,
सोपान उचित हरवक्त चढ़े |

ओ कलम  मेरा हथियार बन,
मेरा सबसे निज यार बन;
अन्तर्मन का तू दूत बन,
मेरु-सा तू मजबूत बन |

जो ना कह पाऊँ मैं मुख से,
तू लिखना बांध उसे तुक से;
साहित्य पटल पर उड़ता जा,
ओ कलम मेरे शब्द बुनता जा |

श्रद्धा और श्राद्ध

             श्रद्धा और श्राद्ध

हम अपने पुरखों को,पुरखों के पुरखों को,

                  साल में पंद्रह दिन ,याद किया करते है
ब्रह्मण को हम प्रतीक,मान कर के,पितरों का,
                 पितृ पक्ष में उनको ,तृप्त  किया  करते है
श्राद्ध कर श्रद्धा से,तर्पण कर पितरों का,
                 मातृ शक्ति का वंदन, नौ  दिन तक करते है
यह उनकी आशीषों का ही तो प्रतिफल है,
                  दसवें दिन रावण  को,मार   दिया करते  है
विदेशी कल्चर की ,दीवानी नव पीढ़ी,
                     मात पिता   के खातिर,करती है इतना बस
एक बरस में केवल,एक कार्ड दे देती ,
                        एक दिवस मातृदिवस,एक दिवस पितृ दिवस   
इक दिन वेलेंटाइन,लाल पुष्प भेंट करो,
                         बाकि दिन जी भर के,मुंह मारो इधर  उधर
पूजती है पति को,भारत की महिलाएं,
                          मानती है परमेश्वर,रखती है व्रत   दिन भर
हमारे संस्कार,बतलाते बार बार,
                          होता है सुखदायी,परम्परा का पालन
बहुत पुण्य देता है,मात पिता का पूजन,
                           श्रद्धा से पूजो तो, पत्थर भी है भगवन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

   

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