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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

चोर तुम भी ,चोर हम भी ....

चोर तुम भी ,चोर हम भी ....

चोर तुम भी,चोर हम भी,सिर्फ इतना फर्क है,

 कल तलक सत्ता में थे तुम,आज हम पावर में हैं
हम भी नंगे,तुम भी नंगे,रहते है हम्माम में,
दिखावे की दुश्मनी है,दोस्त हम सब घर में है
       हम हो या तुम,नहीं कोई भी धुला है दूध का
        पोल एक दूसरे की,हमको तुमको है पता
        सेकतें हैं,अपनी अपनी ,राजनेतिक रोटियां
       चलानी है ,तुमको भी और हमको भी अपनी दुकां
 ये तुम्हारा ओपोजिशन ,बंद ये,हड़ताल ये,
 कैसे सत्ता करें काबिज,बस इसी चक्कर में है
           एक थैली के हैं चट्टे बट्टे,हम भी,आप भी,
            नौ सौ चूहे मार कर के बिल्ली है हज को चली
           कोयले की दलाली में, हाथ काले सभी के,
            हमारी करतूत काली ,है ये जनता  जानती
'जिधर दम है,उधर दम है,एसे भी कुछ लोग है,
जिनको दाना डाल कर के,आज हम पावर में है
चोर तुम भी ,चोर हम भी,सिर्फ इतना फर्क है,
कल तलक सत्ता में थे तुम,आज हम पावर में है

सचमुच हम कितने मूरख है

सचमुच हम कितने मूरख है

कोई कुछ भी कह दे,उसकी बातों में  आ जाते झट है

                                सचमुच हम कितने मूरख है
 भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था,और सुराज के सपने देखें
इस कलयुग में,त्रेता युग के,रामराज  के सपने   देखें
पग पग पर रिश्वतखोरी है,दिन दिन बढती है मंहगाई
लूटखसोट,कमीशन बाजी,सांसद करते हाथापाई
राजनीती को ,खुर्राटों ने,पुश्तेनी व्यापार बनाया
अर्थव्यवस्था को निचोड़ कर,घोटालों का जाल बिछाया
उनके झूंठे बहकावे में,फिर भी आ जाते जब तब है
                                सचमुच हम कितने मूरख है
कथा भागवत सुनते,मन में ,ये आशा ले,स्वर्ग जायेंगे
करते है गोदान ,पकड़कर पूंछ बेतरनी ,तर जायेंगे
मोटे मोटे टिकिट कटा कर,तीर्थ ,धाम के , करते दर्शन
ढोंगी,धर्माचार्य ,गुरु के,खुश होतें है,सुन कर प्रवचन
गंगा में डुबकियाँ लगाते,सोच यही,सब पाप धुलेंगे
रातजगा,व्रत कीर्तन करते,इस भ्रम में कि पुण्य मिलेंगे
दान पुण्य और मंत्रजाप से,कट जाते सारे  संकट है
                             सचमुच हम कितने मूरख है
आज बीज बोकर खुश होते,अपने मन में ,आस लगा कर
वृक्ष घना होकर बिकसेगा, खाने को देगा मीठे फल
नहीं अपेक्षा करो किसी से,पायेगा दुःख ,ह्रदय तुम्हारा
करो किसी के खातिर यदि कुछ,समझो था कर्तव्य तुम्हारा
नेकी कर दरिया में डालो, सबसे अच्छी बात यही  है
सिर्फ भावनाओं में बह कर के, करना दिल को दुखी नहीं है
प्रतिकार की ,आशा मन में,रखना संजो,व्यर्थ,नाहक है
                           सचमुच  हम कितने मूरख है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

बढ़ने चला हूँ


आँखों में लेके एक नूर कोई,

सपनों की दुनिया सच करने चला हूँ;
अपनों के सपनों को दिल में लेकर,
दुनिया में अपना हक करने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

राहों में बाधक हैं, मुश्किलें भी हैं,
पर खुद ही हर मुश्किल से लड़ने चला हूँ,
मार्ग में सबको बस खुशियाँ परोसता,
खुशियाँ लुटाता मैं उड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

सपनों को अपने है साकार करना,
भागती इस दुनिया में दौड़ने चला हूँ;
पर्वत, पहाड़ या मिले कोई चट्टान,
हौसले का हथौड़ा ले तोड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

मौका परस्त दौर में एक जज्बा लेकर,
इंसानियत की खोज अब करने चला हूँ;
अँधियारों में अपना ही "दीप" लेकर,
हवाओं का रुख भी मोड़ने चला हूँ |
मैं बढ़ने चला हूँ |

रविवार, 23 सितंबर 2012

एक विलुप्त कविता / रामधारी सिंह "दिनकर"

आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" का जन्म दिवस है | उनकी इस रचना के साथ उन्हे अनेकानेक नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि |
बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।

(सन 1938 में पटना में अखिल भारतीय ब्रह्मर्षि महासम्मेलन क आयोजन किया गया था जिसमें काशी नरेश विभूति नारायण सिंह, सर गणेश दत्त, बाबू रज्जनधारी सिंह आदि गणमान्य लोग मौज़ूद थे। दिनकर जी ने उस महाजाति सम्मेलन के लिए यह कविता लिख भेजी थी जिसे उसमें स्वागत-गान के रूप में पढ़ा गया था। कविता कोश के सहयोगी पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड के निवासी श्री रवि रंजन ने बाबू रज्जनधारी सिंह के गाँव 'भरतपुरा' में बने उनके निजी पुस्तकालय से यह कविता उनकी नोटबुक से ढूँढ निकाली है। इस कविता का कोई शीर्षक नहीं दिया गया है।)

सौजन्य-"कविता कोश"

शनिवार, 22 सितंबर 2012

लब-प्यार से लबालब

     लब-प्यार से लबालब

चाँद जैसे सुहाने मुख पर सजे,

                          ये गुलाबी झिलमिलाते होंठ है
खिला करते हैं कमल के फूल से,
                         जब कभी ये खिलखिलाते होंठ है
ये मुलायम,मदभरे हैं,रस भरे,
                           लरजते हैं प्यार बरसाते कभी
दौड़ने लगती है साँसें तेजी से,
                           होंठ जब नजदीक आते है कभी
प्यार का पहला प्रदर्शन होंठ है,
                         रसीला मद भरा चुम्बन होंठ है
जब भी मिलते है किसी के होंठ से,
                         तोड़ देते सारे बंधन होंठ है
अधर पर धर कर अधर तो देखिये,
                         ये अधर तो प्यार का आधार है,
नहीं धीरज धर सकेंगे आप फिर,
                          बड़ी तीखी,मधुर इनकी धार  है
मिलन की बेताबियाँ बढ़ जायेगी,
                             तन बदन में आग सी लग जायेगी
सांस की सरगम निकल कर जिगर से,
                            सब से पहले लबों से टकरायगी
उमरभर पियो मगर खाली न हो,
                             जाम हैं ये वो छलकते,मद भरे
लब नहीं ये युगल फल है प्यार से,
                                लबालब, और लहलहाते,रस भरे
  मुस्कराते तो गिराते बिजलियाँ,
                         गोल हो सीटी बजाते होंठ  है
और खुश हो दूर तक जब फैलते,
                        तो ठहाके भी लगाते होंठ   है
सख्त से बत्तीस दांतों के लिए,
                        ये मुलायम दोनों ,पहरेदार हैं
हैं रसीले शहद जैसे ये कभी,
                        लब नहीं,ये प्यार का भण्डार है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


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