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सोमवार, 3 सितंबर 2012

पानी की बूंद (बाल कविता)


पानी की बूंद-बूंद अमोल है,
इसका न कोई मोल है ;
जीवन देती है इसकी हर बूंद,
यही तो सबके बोल है |

जब बारिश बन गिनती,
मन आह्लादित करती है;
तर कर देती है हर कोना,
खुशी दिल में भर देती है |

प्यास बुझाती हर एक की,
जिंदगी बनती अनेक की;
इसके बिना सब सूखा-सुखा,
बातें हैं ये बड़े नेक की |

कसम हमे अब खानी है,
हर एक बूंद बचानी है;
व्यर्थ नहीं जाने देना है,
अमृत ही यह पानी है |

रविवार, 2 सितंबर 2012

एंड्रोयिड फोन

एंड्रोयिड  फोन

मेरे पति ने जब से एंड्रोयिड फोन लिया है,
बस उसीसे  हरदम चिपके रहते है
और तो और ,मुझे भी,एंड्रोयिड की तरह,
यूजर फ्रेंडली कहते है
 कहते है इसके लिए चाहिये वाय फाय
और तुम तो खुद ही हो हाय  फाय
इसे चार्ज करने में लगता हाई टाइम
और हरदम प्यार से चार्ज रहती हो तुम
ये फेस बुक पर दोस्तों से मिला सकता है
या बच्चों को गेम खिला सकता है
और तुम बच्चों को गेम भी खिला सकती हो
और घर भर को खाना भी खिला  सकती हो
घर के काम धाम के साथ,तुम्हे प्यार करना भी आता है
और ये तो सिर्फ मन बहलाता है
ये वक्त काटने के लिए ठीक है,
पर मुझे तुम्हारा साथ ही ज्यादा सुहाता है
मैंने बोला आजकल आप बहुत बातें बनाने लगे है
जब से टच स्कीन की आदत पड़ गयी है,
आप मुझे बड़े प्यार से सहलाने  लगे है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ट्रेन की खिड़की से क्या क्या देखूं ?

ट्रेन की खिड़की से क्या क्या देखूं ?

ट्रेन की खिड़की से झांकता हुआ,
मै सोचता हूँ कि मै क्या क्या देखूं?
अखबार के सफ़ेद कागज़ पर,
 काली श्याही से छपी,लूटमार कि,
या ख़बरें सियासी देखूं
या धरती के आँगन में ,
दूर दूर तक फैली हरियाली देखूं
उन रेल कि पटरियों को देखूं,
जिनकी दूरियां ,
आपस में कभी ना मिल पाती है
या उनपर चलती हुई रेलगाड़ियाँ देखूं,
जो दूरियां मिटाती हुई,बिछड़ों को मिलाती है
ऊपर   फैले हुए निर्जीव तारों के जाल को देखूं,
जिनमे बहती विद्युत् धारा,
रेल को गतिमान करती है
या पटरियों के वे जोइंट देखूं,
जहाँ से रेल,दलबदलू नेताओं कि तरह,
पटरियां बदलती है
पटरियों के किनारे,सुबह सुबह,
शंका निवारण करते हुए,
झुग्गी झोंपड़ी वासियों की कतार देखूं
या उनके पीछे खड़ी हुई,
उनका उपहास उडाती ,
अट्टालिकाओं का  अंबार देखूं
मै इसी शशोपज में था कि,
पासवाली रेल लाइन पर सामने से,
तेज गति से एक रेल आती है
और विपरीत दिशाओं में जाने के कारण,
विरोधाभास उत्पन्न करती हुई,
दूनी गति का आभास कराती है
इसी विरोधाभास को देख कर लगता है,
क्यों बढती जा रही,
अमीरी और गरीबी के बीच की दूरियां है 
ये तो कभी ना मिल सकने वाली,
रेल की पटरियां है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रेलवे के सफ़र का बदलाव

रेलवे के सफ़र का बदलाव

रेलवे के सफ़र में बदलाव कितना आ गया है

याद है पहले सफ़र में,निकलते थे जब कभी हम
पेटी और होल्डाल बिस्तर,साथ रखते थे सभी हम
पानी का जग,एक दो दिन का जरूरी साथ खाना
और भारी भीड़ में भी ट्रेन में घुसना,घुसाना
हवा वाली,बंद वाली,कांच वाली खिड़कियाँ थी
और नीचे  सीट पर पटिया लगा या लकड़ियाँ थी
निकलता स्टीम इंजिन से धकाधक धुवाँ काला
और मिटटी के सकोरों में भरा चाय का प्याला
ट्रेन रुकते,प्याऊ नल पर,यात्रियों की जोरा जोरी
वो गरम छोले भठूरे,पूरी सब्जी और कचोडी
पर समय के साथ बदली ,रेलगाड़ी की कहानी
तेज गति चलती दुरंतो,और शताब्दी,राजधानी
लगा रहता सभी सीटों पर नरम गद्दा ,मुलायम
बिस्तर,तकिया और कम्बल,एसी का खुशनुमा मौसम
सर्व होता सीटों पर ही ,नाश्ता और खाना पीना
ट्रेन बिजली से चले,काला धुंवा उठता  कभी ना
तेज गति से नापती है,दूरियां थोड़े समय मे
सरसराती दौड़ती है,सभी ट्रेने,एक लय  में
केबिनों में लगे परदे,साज सज्जा ,सब नया है
रेलवे के सफ़र में बदलाव कितना आ गया है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

देशी और विदेशी लोगों में अंतर

   देशी और विदेशी लोगों में अंतर

उनने पूछा विदेशों में घूमते रहते हो तुम,
              विदेशी लोगों में ,हममे,फर्क क्या  बतलाईये
हमने बोला वो भी इन्सां,हम भी इन्सां,रहने को,
              उनको भी घर चाहिए और हमको भी घर चाहिये
दोनो को ही अपना तन ढकने को कपडे चाहिये,
              और सोने के लिये ,तकिया और बिस्तर  चाहिये
गोरे है वो ,काला करते ,धूप में बैठे बदन ,
             और हमको गोरा होने क्रीम पावडर  चाहिये
पेट भरने,उनको ,हमको,सबको खाना चाहिये,
              मगर उनको साथ में ,वाईन या बीयर चाहिये
एक के संग घर बसा कर उम्र भर रहते है हम,
              और बदलते पार्टनर ,उनको अधिकतर चाहिये
हमको पढने और  उनको पोंछने के वास्ते,
               सवेरे ही सवेरे  ,दोनों को पेपर    चाहिये           

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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