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बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

चबा के अपनी जेबों में हिंदुस्तान रखते हैं

सीमाओं पर ये फौजी अपनी हथेली पे जान रखते हैं
अजीब सरफिरे हैं जो खुद को वतन पे कुर्बान करते हैं |

खुश रहे सलामत रहे उनके वतन का आम-ओ खास
गजब हैं फौजी कितना असल खुदका ये इमान रखते हैं |


उन्हें क्या पता की कैसे कैसे देश में हुक्मरान रहते हैं
जो चबा -चबा के अपनी जेबों में हिंदुस्तान रखते हैं |

मेरे देश में ये कैसी हवाएं चली है आजकल दोस्तों
वतन के गद्दार ही यहाँ फ़ौज पर शासन करते हैं |

अब सजा के क्या क्या बेचोगे "अमोल" यहाँ तुम
पंडित-मुल्ला भी यहाँ जेबों में कफ़न लिए घूमते हैं |

(यह रचना "काव्य संसार" फेसबुक समूह से ली गयी है ।)

खोखले वादे


टूटती उमीदों के रिसते,
जख्मों पर ,
खोखले वादों का मरहम लगाकर ,
मानवीय संवेदनाओं के साथ खेलना ,
कब तक चलेगा ,
निराश हताश सी मानवीयता ,
अनैतिकता की बुलंद होती ,
इमारतों पर ,
अट्टहास करते ,
नैतिकता के शत्रु ,
रौदेंगे कब तक ,
चीत्कार करती मानवता ,
किसी अवतार की ,
कब तक करेगी प्रतीक्षा ,
आहों से उपजी पीडाओं का ,
क्रंदन कब तक ,
कौन बनेगा अवलंबन ,
मानवीयता का ,
धर्म के नाम पर अधर्म
की गाथा से काले होते ,
पन्ने इतिहास के ,
कौन धोएगा ,
इन यक्ष प्रश्नों को ,
कब तक रहना होगा ,
अनुत्तरित -

(यह रचना फेसबुक समूह "काव्य संसार" से ली गयी है )



रचनाकार:-विनोद भगत
काशीपुर, उत्तराखंड

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा

आज अपने, सुप्त सपने, फिर जगाने जा रहा,
जिन्दगी को, एक हसीं, अब मोड़ देने जा रहा ।

चाहता हूँ, पतझड़ों में, चंद हरियाली भरुँ,
बंजरों में, आज फिर एक,बीज बोने जा रहा ।

देख लेंगे, तेज कितना, टिमटिमाते "दीप" में है,
सख्त दरख्तों, में भी कोंपल, फिर फुटाने जा रहा ।

आए हैं वो, आज फिर से,बनके एक हमदर्द-सा,
जब मैं सारे, दर्द को,दिल से भुलाने जा रहा ।

पत्थरों को, घिस कर अब, आग जलती है नहीं,
आग जो, दिल में लगी, उसे अब बुझाने जा रहा ।

देखा है खुद, गैरों को, अपनो के साये में ढले,
फूलों से अब, काँटों को चुन-चुन हटाने जा रहा ।

हो गया अब, आँसुओं से, मुँह धोने का रसम,
जिंदगी को, जीतकर अब, जश्न मनाने जा रहा ।

बस हुआ, सपनों में गिरना, गिरते-गिरते दौड़ना,
अपने साये, पे अब अपना, हक जमाने जा रहा ।

सोच में हैं, वो कि हमसे, क्या कहे क्या न कहे,
मैं हूँ कि, उनकी हरेक, बातें भुलाने जा रहा ।

आँहे भरते, जीने का अब,वक्त पूरा हो चुका,
जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा ।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

बूढों का हो कैसा बसंत?

बूढों का हो कैसा बसंत?
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पीला रंग सरसों फूल गयी
मधु देना अब ऋतू भूल गयी
सब इच्छाएं प्रतिकूल गयी
        यौवन का जैसे हुआ अंत
        बूढों का हो कैसा बसंत
गलबाहें क्या हो,झुकी कमर
चल चितवन, धुंधली हुई नज़र
क्या रस विलास अब गयी उमर
         लग गया सभी पर प्रतिबन्ध
          बूढों का हो कैसा बसंत
था चहक रहा जो भरा नीड़
संग छोड़ गए सब,बसी पीड़
धुंधली यादें,मन है अधीर
          है सभी समस्यायें दुरंत
          बूढों का हो कैसा बसंत
मन यौवन सा मदहोश नहीं
बिजली भर दे वो जोश नहीं
संयम है पर संतोष नहीं
        मन है मलंग,तन हुआ संत
         बूढों का हो कैसा बसंत

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



सरस्वती वंदना

बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा दिवस पर
सभी साहित्य प्रेमियों को घोटू की शुभकामनायें
माँ सरस्वती आपके सृजन को पुष्पित और पल्लवित करे
इसी शुभकामना के साथ सरस्वती वंदना के दो छंद

सरस्वती वंदना
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वीनापाणी, तुम्हारी वीणा ,मुझको स्वर दे
नव जीवन ,उत्साह नया माँ मुझ में भर दे
पथ सुनसान ,भटकता सा राही हूँ मै,
ज्योति तुम्हारी निर्गम पथ ,ज्योतिर्मय करदे
                        २
मात,मेरी प्रेरणा बन,प्रेम दो ,नव ज्योति दो ,
मै तुम्हारा स्वर बनू,हँसता रहूँ ,गाता रहूँ
प्यार दो ,झंकार दो ,ओ देवी स्वर की सुरसरी
तान दो ,हर बार मै ,हर लय नयी ,लाता रहूँ
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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