एक सन्देश-

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सोमवार, 27 जून 2016

बोलो अब खुश हो ना

  

हम मनमानी नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
कुछ शैतानी ,नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
तुम्हारा हर कहा,हमेशा ,सर ,आँखों पर लेंगे ,
आनाकानी नहीं करेंगे, बोलो अब खुश  हो ना 
मज़ा हमे आता है तुमसे ,छेड़छाड़ करने में ,
छेड़ाखानी नहीं करेंगे, बोलो अब खुश हो ना 
मन बहलाने ,इधर उधर ना ताकेंगे,झांकेंगे ,
कारस्तानी नहीं करेंगे,बोलो अब खुश हो ना 
तुम्हारी मुस्कान ,हमारी यही जमा पूँजी है ,
वो बेगानी नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
मै तुम्हारी बातें मानूँ ,और तुम मेरी मानो,
जीने में होगी आसानी ,बोलो अब खुश हो ना 
तुम पतवार और मै मांझी,मिलकर पार करेंगे,
जीवन की  दरिया तूफानी ,बोलो अब खुश हो ना 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

विदेश प्रवास

   

हम तो है ऐसे दीवाने 
जाते तो है होटल, खाने,
पर खाना है घर का खाते ,
      निज टिफिन साथ में ले जाते 
छुट्टी में जाते है विदेश 
ये सोच करेंगें वहां ऐश 
पर ये देखो और वो देखो,
      चलते चलते  है थक जाते 
चक्कर में रूपये ,डॉलर के 
ना रहे घाट के  ,ना घर के 
फिर भी थैली में भर भरके ,
       हम  माल विदेशी है लाते 
हम उन  महिलाओं जैसे है
खरचे, जो पति के पैसे  है  
पर मइके के गुण गाती है ,
         हम गुण विदेश के गाते है 

घोटू 

नहीं समझ में आया

   

चार दिनों  के इस जीवन में  ,इतनी खटपट करके ,
क्यों की इतनी भागा दौड़ी ,नहीं समझ में  आया 
खाली हाथों आये थे और खाली हाथों  जाना ,
फिर क्यों इतनी माया जोड़ी ,नहीं समझ में आया 
ऐसे ,वैसे ,जैसे तैसे ,हम उनका दिल जीतें ,
हमने कोई कसर न छोड़ी ,नहीं समझ में आया 
न तो गाँठ में फूटी कौड़ी ,ना ही तन में दम है,
फिर भी बातें लम्बी चौड़ी ,नहीं समझ में आया 
शादी का लड्डू खाओ या ना खाओ ,पछताओ,
फिर भी मै चढ़ बैठा घोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
मुझे प्यार जतलाना अच्छा ,लगता,वो चिढ़ते है,
कैसी राम मिलाई जोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया  
दूर  के पर्वत लगे सुहाने ,पास आये तो पत्थर ,
हमने यूं ही टांगें तोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
अच्छे कल की आशा में ,बेकल हो जीवन जिया ,
बीत गई ये उमर निगोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अकड़

            

बड़े  रौब  से  हमने  काटी  जवानी ,
बड़ी शान से तब ,अकड़ कर के चलते ,
जो बच्चे हमारे  ,इशारों पर  चलते 
बड़े हो अकड़ते ,यूं नज़रें बदलते   
अकड़ रौब  सारा ,हुआ अब नदारद ,
अकड़ का बुढ़ापे में ,ऐसा चलन है 
जरा देर बैठो ,अकड़ती  कमर है ,
थकावट के मारे ,अकड़ता बदन है 
जरा लम्बे चल लो, अकड़ती है टांगें ,
अगर देखो टीवी ,अकड़ती है गरदन 
अकड़ती कभी उँगलियाँ या  कलाई,
अकड़ की पकड़ में  ,फंसा सारा है तन 

घोटू 

शनिवार, 25 जून 2016

कहीं देर न होजाये

         कहीं देर न होजाये

याद है अच्छी तरह से ,हमे अपने बचपन में ,
आसमा देखते थे ,नीला नीला लगता था ,
आजकल धुंधलका इतना भरा फिजाओं में ,
मुद्द्तें हो गई ,वो  नीला आसमां न दिखा
अँधेरा होते ही जब तारे टिमटिमाते थे,
घरों की छतों पर आ चांदनी पसरती थी ,
चांदनी में पिरोया करते सुई में धागा ,
पूर्णिमा का मगर ,वो वैसा चन्द्रमा न दिखा
थपेड़े मार कर ठंडी  हवा  सुलाती थी ,
सुनहरी धूप,सुबह ,थपकी दे जगाती थी,
चैन की नींद जितनी हमने सोयी बचपन में ,
क्या कभी ,फिर कहीं ,हमको नसीब होगी क्या
वो बरसती हुई सावन की रिमझिमें ,जिसमे,
भीग कर ,कूद कूद,नाचा गाया करते थे ,
वक़्त ने इस तरह माहौल बदल डाला है,
कभी कुदरत ,हमारे ,फिर करीब होगी क्या
इस कदर हो गया भौतिक है आज का इन्सां ,
दिनों दिन बढ़ती ही जाती है भूख पाने की ,
आज के दौर  में,ये दौड़ ,होड़ की अंधी ,
सभी छोड़ पीछे ,लोग भागते  आगे
हवाओं में कहीं इतना जहर न भर जाए ,
सांस लेने में भी हम सबको परेशानी हो,
अभी भी वक़्त है ,थोड़ा सा हम सम्भल जाएँ ,
देर हो जायेगी ,अब भी जो अगर ना जागे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बड़े बनने की कला

       बड़े बनने की कला

जब तुम अपने से छोटे का वजूद भुला ,
खुद के बड़े होने की बात बताते हो 
तो तुम खुद छोटे हो जाते हो 
पहले ,एक रूपये के चौंसठ पैसे होते थे ,
और एक पैसे की भी तीन पाई थी
जो सबसे छोटी इकाई थी
अधेला,दो पैसा,इकन्नी,दुवन्नी ,
चवन्नी और अठन्नी होती थी
तब एक पैसे की भी वेल्यू होती थी
और रुपैया होता बड़ा दमदार था
वो कहलाता कलदार था
फिर एक रूपये के सौ पैसे हुए,
और धीरे धीरे पैसा छोटा होता गया
तो रुपया भी अपनी अहमियत खोता गया
समय के साथ एक,दो ,पांच,दस और बीस ,
पैसे के सिक्के लुप्त होते गए ,
और फिर चवन्नी की भी नहीं चली
आज अठन्नी का अस्तित्व तो है ,
पर नाममात्र का है,
न जाने कब बंद हो जाए ये पगली
देखलो ,किस तरह दिन फिरते है
सड़क पर पड़ी अठन्नी को उठाने के लिए,
लोग झुकने की जहमत नहीं करते है
जैसे जैसे रुपया ,बड़ी मछलियों की तरह ,
अपनी ही छोटी छोटी मछलियों को खाता गया
अपनी ही कीमत घटाता गया
क्योंकि छोटे के सामने ही ,
बड़ों की कीमत आंकी जाती है
जब कोई छोटी लकीर होती है ,
तभी कोई दूसरी लकीर ,बड़ी कहलाती है
इसलिए ,यदि बड़े बनना है,
तो अपने से छोटे का अस्तित्व बना रहने दो
अपनी इकन्नी,दुअन्नी ,चवन्नी को ,
लुप्त मत होने  दो
अपनी कलदार वाली गरिमा को मत खोने दो
क्योंकि जब तक छोटे है ,
तब तक ही तुम बड़े कहलाओगे
वर्ना एक दिन ,एक छोटी सी इकाई ,
बन कर रह जाओगे
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

सफलता के पेड़े

          सफलता के पेड़े 

करने पड़ते पार रास्ते ,जग के टेढ़े मेढ़े
सहना पड़ते तूफानों के ,हमको कई थपेड़े
पग पग पर बाधायें मिलती अपनी बांह पसारे,
परेशान करते है हमको ,कितने रोज बखेड़े
अगर हौंसला जो बुलंद है,तो किसमे हिम्मत है,
एक बाल भी कोई तुम्हारा ,आये और उंखेडे 
कहते,विद्या ना मिलती है,बिना छड़ी के खाये ,
कान तुम्हारे अगर गुरूजी ने जो नहीं उमेडे 
सुखमय जीवन जीने का है यही तरीका सच्चा ,
शांत रहो, प्रतिकार करो मत,कोई कितना  छेड़े
सच्ची लगन ,बलवती इच्छा और साहस हो मन में ,
तो फिर पार लगा करते है, आसानी  से  बेड़े
कितनी खटपट,कितने झंझट ,हमे झेलने पड़ते ,
तभी सफलता के मिलते है,खाने हमको पेड़े 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है
योगी भी हूँ, भोगी भी हूँ ,
और थोड़ा सा ,ढोंगी भी हूँ,
बहुत विदेशों में घूमा हूँ ,
शौक मगर फिर भी देशी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
पीज़ा भी अच्छा लगता है ,
डोसा भी है मुझको भाता
चाउमिन से स्वाद बदलता ,
और बर्गर खा कर मुस्काता
लेकिन रोज रोज खाने में ,
दाल और रोटी   ही खाता
केक पेस्ट्री कभी कभी ही,
चख लेना बस मुझे सुहाता 
किन्तु जलेबी ,गरम गरम हो,
या गुलाबजामुन रस डूबे,
खुद को रोक नहीं मै पाता ,
गर मिठाई रबड़ी जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
कभी ,नहीं दुःख में रो पाता ,
कभी ख़ुशी में आंसूं आते
मैंने अब तक उम्र गुजारी ,
बस यूं ही ,हँसते,मुस्काते
चेहरे पर खुशियां ओढ़ी है
अपने मन का दर्द छिपाते
थोड़ा चलना अब सीखा हूँ,
धीरे धीरे ,ठोकर  खाते
कितनी बार गिरा,सम्भला हूँ,
पर फिर भी ना हिम्मत हारी ,
मुझे पता है ,टेडी मेढ़ी ,
जीवन की राहें कैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
 मुझे नहीं बिलकुल आता है,
किसी फटे में टांग अड़ाना 
कोई बेगानी शादी में ,
बनना अब्दुल्ला ,दीवाना
बन मुंगेरीलाल देखना ,
सपना कोई हसीन,सुहाना
डींग मारना बहादुरी की ,
कॉकरोच से पर डर जाना
लाख शेरदिल कहता खुद को ,
लेकिन बीबी से डरता हूँ ,
उसके आगे मेरी हालत,
हो जाती गीदड़ जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बदलाव

               बदलाव

याद हमे वो कर लेते है ,तीज और  त्योंहारों में
ये क्या कम है ,अब भी हम ,रहते है उनके ख्यालों में
एक जमाना होता था जब  हम मिलते थे रोज ,
नाम हमारा पहला होता ,उनके चाहने वालो में
सच बतलाना ,कभी याद कर  ,वो बीते  लम्हे ,
क्या अब भी झन झन होती है ,दिल के तारों में
साथ समय के ,ये किस्मत भी ,रंग बदलती है ,
कितना परिवर्तन आता ,सबके व्यवहारों में
अब ना तो फूलों की खुशबू ,मन महकाती है,
और चुभन भी ना लगती है ,अब तो खारों में
समझ न आता ,मै बदला हूँ,या बदले है आप,
पर ये सच,बदलाव आ गया ,इतने सालों में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आंसू

            आंसू

 व्यथा और खुशियां सारी ,छलकाते आंसूं
दिल के जाने किस कोने से , आते  आंसूं
कहने को तो पानी की  बूँदें  कुछ होती 
आँखों से निकला करती है ,बन कर मोती 
ये कुछ बूँदें गालों पर जब करती ढलका
मन का सारा भारीपन ,हो जाता  हल्का
तो क्या ये अश्रुजल होता इतना भारी
पिघला देती ,जिसे व्यथा की एक चिंगारी
शायद दिल में कोई दर्द जमा रहता है
जो कि पिघलता ,और आंसूं बन कर बहता है
इसमें क्यों होता हल्का हल्का खारापन
क्यों इसके बह जाने से हल्का होता मन
अधिक ख़ुशी में भी ये आँखें भर देते है
प्रकट भावनाएं सब दिल की ,कर देते है
भावों की गंगा जमुना बन बहते आंसूं
दो बूँदों में ,जाने क्या क्या  कहते आंसूं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

थोड़ा सा एडजस्टमेंट

         थोड़ा सा एडजस्टमेंट

थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
पति पर अक्सर रौब जमाने वाली बीबी को,
कभी कभी तो अपने पति से डरना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
भरी ट्रैन के हर डिब्बे में ,हर स्टेशन पर ,
चार मुसाफिर अगर उतरते ,तो छह चढ़ते है
रखने को सामान ,ठीक से पीठ टिकाने को,
थोड़ी जगह ,कहीं मिल जाए ,कोशिश करते है
ट्रैन चली,दो बात हुई ,सब हो जाते है सेट,
सफर जिंदगी का ऐसे ही कटना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान  पराये घर से ,दुल्हन आती है,
उसके घर का अपना कल्चर ,परम्पराएं है
ससुराल में नए लोग है ,वातावरण नया ,
जीवनसंगिनी बना पियाजी उसको लाये है
शुरू शुरू में ,थोड़ी सी  दिक्कत तो आती है,
चार दिनों में वो घर उसको ,अपना लगता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पुरुष जब  बनता जीवन साथी है ,
उसकी आदत,खानपान का ज्ञान जरूरी है
सच्चे मन से ,एक दूजे को अगर समर्पित हो ,
तभी एकरसता आती है,मिटती दूरी है
कभी ढालना पड़ता उसको अपने साँचे में ,
कभी कभी उसके साँचे में  ढलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
बच्चे जब छोटे होते ,सब बात मानते है ,
लेकिन उनकी सोच समय के साथ बदलती है
होता है टकराव ,पीढ़ियों के जब अंतर में ,
अपनी जिद पर अड़े रहोगे ,तो ये गलती है
थोड़ा सा झुक जाने से यदि खुशियां आती है ,
तो हंस कर ,हमको उस रस्ते चलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तुम्हे अगर जो कुछ होता है...

             तुम्हे अगर जो कुछ होता है...

तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
क्योंकि हमारा और तुम्हारा ,जन्मों जन्मों का नाता है
तुमको जरा पीर होती है ,हम अधीर से हो जाते है
तेज धूप तुमको लगती है ,और इधर हम कुम्हलाते है
 तुम्हारी आँखों में आंसू  ,देख हमारा दिल रोता है
पता नहीं ये क्यों होता है,पर ये सच, ऐसा होता है
चीख हमारी निकला करती ,जब तुमको चुभता काँटा है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
हल्की तुम्हे हरारत होती ,चढ़ जाता बुखार हमे है
 एक हाल में  हम जीते है ,इतना तुमसे प्यार हमे है
चेहरा देख उदास तुम्हारा ,हम पर मायूसी छाती है
तुम गमगीन नज़र आते तो ,अपनी रंगत उड़ जाती है
देख तुम्हारी बेचैनी को ,चैन नहीं ये दिल पाता है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत  कुछ हो जाता है
पर जब जब तुम मुस्काते हो ,मेरा मन भी मुस्काता है
देख ख़ुशी से रोशन चेहरा ,बाग़ बाग़ दिल हो जाता  है
कभी खिलखिला जब तुम हँसते ,दिल की कलियाँ खिल जाती है 
रौनक देख तुम्हारे मुख पर ,मेरी रौनक बढ़ जाती है
देख खनकता मुख तुम्हारा ,मेरा मन हँसता गाता है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
हम तुम बने एक माटी के ,एक खून बहता है रग में
तुम पर जान छिड़कता हूँ मैं ,तुम मुझको सबसे प्रिय जग में
यह सब नियति का  लेखा है,बहुत दूर जा बैठे हो तुम
हमको चिता बहुत तुम्हारी ,दिल के टुकड़े ,बेटे हो तुम
लाख दूरियां हो पर खूं का ,रिश्ता नहीं बदल पाता  है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है,हमे बहुत कुछ हो जाता है

मदन मोहन बाहेती  'घोटू'

बुधवार, 22 जून 2016

मैं नारी हूँ

 मैं नारी हूँ

मैं विद्या ,संगीत,कविता ,सरस्वती का रूप ,
धन ,वैभव ,ऐष्वर्य दायिनी हूँ,मैं लक्ष्मी  हूँ
मैं ही माता ,मैं ही पत्नी ,मैं ही भगिनी हूँ,
अन्नपूर्णा ,मैं दुर्गा हूँ ,जग की जननी हूँ,
मैं ही धरा हूँ,मैं ही गंगा,मैं ही कालिंदी हूँ,
मैं रति भी हूँ,पार्वती हूँ ,और मैं काली हूँ
मैं शक्ति का रूप मगर मैं क्यों दुखियारी हूँ,
अपनी व्यथा कहूं मैं किस से,मैं तो  नारी हूँ
मातपिता के अनुशासन में बचपन कटता है,
और पति के अनुशासन में कटता यौवन है
बेटे बहू,बुढ़ापे में ,अनुशासित करते है,
क्यों नारी पर ,सदा उमर भर,रहता बंधन है
कभी भ्रूण में मारी जाती ,कभी जन्म के बाद,
कभी दहेज के खतिर मुझे जलाया जाता  है
कभी मुझे बेचा जाता है ,भरे बाजारों में ,
मुझको नोचा जाता है  ,तडफाया जाता है
वरण स्वयंबर में तो मुझको करता अर्जुन है,
पांच पति की भोग्या मुझे बनाया जाता है
भरी सभा में चीरहरण दुःशासन करता है,
जुवे में क्यों ,मुझको दाव लगाया जाता है 
ममता भरी यशोदा सौ सौ आंसूं रोती  है ,
राजपाट पा ,राजाबेटा ,उसे भुलाता है
क्यों राधा की प्रीत भुला कर ,कृश्णकन्हैया भी ,
आठ आठ पटरानी के संग ब्याह रचाता है
इंद्र,रूप धर मेरे पति का,छल करता मुझसे ,
तो पाषाणशिला बन मैं क्यों शापित होती हूँ
क्यों सिद्धार्थ ,बुद्ध बनने को,मुझे त्यागता है ,
यशोधरा मैं ,दुखियारी,जीवन भर रोती हूँ
वन में पग पग साथ निभाने वाली सीता का ,
अगर हरण कर ले रावण,क्या सीता दोषी है
राम युद्ध कर,उसे दिलाते ,मुक्ति रावण से ,
क्यों सतीत्व की उसके अग्नि परीक्षा होती है
लोकलाज के डर से मर्यादा पुरुषोत्तम भी ,
गर्भवती सीता को वन में भिजवा देते है 
रामचरितमानस में तुलसी कभी पूजते है ,
कभी ताड़ना का अधिकारी ,उसको कहते है
भातृप्रेम में लक्ष्मण ,भ्राता संग वन जाते है ,
चौदह बरस उर्मिला ,विरहन,रहती रोती  है
जीवन को गति देनेवाली ,देवी स्वरूपा की,
युगों युगों से ,फिर क्यों ऐसी,दुर्गति होती है
ऊँगली पकड़ सिखाती चलना अपने बच्चों को,
सदाचरण का पाठ पढ़ाती,पहली शिक्षक है
पति प्रेम में पतिव्रता बन ,जीती मरती है,
अनुगामिनी मात्र नहीं,वह मार्ग प्रदर्शक है
मैं  सुखदात्री,अपने पति की सच्ची साथी हूँ,
फिर क्यों दुनिया कहती मै अबला ,बेचारी हूँ
मैं शक्ति का रूप, मगर मैं क्यों दुखियारी हूँ  ,
अपनी व्यथा कहूं मैं किससे ,मैं तो नारी हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

स्मार्ट फोन

 स्मार्ट फोन

जवान होती हुई बेटी, कई दिनों से ,
स्मार्टफोन की जिद कर  रही थी
पर ये बात ,उसके पिता के गले,
 नहीं उतर रही थी
उनकी सोच थी कि स्मार्ट फोन आने से ,
उनकी बेटी उसकी 'एडिक्ट 'हो जाएगी
दिन भर फेसबुक ,व्हाट्सएप में उलझी रहेगी,
पढ़ाई से उसकी रूचि खो जाएगी
माँ ने अपने पति को समझाया
हमने उसको इतना पढ़ाया,लिखाया
कुकिंग की क्लासेस दिलवाई,
होम मैनेजमेंट के गुण  सिखलाये
इसीलिये ना ,कि शादी के बाद ,
वो अपनी गृहस्थी ,ठीक से चला पाये
अब उसे स्मार्टफोन दिलवा दो ,
क्योंकि ये भी ,शादी के बाद ,
सुखी जीवन जीने की कला सिखाता है
इससे ,ऊँगली के इशारों पर ,
दुनिया को नचाने का ,आर्ट आ जाता है
और शादी के बाद ,यदि उसे सुख चाहिए
तो उसे ,अपने पति को ,उँगलियों पर ,
नचाने की कला आनी  चाहिए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शौक़ीन बुढ्ढे

       शौक़ीन बुढ्ढे  

ये बुढ्ढे बड़े शौक़ीन होते है
मीठी मीठी बातें करते है मगर नमकीन होते है
ये बुढ्ढे  बड़े शौक़ीन होते है
यूं तो सदाचार के लेक्चर झाड़ते है
पर  मौक़ा मिलते ही ,
आती जाती लड़कियों को  ताड़ते है
देख कर  मचलती जवानी
इनके मुंह में भर आता है पानीे 
और फिर जाने क्या क्या ख्वाब  बुनते   है
फिर अपनी मजबूरी को देख ,अपना सर धुनते है
पतझड़ के पीले पड़े पत्ते है ,जाने कब झड़ जाएंगे
पर हवा को देखेंगे,तो हाथ हिलाएंगे
जीवन की आधी अधूरी तमन्नाये,
उमर के इस मोड़ पर आकर, कसमसाने   लगती है
जी  चाहता है ,बचीखुची सारी हसरतें पूरी कर लें,
पर उमर आड़े  आने लगती है
समंदर की लहरों की तरह ,कामनाएं,
किनारे पर थपेड़े खाकर ,
फिर  समंदर में विलीन हो जाती है
क्योंकि काया इतनी क्षीण हो जाती है
जब गुजरे जमाने की यादें आती  है
बड़ा तडफाती है
कभी कभी जब बासी कढ़ी में उबाल आता है
मन में बड़ा मलाल आता है
देख कर के मॉडर्न लिविंग स्टाइल
तड़फ उठता  होगा उनका दिल
क्योंकि उनके जमाने में ,
 न टीवी होता था ,ना ही मोबाइल 
न फेसबुक थी न इंटरनेट पर चेटिंग
न लड़कियों संग घूमना फिरना ,न डेटिंग
माँ बाप जिसके पल्ले बाँध देते थे
उसी के साथ जिंदगी गुजार देते थे
पर देख कर के आज के हालात
क्या भगवान उन्हें साठ साल बाद ,
पैदा नहीं कर सकता था ,ऐसा सोचते होंगे
और अपनी बदकिस्मती पर ,
अपना सर नोचते होंगे
उनके जमाने में
मिलती थी खाने में
वो ही दाल और रोटी अक्सर
उन दिनों ,कहाँ होता था,
पीज़ा,नूडल और बर्गर
आज के युग की लोगों की तो चांदी है
उन्हें दुनिया भर के व्यंजन  खाने की आजादी है
आज का रहन सहन ,
ये वस्त्रों का खुलापन
और उस पर लड़कियों का ,
ये बिंदास आचरण
उनके मुंह में पानी ला देता होगा
बुझती हुई आँखों को चमका देता होगा
ख्यालों से मन  बहला देता होगा
जब भी किसी हसीना के दीदार होते है
ये फूंके हुए कारतूस ,
फिर से चलने को तैयार होते है
अपने आप को जवान  समझ कर ,
बुने गए इनके सपने ,बड़े रंगीन होते है
ये बुढ्ढे ,बड़े शौक़ीन होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



 
  

सेंटिमेंटल बुढ्ढे

सेंटिमेंटल बुढ्ढे

ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
जो बच्चे उन्हें याद तक  करते,
उन्ही की याद में रोते  है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
ये ठीक है उन्होंने बच्चों को पाला पोसा ,
लिखाया ,पढ़ाया
आगे बढ़ाया
तो ऐसा कौनसा  अहसान कर दिया
यह तो उनका कर्तव्य था ,जब उनने जन्म दिया
अपने लगाए हुए पौधे को ,सभी सींचते है ,
यही सोच कर कि ,फूल खिले,फल आएं
सब की  होती है ,अपनी अपनी अपेक्षाएं
तो क्या बच्चे बड़े होने पर ,
श्रवणकुमार बन कर,
पूरी ही करते रहें उनकी अपेक्षाएं
और अपनी जिंदगी ,अपने ढंग से न जी पाएं
उनने अपने ढंग से अपनी जिंदगी जी है ,
और हमे अपने ढंग से ,जिंदगी करनी बसर है
हमारी और उनकी सोच में और जीने के ढंग में ,
पीढ़ी का अंतर है
उनके हिसाब से अपनी जिंदगी क्यों बिताएं
हमें पीज़ा पसंद है तो सादी रोटी क्यों खाएं
युग बदल गया है ,जीवन पद्धति बदल गयी है
हम पुराने ढर्रे पर चलना नहीं चाहते,
हमारी सोच नयी है
और अगर हम उनके हिसाब से  नहीं चलते है,
तो मेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
हर बात में शिक्षा ,हर बात में ज्ञान  
क्या यही होती है बुजुर्गियत की पहचान
हर बात पर  उनकी रोकटोक ,
सबको कर देती है परेशान
आज की मशीनी जिंदगी में ,
किसके पास टाइम है कि हर बार
उन्हें करे नमस्कार
हर बात पर उनकी सलाह मांगे
उनके आगे पीछे भागे
अरे,उनने अपने ढंग से  अपनी जिंदगी बिताली
और अब जब बैठें है खाली
कथा भागवत सुने,रामायण पढ़े
हमारे रास्ते में न अड़े
उनके पास टीवी है ,कार है
पैसे की कमी नहीं है
तो राम के नाम का स्मरण करें ,
उनके लिए ये ही सही है
क्योंकि जिस लोक में जाने की उनकी तैयारी है ,
वहां ये ही काम आएगा
साथ कुछ नहीं जाएगा
और ऐसा भी नहीं कि हम ,
उनके लिए कुछ नहीं करते है
'फादर्स डे 'पर फूल भेजते है ,गिफ्ट देते है
त्योंहारों पर उनके चरण छूते  है
और फंकशनो में 'वीआईपी 'स्थान देते है
हमे मालूम है कि हम उनके लिए कुछ करें न करें ,
वे हमेशा हमे आशीर्वाद बरसाते  रहेंगे
हमारी परेशानी में परेशान नज़र आते  रहेंगे
उनकी कोई भी बददुआ हमे मिल ही नहीं सकती ,
क्योंकि ये बड़े जेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े  सेंटिमेंटल होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 28 मई 2016

क्या सोचेंगे लोग

            क्या सोचेंगे लोग

सोच कभी मत मन में लाना,क्या सोचेंगे लोग
नहीं सोच कर ,ये घबराना ,क्या सोचेंगे  लोग
लोगों की तो आदत ही है, टोका  करते  है,
अच्छा बुरा करो कुछ भी ,तुमको टोचेंगे  लोग 
खाना अपने ढंग से खाओ ,जैसे भाता  हो,
वर्ना भूखे रह जाओगे  ,क्या सोचेंगे   लोग
नहीं भरोसा ,कभी किसी का,मतलब के सब यार,
जब भी मौका ,जिसे मिलेगा ,आ नोचेंगे लोग
जनमदिवस की खुशियां हो या मरने का गम हो,
अगर मुफ्त की दावत है तो ,आ पहुंचेंगे  लोग
अपनी ऊँगली ,उसे थमाना ,जो इस काबिल हो,
वर्ना ऊँगली से पोंची तक ,जा पहुंचेंगे  लोग
भला बुरा सब किस्मत के ही बस में  होता है,
हरेक बात में तुम्हारी ,गलती खोजेंगे  लोग

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 

मन को खलता है

        मन को खलता है

पास पास बैठें ,पर चुपचुप ,मन को खलता है
हाथ न जिसके कुछ आता ,हाथों को मलता है
यूं तो तन के ,एक कोने में ,धक धक करता है,
पर जब जिद पर आजाता दिल ,बहुत मचलता है
दुबली पतली तीली का मुंह,यूं   ही, काला   है ,
तो माचिस से ,टकराने  पर ,वो क्यों जलता है
नित नित ,झाग झाग हो साबुन ,जीवन  जीता है,
साफ़ दूसरों को  करता ,खुद तिल तिल  गलता है
 जलती हुई आग की ज्वाला ,भी बुझ जाती है,
शीतल शीतल ,जल का जादू,सब पर चलता है
रोज मुसाफिर ,आते जाते ,रात  बिताते  है ,
जग ,होटल के बिस्तर सा है,नहीं बदलता है
अलग मान्यता,अलग अलग ,जगहों पर होती है ,
पूजा जाता कहीं,कहीं पर ,रावण जलता  है
कंकरीले,पथरीले पथ पर ,ठोकर लगती है ,
एक बार जो गिर जाता है ,वही संभलता है
डंडे से यदि जो अनुशासन ,आये ,लाएंगे ,
हमको सोच बदलनी होगी ,सब कुछ चलता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 27 मई 2016

आदत बिगाड़ दी हमने

   आदत बिगाड़ दी हमने

उनके चेहरे पे निगाह ,अपनी गाढ  दी हमने
हुस्न के उनकी और  ,रंगत  निखार दी हमने
उनके  गालों के गुलाबों  को  थोड़ा सहलाया ,
उनकी उलझी हुई ,जुल्फें संवार  दी  हमने
उनके बहके थे कदम,डगमगा के गिर न पड़ें ,
थामने  उनको  थी,बाहें  पसार दी हमने
उनकी हाँ में हाँ करी ,और ना में ना बोला ,
हम पे इल्जाम है,आदत बिगाड़ दी  हमने
हुस्न के उनकी जो ,तारीफ़ के दो  कहे ,
लोग कहते है कि  किस्मत सुधार दी हमने
देखते  देखते हर और खबर फ़ैल गयी ,
प्यार की दौड़ में तो बाजी मार ली हमने

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


अच्छा लगता है

             अच्छा लगता है
कभी किसी पर,दिल आना भी ,अच्छा लगता है
सपनो  से ,मन बहलाना भी ,अच्छा  लगता है
वो जब गिरते हुए थामते ,अपनी बाहों में  ,
कभी कभी ठोकर खाना भी ,अच्छा लगता है
एक तरह का खाते  खाते  ,  मन उकताता है ,
कभी कभी  होटल जाना भी ,अच्छा लगता है
जब मन करता ,अपनी मरजी ,जी लें कभी कभी,
बीबी का मइके जाना भी ,अच्छा  लगता  है
अपने हाथों ,यदि वो पोंछें ,अपने आंचल से ,
तो कुछ आंसू ढलकाना भी ,अच्छा लगता है
फ़िल्मी गाने ,सुनते सुनते ,जब मन भरता है,
कभी कभी ,पक्का गाना भी ,अच्छा लगता है    
जब अपनी तारीफें सुन सुन ,वो इतराते है ,
उनका ऐसे इतराना भी ,अच्छा लगता है
दिन भर करके काम ,थके हम जल्दी सोते है,
पत्नी का मीठा ताना भी,अच्छा लगता  है
यही सोच कर ,साथ हूर का ,होगा जन्नत में,
कुछ लोगों को ,मर जाना भी ,अच्छा लगता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



बुधवार, 25 मई 2016

मज़ा

                    मज़ा

लिया ना लुत्फ़ सर्दी का ,धूप में बैठ फुरसत में,
          न खाई मूंगफलियां ही ,गज़क ना रेवड़ी खाई
मज़ा क्या वर्षा का ,रिमझिम में ,नाचे ना,नहीं भीगे ,
            चाय के संग ,खाने को ,पकोड़ी जो न तलवाई  
बरफ का गोला ठेले पर ,खूब चटखारे ले लेकर ,
       अगर हमने नहीं खाया ,मज़ा गर्मी का कब आया
रहे शादीशुदा लेकिन ,न खाई डाट बीबी की ,
      विवाहित जिंदगी का फिर ,मज़ा हमने ,कहाँ पाया

घोटू        

समर्पण

समर्पण

मै ईश्वर की सर्वोत्तम कृति,सबसे सुन्दर और न्यारी हूँ
तुम पत्थरदिल,मै कोमलहिय,फिर भी तुम पर बलिहारी हूँ
मेरा जीवन तुम्हारे हित ,तुम पर हूँ मै सदा समर्पित ,
तुम जो शालिग्राम बन गए ,तो मै तुलसी तुम्हारी हूँ

घोटू

ज्ञान की बात

  ज्ञान की बात

सयाने लोग कहते है ,निकलता कांटे से कांटा
हमेशा 'फारमूला  'ये ,मगर ना काम में  आता
भिगो कर चाय में बिस्कुट,अगर पियो,गिरे कप में ,
डुबा कर दूसरा बिस्कुट ,निकाल वो नहीं जाता

घोटू

ऐसा भी होता है

   ऐसा भी होता है

शोख भी थी ,चुलबुली थी,कटीली सुंदर हसीना ,
सताती थी,लुभाती थी ,दिखा कर अपनी अदाएं
मज़ा आता था हमे भी ,छेड़ते थे जब उसे हम,
वो खफा हो रूठ जाती ,मानती ना थी मनाए
परेशां होकर के उसने ,हमे एक दिन छूट  दे दी ,
ना , न बोलूंगी ,करो तुम ,जो तुम्हारे मन में आये
अचानक से पैंतरा उसका बदलता देख कर के ,
ऐसे भौंचक्के हुए हम, घबरा कुछ भी कर न पाये

घोटू

मै पानी हूँ

               मै पानी हूँ 

भरे सरोवर में ,मै मीठा ,और विशाल सागर में खारा
कभी छुपा गहरे कूवे में,कभी नदी सा बहता  प्यारा
कभी बादलों में भर उड़ता,कभी बरसता,रिमझिम,रिमझिम
गरमी में मै भाप जाऊं बन,सर्दी में बन बरफ जाऊं जम
मै धरती की प्यास बुझाता ,बीजों को मै करता विकसित
सत्तर प्रतिशत ,तन मानव का ,मुझसे ही होता है निर्मित
मैं  पानी  हूँ, बूँद  बूँद  में ,मेरी  जीवन  भरा  हुआ  है
मुझसे ही दुनिया का कानन ,फला ,फूलता हरा हुआ है
नहीं मिला यदि जो पीने को ,तुम प्यासे ही ,मर जाओगे
मैंने अन्न नहीं उपजाया ,कुछ न मिलेगा ,क्या खाओगे
शुद्ध रखो,मुझ को संरक्षित ,तो आबाद तुम्हे कर दूंगा
यदि मुझको बरबाद करोगे ,तो बरबाद तुम्हे कर दूंगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

नदिया से

         नदिया से

दौड़ समंदर से मिलने ,मत जा री नदिया
वरना  तू भी ,हो  जाएगी ,खारी  नदिया
निकल पहाड़ों से जंगल को कूदी,फांदी ,
कल कल करते,चलते चलते, हारी नदिया
जिसमे नहा ,पवित्र हो रहे ,जिसे पूजते,
हम मूरख ,हमने गन्दी कर डाली नदिया
सबका गंदापन ,सीने में रखे दबाये ,
बहती जाती,क्या करती ,बेचारी नदिया
जब जन्मी थी ,दुबली पतली ,प्यारी सी थी,
साथ समय के ,फैल गई ,दुखियारी नदिया
इसकी बिजली,बाँध ,बाँध लोगो ने छीनी ,
पर न पड़ी कमजोर ,न हिम्मत हारी नदिया
पिया मिलन की आस लगाए भाग रही है ,
सागर उर में,समा जायेगी ,प्यारी नदिया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंहगाई का त्रास

 मंहगाई का त्रास

बहुत मंहगा हो गया हर ग्रास अब  है
हो रहा  मंहगाई का अहसास  अब है
बिकता पानी बंद होकर  बोतलों में ,
बहुत मंहगी हो गई ये प्यास अब है
दाल मोतीचूर से भी अधिक  मंहगी,
सब्जियों ने भी मचाया  त्रास अब है
अरसे से हमने नहीं ली है डकारें ,
पेट ये पिचका बिचारा ,पास अब है
अंतड़ियां ये पूछती है ,क्या पचाएं ,
क्या चबाएं ,पूछते  सब  दांत अब है
भूखे रह कर ,सूखते ही जा रहे है ,
हो रहा ,अकाल का आभास अब है
बादलों ,बरसो ,धरा को तृप्त करदो,
एक तुम ही से बची कुछ आस अब है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रेमपथ

         प्रेमपथ

 कितने ही बड़े से बड़े साहब की घरवाली 
कितनी ही आधुनिक हो,सजीधजी, निराली
हर सुबह और शाम,
हाथ में बेलन थाम
अपने  रसोई घर में ,
करती मिलेगी काम
क्योंकि 'किचन' का ,
सुखी वैवाहिक जीवन से बड़ा नाता है 
पति के दिल का रास्ता ,
पेट से,'व्हाया 'किचन 'जाता है

घोटू

रविवार, 22 मई 2016

थोथा चना -बाजे घना

           थोथा चना -बाजे घना

बात करते है बदलने की सारी दुनिया को ,
        जरा भी खुद को मगर ये बदल नहीं पाये
बधें है ,दकियानूसी   पुराने  विचारों से ,
       अभी तक ,कैद से उनकी ,निकल  नहीं पाये
बिल्ली जो काटती रस्ता है तो ये रुक जाते ,
        राहुकालम में ,कोई  काम ,ये नहीं करते
छींक दे कोई तो इनके कदम सहम जाते ,
        कोई भी अपशकुन से आज भी बहुत डरते 
जिस  दिशा में हो दिशाशूल ,नहीं जाते है,
        मुताबिक़ वक़्त के बिलकुल भी नहीं ढल पाये 
बात करते है बदलने की सारी दुनिया को ,
             जरा  भी  खुद  को  मगर  ये  बदल  नहीं  पाये
सोम को दूध चढ़ाते है शिव की मूरत पर,
                         शनि को तैल चढ़ाते है शनि देवा पर
श्राद्ध में पंडितों को प्रेम से खिलाते है ,
                          बूढ़े माँ बाप की  करते नहीं  सेवा पर
  आदमी चलते चलते चाँद तलक पहुँच गया ,
                        ग्रहों के चक्र से पर ये नहीं निकल पाये
बात करते है बदलने की सारी दुनिया को ,
                      जरा भी खुद को मगर ये बदल नहीं पाये
छू लिया ,बेटियों ने आसमां सफलता का ,
                          बेटे और बेटी में ये अब भी मानते अंतर
दिखाने के लिए बाहर है कुरता खादी  का,
                        पहन के रख्खा है बनियान विदेशी   अंदर
ऐसे उलझे हुए है ,रूढ़ियों ,रिवाजों में ,
                     दो कदम भी समय के संग नहीं चल पाये
बात करते है बदलने की सारी दुनिया को ,
                        जरा भी खुद को मगर ये बदल नहीं पाये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'                   

डूबता जहाज-भागते चूहे

   डूबता जहाज-भागते चूहे

बहुत हो गया ,अब ना करनी चमचेबाजी
ये लो अपनी 'लकुटी कामरी 'अब अम्मा जी
झूंठी निष्ठां दिखा ,कब तलक तुम्हे साथ दें
एक एक कर निकल रहे सब राज्य हाथ से
और तुम हो कि सिरफ फायदा  अपना देखो
बेटेजी के  राजतिलक  का   सपना  देखो
न तो तुम्हारा बेटा कुरसी पर बैठेगा
ये लगता है ,ना वो घोड़ी कभी चढ़ेगा
स्वामिभक्त हम,इसीलिये कुछ नहीं बोलते
कब तक  ,उसके  आगे पीछे ,रहें डोलते
ना तो उसमे दम है और ना काबलियत है
इसीलिये ,हर जगह हो रही ये फजीयत है
अब ना हमसे ,होती है ,ये स्वामिभक्ति
उसके पीछे  चलें ,हाथ में लेकर तख्ती
तेरा लल्ला,झल्ला है ,क्या पकडे पल्ला
बैंकॉक को भाग जाएगा ,ये  ऐकल्ला
और यहाँ हम ,बैठे क्या पीटेंगे  ताली
नित्य उजागर होगी  जब करतूतें काली
अब तक आशा थी ,कि शायद बदल जाए दिन
 देख हवा का रुख ये लगता,अब नामुमकिन
कोई किरण आशा की नज़र नहीं अब आती
 कुछ न मिलेगा , ना मंत्री पद,न ही बाराती
हम लेंगे दल बदल ,कहीं बिठला कर गोटी
मिल ही जायेगी,कोई कुर्सी ,छोटी मोटी
कब तक करते रहें तुम्हारी हाँ में हांजी
ये लो अपनी 'लकुटी कामरी 'अब अम्माजी
बहुत हो गयी ,अब ना होती चमचेबाजी

घोटू
,

शुक्रवार, 20 मई 2016

डायबिटीज

डायबिटीज

तुम्हारी वो प्यारी प्यारी मधुर मुस्कान
मीठी मीठी रस भरी बातें
तुम्हारे सुन्दर रूप का  माधुर्य,
और 'हनीमून' पर'हनी '
याने शहद बरसाती रातें
तुम्हारे रसीले मधुर मधुर अधर
और  मीठी मीठी पप्पियाँ
जिनने मेरे    ,
इतना सारा मिठास है भर दिया
मेरे रक्त की एक एक बूँद को ,
तुम्हारे प्यार की मिठास ,
इतना भिगो गई है
 कि डॉक्टर कहते है ,
मुझे' डायबिटीज 'हो गयी है   

 मदन मोहन बाहेती'घोटू'    


अब रौब जमाना शुरू किया

    अब रौब जमाना शुरू किया

मैंने तारीफ़ की बढ़ चढ़ कर
मेरी कवितायें पढ़ पढ़ कर ,
मेरी पत्नी ने मुझ पर ही ,
            अब रौब जमाना शुरू किया
पहले जो कुछ ना कहती थी
बस  सेवा करती    रहती थी
उसने अब अपनी ऊँगली पर ,
              है मुझे  नचाना शुरू किया
लिख लिख कविता पत्नीवादी
हो   गई   मेरी  ही   बरबादी
मेरी बिल्ली थी ,मुझसे ही,
              अब म्याऊं म्याऊं कहती है
वो कभी डाटती है डट कर
और रौब गाँठती है मुझ पर ,
मइके  जाने की धमकी दे ,
                वो मुझे डराती रहती है
थी सीधी सादी  एक  गऊ
पर अब पीने लग गयी लहू ,
दिन भर की खीज और गुस्सा ,
         सब कुछ उतारती है मुझ पर
जो डाला अगर नहीं चारा
और नहीं प्यार से पुचकारा
तो देती नहीं दूध बिलकुल,
        और सींग मारती है मुझ पर
कुछ भूल हुई ऐसी भारी
निज पैरों मारी  कुल्हाड़ी
करवाई खुद  ऐसी तैसी ,
             हो गए बहुत ही परेशान
हम ऐसे जले दूध के है
अब पीते छाछ फूंक के है ,
कितनी ही ठोकर खायी है ,
        तब आया थोड़ा ,बहुत ज्ञान    
फरमाइश बढ़ती रोज रोज
वो मुझसे लड़ती  रोज रोज ,
उनकी इस हरकत ने मुझको,
       अब रोज खिजाना शुरू किया
मैंने तारीफ़ की बढ़ बढ़ कर
मेरी कविताएं पढ़ पढ़ कर ,
मेरी पत्नी ने मुझ पर ही  ,
       अब रौब जमाना शुरू किया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
  
             

चुपचाप ही रहा जाए

         चुपचाप ही रहा जाए

न जाने कौन बात ,उनके दिल को चुभ जाए
इससे बेहतर है ,कि चुपचाप  ही  रहा   जाए
हमने तारीफ़ की थी  चाँद जैसे  चेहरे की ,
चाँद में दाग है ,ये सोच  बुरा मान गए
हमने बोला कि तुममे नूर बरसे सूरज का ,
सूर्य में आग है ,ये सोच बुरा मान गए
उन्हें गुलाब के फूलों सा जो बताते है,
बुरा लगता है क्योंकि होते संग कांटे है
हमने बोला कि तुम जन्नत की परी लगती हो ,
बिगड़ गए वो कि जन्नतनशीं बताते है
हर एक बात को वो उलटे से ले लेते है,
उनकी तारीफ़ भला किस तरह से की जाए
इससे बेहतर है कि   चुपचाप  ही रहा  जाए
बताया उनकी जो आँखों को हिरणी जैसा ,
हम उन्हें जंगली कहते,वो खफा हो बैठे
सराही हमने उनकी जुल्फें लटके नागिन सी,
नागिने ,जहरीली  होती है ,समझ वो बैठे
कहा हमने उन्हें जो रूप का समंदर तो ,
बिगड़ गए वो कि खारा हम उन्हें कहते है
जब कि हम उनसे बेपनाह मोहब्ब्त करते ,
जान से भी अधिक प्यारा , हम उन्हें कहते है
हम तो कायल है ,उनके हुस्न के दीवाने है,
किस तरह समझाए ,हम को ये समझ ना आये
इससे  बेहतर  है कि  चुपचाप ही रहा  जाए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

सोमवार, 16 मई 2016

पत्नी को पटाओ

        पत्नी को पटाओ

जिसने अपनी पत्नीजी को साध लिया ,
समझो उसने ,सब दुनिया को साध लिया
सुख की सीताजी ,अब तो मिल ही जायेगी ,
तुमने हनुमन बन ,भरा समंदर लांघ लिया
ये पत्नी  होती ही  सीधी सादी है ,
थोड़ा प्यार दिखादो ,लुट लुट जाती है
जिनको आती ,कला पटाने की इनको ,
उनके जीवन में ,ये खुशियां बरसाती है
ये गायें है,दूध ढेर सारा देंगी ,
दाना खिला ,प्यार से जो पुचकारोगे
वर्ना इनके सींग बड़े ही पैने है,
ये तुम्हे चुभा कर मारेगी ,यदि मारोगे
कैसे भी हो,साथ निभाना जीवन भर
एक बार जो गठबंधन है बाँध लिया
जिसने अपनी पत्नी को है साध लिया ,
समझो उसने सब दुनिया को साध लिया
 मीठे मीठे वादों का चारा  डालो तुम,
बढ़िया बढ़िया ,गहने और कपडे पहनाओ
अच्छे अच्छे होटल में इनको ले जाओ,
तारीफें इनकी करो,प्रेम से सहलाओ
तुम यदि देवी समझ इन्हे जो पूजोगे ,
तो ये तुमको भी मानेगी  परमेश्वर
तुम लम्बी उमर जियो और खुशहाल रहो,
ये व्रत और पूजा कई करेगी ,जीवन भर 
ऐसे ही पति ,समझदार कहलाते है ,
जिनने हंस हंस कर ,जीवन का आल्हाद लिया
जिसने ,अपनी पत्नीजी को साध लिया ,
 समझो उसने सब दुनिया को साध लिया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

संसार बसा कर तो देखो

संसार बसा कर तो देखो

तुम हो खिलती कली ,नहीं यूं इतराओ ,
भँवरे,तितली,सब आ आ कर,रस चूसेंगे,
वरमाला में गुंथ , लिपटो  तुम सीने से,
        जीवन भर तक ,तुम संग साथ निभाऊंगा  
चन्दा का क्या ,वह घटता बढ़ता रहता ,
मैं तो तुम से प्यार करूंगा  सूरज सा ,
दिल के आसमान में बिठला तो देखो ,
         तुम्हारा जीवन चम चम   चमकाउंगा
तुम तो एक कागज का कोरा टुकड़ा हो,
आओ मेरी प्रेम डोर से बांध जाओ ,
तुमको बना पतंग ,साथ में ले अपने ,
        आसमान में ,मैं तुमको पहुंचा दूंगा
तुम तो कल कल करती ,बहती नदिया हो ,
अंततः तुमको मिलना ,मुझसे ही है ,
मैं रत्नाकर ,मुझमे आओ,समा जाओ,
         मोती ,रत्नो से मैं तुम्हे  सजा दूंगा
यह मन का मर्कट तो है शैतान बहुत,
उछलकूद कर,डाल डाल बैठा करता ,
स्वामिभक्त हनुमान बनेगा अगर इसे ,
         अपने मन मंदिर में बिठला तो देखो
कहते है दिन चार जिंदगी होती है ,
बड़ी सुहानी यार जिंदगी  होती है  ,
मैं तुम संग ,सुख का संसार बसाऊंगा ,
         तुम मुझ संग,संसार बसा कर तो देखो

'मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
               
'

देशी चस्का

  देशी चस्का

डनलप के नरम नरम गद्दों पर ,रोज रोज सोने वालों,
खरहरी खाट पर सोने का ,अपना ही एक मज़ा होता
दस दस व्यंजन से सजी हुई ,थाली में ओ खाने वालों,
चटनी के साथ ,प्याज रोटी ,खाने का अलग मज़ा होता
क्यों बोतल से मिनरल वाटर ,पी कर के प्यास बुझाते हो ,
तुम कभी ओक से ,प्याऊ का ,पीकर के देखो पानी भी
तुम चस्के लेकर चॉकलेट ,खाया करते मंहगी मंहगी ,
होती है अच्छी स्वाद भरी ,खाकर देखो गुड धानी  भी
कोकोकोला ,पेप्सी छोड़ो ,गर्मी में सत्तू  पी देखो ,
लड्डू और बालूशाही से ,लिट्टी चोखा होता अच्छा
आमों को काट ,चुभा काँटा ,तुम बड़े चाव से खाते हो ,
गुठली को कभी चूस देखो ,आएगा स्वाद तभी सच्चा
चटखारे ले , खा कर देखो,तुम इमली या कच्ची केरी ,
आयेगा इतना मज़ा तुम्हे ,तुम भूल जाओगे स्वाद सभी
तुम अनुशासन के चक्कर में ,क्यों मज़ा खो रहे जीने का ,
ठेले पर खाओ बर्फ गोला ,तुम बच्चे बन कर कभी कभी
तुम भूल जाओगे पिज़्ज़ा को ,आलू का गरम पराँठा खा ,
है केक पेस्ट्री से अच्छी ,रस भरी जलेबी गरम ,गरम
देसी चीजों  को  ,चस्का ले,खुल्ले दिल से अपनाओगे ,
तो भूल जाओगे अंगरेजी चीजों के पाले सभी भरम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 15 मई 2016

क्यों ?

क्यों ?

मुझे याद है वह दिन ,
जब तुमने ,
मेरी नाजुक सी पतली  ऊँगली में,
सगाई की अंगूठी पहनाई थी ,
और मेरे कोमल से हाथों को ,
धीरे से दबाया था
प्यार से दुलराया था
और फिर एक दिन ,
मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर ,
पवित्र अग्नि की साक्षी में ,
अपना जीवनसाथी बनाया था
सुख दुःख में साथ निभाने का वादा था किया
पर शादी के बाद ,घर बसाते ही,
मेरी उन नाजुक उँगलियों को,
आटा गूंथने में लगा दिया
रोटी बेलने के लिए ,बेलन थमा दिया
गरम गरम तवे पर ,
रोटियां सेकते सेकते ,
कितनी ही बार ,इन नाजुक उँगलियों ने ,
तवे की विभीषिका झेली है
तुम्हारे प्यार के परशाद से ,
मेरी कमसिन सी काया ,
देखलो कितनी फैली है
जिस तरह आजकल ,
मेरी मोटी हुई अँगुलियों में ,
सगाई की अंगूठी नहीं आती
उस तरह तुम्हारे प्यार में भी,
वो पुरानी ताजगी नहीं पायी जाती
हमारा प्यार ,
एक दैनिक प्रक्रिया बन कर ,रह गया है
कुछ भी नहीं नया है
क्या हमारा गठबंधन ,
कुछ इतना ढीला था ,
दो दिन में खुल गया
क्या हमारा प्यार ,
शादी  की मेंहदी सा था ,
चार दिन रचा ,फिर धुल  गया
तुम भी वही हो ,मै  भी वही हूँ ,
बताओ ना फिर क्या बदल गया है
हमे साथ साथ रहते हो गए है बरसों
फिर ऐसा हो रहा है क्यों ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

क्यों ?

क्यों ?

मुझे याद है वह दिन ,
जब तुमने ,
मेरी नाजुक सी पतली  ऊँगली में,
सगाई की अंगूठी पहनाई थी ,
और मेरे कोमल से हाथों को ,
धीरे से दबाया था
प्यार से दुलराया था
और फिर एक दिन ,
मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर ,
पवित्र अग्नि की साक्षी में ,
अपना जीवनसाथी बनाया था
सुख दुःख में साथ निभाने का वादा था किया
पर शादी के बाद ,घर बसाते ही,
मेरी उन नाजुक उँगलियों को,
आटा गूंथने में लगा दिया
रोटी बेलने के लिए ,बेलन थमा दिया
गरम गरम तवे पर ,
रोटियां सेकते सेकते ,
कितनी ही बार ,इन नाजुक उँगलियों ने ,
तवे की विभीषिका झेली है
तुम्हारे प्यार के परशाद से ,
मेरी कमसिन सी काया ,
देखलो कितनी फैली है
जिस तरह आजकल ,
मेरी मोटी हुई अँगुलियों में ,
सगाई की अंगूठी नहीं आती
उस तरह तुम्हारे प्यार में भी,
वो पुरानी ताजगी नहीं पायी जाती
हमारा प्यार ,
एक दैनिक प्रक्रिया बन कर ,रह गया है 
कुछ भी नहीं नया है
तुम भी वही हो ,मै  भी वही हूँ ,
बताओ ना फिर क्या बदल गया है
हमे साथ साथ रहते हो गए है बरसों
फिर ऐसा हो रहा है क्यों ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

वो सुंदर सुंदर कामनियां

वो सुंदर सुंदर कामनियां

फैशन से इतनी हुई ग्रस्त
हो रहे प्रदर्शित ,अधोवस्त्र
सब श्वेतचर्म और गौरवर्ण ,
इस चंचल मन को मोह लिया
वो सुन्दर सुंदर कामनिया
लम्बी लम्बी उघडी टांगें
इठलाती चलती बल खाके
थे स्वर्ण ,रजत से कटे केश,
खिलखिला चहकती,चुरा जिया
वो सुंदर सुंदर कामनियां
गंधें ,तीखी परफ्यूमो की
सुंदर और प्यारी ,परियों सी
 नयनो को बहुत  लुभाती थी ,
हमने देखा ,दिल थाम लिया
वो सुंदर ,सुंदर कामनियां

घोटू

ऐसा लगता जैसे ....

ऐसा लगता  जैसे .... 


ऐसा लगता  जैसे बातें हो कल की

तुम आई थी ,पहन गुलाबी सा जोड़ा
शर्मीली सी,सकुचाती  , थोड़ा ,थोड़ा
मैंने भाव विभोर उठाया था घूंघट  ,
भूले नहीं भुलाती यादें  उस  पल की
ऐसा लगता  जैसे बातें हो  कल की
मिले नयन से नयन ,हमारा हुआ मिलन
धीरे धीरे लगा महकने ये गुलशन
फूल खिले दो ,प्यारे प्यारे सुंदर से,
विकसे ,पाकर छाँव  तुम्हारे आंचल की
ऐसा लगता  ,जैसे बातें हो कल की
पाला पोसा ,पढ़ा लिखा क्र बड़ा किया
उन दोनों को अपने पैरों खड़ा किया
बिदा किया बेटी को पीले हाथ किये ,
बेटे को भी बहू मिल गई  सुन्दर सी
ऐसा लगता  ,जैसे बातें  हो कल की 
बेटा प्रगतिशील,बहू थी आधुनिका
सोच हमारी में पीढ़ी का अंतर  था
करी तरक्की ,बेटा  बहू ,विदेश बसे,
तनहाई में ,आँख हमारी थी छलकी
ऐसा लगता ,जैसे बातें हो कल की
सबने अपनी दुनिया अलग बसाई है
अब हम दो है और साथ  तनहाई  है
हम एकाकी ,बचे खुचे दिन काट रहे ,
फिर भी ,आँखें ,आस लगाये ,पागल सी
ऐसा लगता ,जैसे बातें हो कल की
बुझी बुझी सी आँखे , सूना सा आंगन
रह रह कर चुभता  हमको एकाकीपन
इसीलिए क्या यौवन था कुरबान किया ,
सपने में भी ,न थी कल्पना इस पल की
एसा लगता ,जैसे बातें हो कल की

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 

मेरा क्या है?

           मेरा क्या है?

मैंने जो भी किया ,तुम्हारे लिए किया है
मै  तो,ऐसे ही जी लेता  ,मेरा  क्या है
मैं था फक्कड़ जीव,ठौर ना ,कोई ठिकाना
ऐसा हुआ प्यार में पागल ,मैं  दीवाना
इतनी  मन  को भायी ,तुम्हारी सूरत प्यारी
फाकामस्ती छोड़ ,ओढ ली  जिम्मेदारी
लाया जब से तुम्हे ,प्यार का बांधे बंधन
किया समर्पित,मैंने तुम पर निज तन मन धन
अगर सुखी हो  तुम ,तो सुख  पाउँगा मैं भी
तुम जो मुस्काओगी ,तो मुस्काउंगा मैं भी
सिमट गयी  बस तुम में ही मेरी  दुनिया है
मैं  तो ऐसे ही जी लेता  ,मेरा क्या  है
ना ऊधो का लेना ना माधो देना
जी लेता मै ,यूं चबाकर ,चना ,चबैना
तुम फूलों सी नाजुक,प्यारी  राजकुमारी
इसीलिये मैं ,हाजिर सेवा  में तुम्हारी
हरदम पलक पालकी में ,मैं रखता तुमको
पल भर भी ,पीड़ा ना होने दूंगा तुमको
सुख के साधन ,सभी जुटाए ,तुम्हारे हित
ये नवरस ,पकवान,तुम्ही को सभी समर्पित
मेरा छोटा सा दिल ,आज बना दरिया है
मै तो ऐसे ही जी लेता ,मेरा क्या है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अंतर

  अंतर

मुझमे और बाबा रामदेव में ,
बस इतना सा अंतर  है ,
कि मैं पहले बिज़नेस करता था ,
 और अब योग करता हूँ
और बाबा रामदेव ,पहले योग करते थे ,
अब बिज़नेस करते है
मुझमें और नरेंदरमोदी में ,
बस इतना सा ही अंतर है ,
कि पहले वो देशवासियों को चाय पिलाते थे ,
अब देश को चलाते  है
और मैं पहले बीबी को चलाता था ,
अब बीबी को चाय पिलाता हूँ

घोटू

शुक्रवार, 13 मई 2016

कल बीबी बिमार पड़ गयी

कल बीबी बिमार   पड़ गयी

पल पल चिंता,पग पग मुश्किल,
परेशानियां खूब बढ़ गयी
कल बीबी बिमार पड़ गयी
उलट पुलट हो गयी जिंदगी ,अस्त व्यस्त घरबार हो गया
घर का जमा जमाया सिस्टम,एक दिन में बेकार हो गया
क्या  खाना है,क्या पीना है ,कहाँ ,किधर है कपड़े ,लत्ते
दूध  मंगाना ,चाय  बनाना ,सभी  पड़ गया ,मेरे  मथ्थे
उस पर दूना हुआ सितम  ये ,महरी भी छुट्टी कर बैठी
 ये कर लो तुम,ऐसे कर लो ,रही बताती ,लेटी  लेटी
उसमे हिम्मत ,नहीं जरा थी ,इतनी थी ,कमजोरी आई
किन्तु बीच में ,उठ उठ उसने ,कई समस्याएं सुलझाई
सारे काम किया करती थी ,दौड़ दौड़ कर ,जो हंस हंस कर
उसका सारा ही दिन बीता ,सोते सोते, टसक टसक कर  
एक दिवस में ,उसका खिलता , फूलों सा चेहरा मुरझाया
 रौनक सारी ,खतम हो गई,और  घर में सूनापन  छाया
एक दिवस में ,पता लग गयी,बीबीजी की हमें अहमियत
उन्हें दवा  दी,ज्यूस पिलाया ,जल्दी से हो, ठीक तबियत
हुई बीमार सी ,मेरी हालत,  जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी
कल  बीबी बिमार पड़ गयी 

'घोटू'

मंगलवार, 10 मई 2016

ज़ीरो फिगर

 ज़ीरो फिगर

दुबला पतला सा बदन,तन पर चढ़ा न मांस
 मज़ा कहाँ से आयेगा ,करने  में   रोमांस
करने में रोमांस  ,कमरिया खाती हो बल
बड़े शान से दिखलाते  है  ज़ीरो  फिगर
जीरो होता गोल ,बदन मोटा ,मदमाता
बदन सींक सा,पर क्यों ज़ीरो फिगर कहाता

घोटू

घर की बीबी

                 
                                     घर की बीबी

अजनबी शहर ,बड़ा भव्य ,बड़ा सुंदर हो,
                 एक दो दिन का भ्रमण ,ठीक भला लगता है
घूमलो ,फिरलो ,इधर उधर मस्तियाँ करलो ,
                   मगर सुकून तो घर पर ही मिला करता है
कितना ही गुदगुदा बिस्तर हो किसी होटल का,
                चैन की नींद ,घर की खटिया पर ही आती है
रसीले व्यंजनों को देख कर क्या ललचाना ,
                       भूख तो, दाल रोटी घर की ही मिटाती  है
भले ही खुशबू भरा और खूबसूरत है ,
                    मगर गुलाब वो औरों का है,मत  ललचाओ
तुम्हारे घर में जो जूही की कली मुस्काती,
                   उसी की खुशबू से ,जीवन को अपने महकाओ
पड़ोसी घर में भले लाख झाड़ फानूस है
                       ,हजारों शमाओं से जगमगाता आंगन है
आपके टिमटिमाते दीये की बदौलत ही ,
                      आपकी झोपड़ी ,छोटी सी रहती ,रोशन है
देख लो लाख गोरी गोरी मेमों के जलवे,
                        काम  में आती मगर ,आपकी ही बीबी है
तुम्हारे घर की वो ही खुशियां और रौनक है ,
                         तुम्हारी खैरख्वाह है और खुशनसीबी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डर

                                       डर

कोई को डर लगता कॉकरोच से है,,तो फिर कोई डरता है छिपकलियों से
कोई बादल गर्जन ,बिजली से डरता , तो कोई डरता अंधियारी गलियों से
कोई को ऊंचाई बहुत डराती है , तो कोई को डर लगता  गहरे जल से
कोई पुलिस से डरे ,कोई बदमाशों से ,कोई बॉस से डरता ,कोई टीचर से
सबके अलग अलग ,अपने डर होते है,गाहे बगाहे हमे डराया है करते 
बचपन में बच्चे डरते माँ बापों से ,   बच्चों  से  माँ बाप बुढ़ापे में डरते 
लेकिन शाश्वत सत्य एक है दुनिया में,हर शौहर अपनी बीबी से डरता है
एक इशारे भर पर जिसकी ऊँगली के ,बेचारा जीवन भर नाचा करता है
बीबी से डरने की अपनी लज्जत है,वह खिसियाना स्वाद निराला होता है
घर में चलता राज हमेशा बीबी का ,पर कहने को वो घरवाला  होता  है 
पत्नी पका खिलाये खाना कैसा भी ,डर के मारे तारीफ़ करनी पड़ती है
वर्ना रोटी के भी लाले पड़ जाते है,और सोफे पर सारी रात  गुजरती है
डर के कारण ही क़ानून व्यवस्था है ,डर से दफ्तर में रहता अनुशासन है
पास फ़ैल के डर के कारण बच्चों का ,करने में पढ़ाई लगता थोड़ा मन है
ऊपरवाला देख रहा है हर हरकत ,इस डर से हम बुरे काम से डरते है
डर मृत्यु का मन में सदा बना रहता ,दान धर्म,सत्कर्म इसलिए करते है
यम के डर के कारण दुनिया कायम है,उच्श्रृंखलता पर लगी हुई पाबंदी है
वर्ना लोभ,मोह और माया में दुनिया ,कुछ न देखती और हो जाती अंधी है
मेरा यह स्पष्ट मानना है लेकिन,जो शासित है,वो रहता अनुशासित है
डर डर,सम्भले,चले ,नहीं डर ठोकर का ,डर कर रहने में ही तो सबका हित है
कोई कहता भय बिन प्रीत नहीं होती ,कोई को थप्पड़ ना,प्यार डराता है 
बहुत घूम फिर,यही नतीजा  निकला है ,वह डर ही है,जो संसार चलाता  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 


कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

    कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

हम उस पीढ़ी की बहुएं थी ,जिनने सासों को झेला है
अब सास बनी तो झेल रही ,बहुओं का रोज झमेला है
इस त्रसित हमारी पीढ़ी ने ,झेला सासों का अनुशासन
उठ सुबह काम में जुत जाना ,चूल्हा,चौका,झाड़ू,बर्तन
उस पर भी सर पर घूंघट हो ,सासों की तानाशाही  थी
थोड़ी सी गलती हो जाती,मच जाती बड़ी  तबाही थी
ये भी न सिखाया क्या माँ ने ,कुछ भी ना आता तुम्हे बहू
इस तरह प्रताड़ित होने पर ,खाता उबाल था गरम लहू
पर मन मसोस रह जाते थे ,कुछ  ऐसे ही थे  संस्कार
कुछ हमे रोक कर रखता था ,अपने साजन का मधुर प्यार 
बस इसी तरह बीता यौवन , मन को समझा जैसे तैसे
हम भी जब सास बनेंगी तो ,फिर ऐश करेंगी कुछ ऐसे
लेकिन जब तक हम बनी सास,वो बात पुरानी नहीं रही
सब सास पना हम भूल गयी, उलटी गंगा इस तरह बही
 सारा सिस्टम ही बदल गया ,बहुओं के हाथ लगा पॉवर
सासें दिन भर सब काम करे ,और बहू रहे घर के  बाहर
अब सास संभाले बच्चों को,घर का सब काम,किचन,खाना
रहती है दब कर बहुओं से ,मुश्किल  होता कुछ कह पाना
हम बहू रही  या सास बनी,हमने हरदम दुःख पाये है
सासों का जलवा ख़तम हुआ ,अब बहुओं के दिन आएं है
रख ख्याल प्रतिष्ठा का कुल की ,कुछ पुत्र मोह के चक़्कर में 
कुछ बंधन पोते पोती का  ,रखता है बाँध  हमें घर में
भगवान बता ,तूने हम संग,ये खेल अजब क्यों खेला है
हम उस पीढ़ी की बहुएं  थी, जिनने  सासों को  झेला है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 7 मई 2016

परिवर्तन

                  परिवर्तन

साथ उमर के आया इतना परिवर्तन है ,
               हुई सूर्य की ऊर्जा ,चंदा की  शीतलता
धीरे धीरे ओज बदन का हुआ पलायन ,
            और हो गयी गुम सारी मन की चंचलता
 जिसे कभी घेरे रखती ,सुंदर ललनाये ,
             कई व्याधियों ने उस तन को घेर रखा है
उस जिव्हा को मिले खिचड़ी,दलिया खाने ,
            जिसने हरदम पकवानो का स्वाद चखा है 
बार बार करवट ले उनसे लिपटा करना ,
                याद बहुत आती वो रातें मधुर नेह की
बार बार उठ ,लगुशंका के निस्तारण को ,
                    जाने वाली रातें है, अब मधुमेह की
जो था कभी दमकता यौवन की कांति से,
                वह  कृषकाय शरीर ,झुर्रियों का पिंजर है
ज्योतिर्मय नयनो  पर मोटा सा चश्मा है,
               और दांत कितने ही,साथ छोड़ बाहर है 
कलुषित सारे कर्म,केश से श्वेत हो गए,
               अब तो स्मरण करते केवल रामनाम है
स्वर्ण हो गया ,रजत सूर्य ढलने के पहले ,
                  व्याप्त हो रही है शीतलता ,अविराम है
 थी कमनीय,कभी जो काया ,कहाँ खोगई ,
             अब खाते कम ,पचता कम,दिखता भी कम है
बची बहुत कम साँसें ,कम है दिन जीवन के ,
                 हाय बुढ़ापे  ,तूने कितने  , दिये   सितम  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'               

छत

                       छत

याद गाँव के घर आते जब ,हर एक घर पर छत होती थी
सर्दी ,गर्मी  हो  या  बारिश, हर  ऋतु  मे ,राहत  होती थी
जहां रोज सूरज की किरणे, अठखेलियां किया करती थी
शीतल ,मंद हवाएं अक्सर ,सुबह कुलांचे आ भरती  थी
बारिश की पहली रिमझिम में,यहीं भीज ,नाचा करते थे
और गर्मी वाली रातों में ,सांझ ढले ,बिस्तर  लगते थे
जहां मुंडेर पर बैठ सवेरे ,कागा देता था सन्देशा
करवा चौथ,तीज के व्रत में ,चाँद देखते ,वहीँ हमेशा
दिन में दादी,अम्मा,चाची ,बैठ यहां पंचायत करती
गेहूं बीनती,दाल सुखाती ,दुनिया भर की बातें करती
घर के धुले हुए सब कपड़े ,अक्सर ,यहीं सुखाये जाते
उस छत पर  मैंने सीखा ,कैसे नयन लड़ाये  जाते
सर्दी में जब खिली धूप में ,तन पर मालिश की जाती थी
तभी पड़ोसन ,सुंदर लड़की ,बाल सुखाने को आती थी
नज़रों से नज़रें मिलती थी ,हो जाता था नैनमटक्का
और इशारों में होता था ,कही मिलन का ,वादा पक्का
कभी लड़ाई,कभी दोस्ती,कितने ही रिश्ते जुड़ते थे
और यहीं से पतंग उड़ाते ,आसमान में हम उड़ते थे
किन्तु गाँव को छोड़ ,शहर जब,आया कॉन्क्रीट जंगल में
छत तो मिली,मगर छत का सुख ,नहीं उठा पाया पल भर मैं
मेरी छत,कोई का आंगन,उसकी छत पर कोई का घर
मुश्किल से सूरज के दर्शन ,खिड़की से हो पाते ,पल भर
बहुमंजिली इमारतों का ,ऐसा जंगल खड़ा हो गया
हम पिंजरे में बंद हो गए ,छत का सब आनंद खो  गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 


मै खाउं ठंडी हवा,धूप तुम खाओ

      मै खाउं ठंडी हवा,धूप तुम खाओ

इस मंहगाई में ,ऐसे पेट भरे हम ,
   मै खाऊं ठंडी हवा ,धूप  तुम खाओ
मै पीयू गम के घूँट ,पियो तुम गुस्सा ,
    जैसे तैसे भी अपनी प्यास बुझाओ
हम नंगे क्या नहाएंगे,क्या धोएंगे
छलका अश्रुजल ,सौ आंसू राएंगे
मै तेरे ,  तू मेरे   आंसूं  पी लेना
जी लगे ना लगे ,बस यूं ही जी लेना
मै नकली हंसी ओढ़ कर खुश हो लूँगा ,
तुम मुख पर, फीकी हंसी लिए मुस्काओ
इस मंहगाई में ऐसे पेट भरे हम,
मै खाउं ठंडी हवा ,धूप तुम खाओ
ऐसी होती यह आश्वासन की रोटी
कितनी ही खालो,भूख नहीं कम होती
वादों की बरसातें कितनी बरसे
जनता बेचारी पर प्यासी ही तरसे
मै खाकर  के ,ख्याली पुलाव जी लूँगा,
तुम झूंठे सपनो की बिरयानी खाओ
इस मंहगाई में ऐसे पेट भरे हम,
मै खाऊं ठंडी हवा,धुप तुम खाओ

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

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