परिवर्तन
साथ उमर के आया इतना परिवर्तन है ,
हुई सूर्य की ऊर्जा ,चंदा की शीतलता
धीरे धीरे ओज बदन का हुआ पलायन ,
और हो गयी गुम सारी मन की चंचलता
जिसे कभी घेरे रखती ,सुंदर ललनाये ,
कई व्याधियों ने उस तन को घेर रखा है
उस जिव्हा को मिले खिचड़ी,दलिया खाने ,
जिसने हरदम पकवानो का स्वाद चखा है
बार बार करवट ले उनसे लिपटा करना ,
याद बहुत आती वो रातें मधुर नेह की
बार बार उठ ,लगुशंका के निस्तारण को ,
जाने वाली रातें है, अब मधुमेह की
जो था कभी दमकता यौवन की कांति से,
वह कृषकाय शरीर ,झुर्रियों का पिंजर है
ज्योतिर्मय नयनो पर मोटा सा चश्मा है,
और दांत कितने ही,साथ छोड़ बाहर है
कलुषित सारे कर्म,केश से श्वेत हो गए,
अब तो स्मरण करते केवल रामनाम है
स्वर्ण हो गया ,रजत सूर्य ढलने के पहले ,
व्याप्त हो रही है शीतलता ,अविराम है
थी कमनीय,कभी जो काया ,कहाँ खोगई ,
अब खाते कम ,पचता कम,दिखता भी कम है
बची बहुत कम साँसें ,कम है दिन जीवन के ,
हाय बुढ़ापे ,तूने कितने , दिये सितम है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
साथ उमर के आया इतना परिवर्तन है ,
हुई सूर्य की ऊर्जा ,चंदा की शीतलता
धीरे धीरे ओज बदन का हुआ पलायन ,
और हो गयी गुम सारी मन की चंचलता
जिसे कभी घेरे रखती ,सुंदर ललनाये ,
कई व्याधियों ने उस तन को घेर रखा है
उस जिव्हा को मिले खिचड़ी,दलिया खाने ,
जिसने हरदम पकवानो का स्वाद चखा है
बार बार करवट ले उनसे लिपटा करना ,
याद बहुत आती वो रातें मधुर नेह की
बार बार उठ ,लगुशंका के निस्तारण को ,
जाने वाली रातें है, अब मधुमेह की
जो था कभी दमकता यौवन की कांति से,
वह कृषकाय शरीर ,झुर्रियों का पिंजर है
ज्योतिर्मय नयनो पर मोटा सा चश्मा है,
और दांत कितने ही,साथ छोड़ बाहर है
कलुषित सारे कर्म,केश से श्वेत हो गए,
अब तो स्मरण करते केवल रामनाम है
स्वर्ण हो गया ,रजत सूर्य ढलने के पहले ,
व्याप्त हो रही है शीतलता ,अविराम है
थी कमनीय,कभी जो काया ,कहाँ खोगई ,
अब खाते कम ,पचता कम,दिखता भी कम है
बची बहुत कम साँसें ,कम है दिन जीवन के ,
हाय बुढ़ापे ,तूने कितने , दिये सितम है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बुढ़ापे की क्या गलती है...उम्र के पड़ाव हैं सब...
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...