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शनिवार, 25 जून 2016

बड़े बनने की कला

       बड़े बनने की कला

जब तुम अपने से छोटे का वजूद भुला ,
खुद के बड़े होने की बात बताते हो 
तो तुम खुद छोटे हो जाते हो 
पहले ,एक रूपये के चौंसठ पैसे होते थे ,
और एक पैसे की भी तीन पाई थी
जो सबसे छोटी इकाई थी
अधेला,दो पैसा,इकन्नी,दुवन्नी ,
चवन्नी और अठन्नी होती थी
तब एक पैसे की भी वेल्यू होती थी
और रुपैया होता बड़ा दमदार था
वो कहलाता कलदार था
फिर एक रूपये के सौ पैसे हुए,
और धीरे धीरे पैसा छोटा होता गया
तो रुपया भी अपनी अहमियत खोता गया
समय के साथ एक,दो ,पांच,दस और बीस ,
पैसे के सिक्के लुप्त होते गए ,
और फिर चवन्नी की भी नहीं चली
आज अठन्नी का अस्तित्व तो है ,
पर नाममात्र का है,
न जाने कब बंद हो जाए ये पगली
देखलो ,किस तरह दिन फिरते है
सड़क पर पड़ी अठन्नी को उठाने के लिए,
लोग झुकने की जहमत नहीं करते है
जैसे जैसे रुपया ,बड़ी मछलियों की तरह ,
अपनी ही छोटी छोटी मछलियों को खाता गया
अपनी ही कीमत घटाता गया
क्योंकि छोटे के सामने ही ,
बड़ों की कीमत आंकी जाती है
जब कोई छोटी लकीर होती है ,
तभी कोई दूसरी लकीर ,बड़ी कहलाती है
इसलिए ,यदि बड़े बनना है,
तो अपने से छोटे का अस्तित्व बना रहने दो
अपनी इकन्नी,दुअन्नी ,चवन्नी को ,
लुप्त मत होने  दो
अपनी कलदार वाली गरिमा को मत खोने दो
क्योंकि जब तक छोटे है ,
तब तक ही तुम बड़े कहलाओगे
वर्ना एक दिन ,एक छोटी सी इकाई ,
बन कर रह जाओगे
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

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