थोड़ा सा एडजस्टमेंट
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
पति पर अक्सर रौब जमाने वाली बीबी को,
कभी कभी तो अपने पति से डरना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
भरी ट्रैन के हर डिब्बे में ,हर स्टेशन पर ,
चार मुसाफिर अगर उतरते ,तो छह चढ़ते है
रखने को सामान ,ठीक से पीठ टिकाने को,
थोड़ी जगह ,कहीं मिल जाए ,कोशिश करते है
ट्रैन चली,दो बात हुई ,सब हो जाते है सेट,
सफर जिंदगी का ऐसे ही कटना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पराये घर से ,दुल्हन आती है,
उसके घर का अपना कल्चर ,परम्पराएं है
ससुराल में नए लोग है ,वातावरण नया ,
जीवनसंगिनी बना पियाजी उसको लाये है
शुरू शुरू में ,थोड़ी सी दिक्कत तो आती है,
चार दिनों में वो घर उसको ,अपना लगता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पुरुष जब बनता जीवन साथी है ,
उसकी आदत,खानपान का ज्ञान जरूरी है
सच्चे मन से ,एक दूजे को अगर समर्पित हो ,
तभी एकरसता आती है,मिटती दूरी है
कभी ढालना पड़ता उसको अपने साँचे में ,
कभी कभी उसके साँचे में ढलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
बच्चे जब छोटे होते ,सब बात मानते है ,
लेकिन उनकी सोच समय के साथ बदलती है
होता है टकराव ,पीढ़ियों के जब अंतर में ,
अपनी जिद पर अड़े रहोगे ,तो ये गलती है
थोड़ा सा झुक जाने से यदि खुशियां आती है ,
तो हंस कर ,हमको उस रस्ते चलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
पति पर अक्सर रौब जमाने वाली बीबी को,
कभी कभी तो अपने पति से डरना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
भरी ट्रैन के हर डिब्बे में ,हर स्टेशन पर ,
चार मुसाफिर अगर उतरते ,तो छह चढ़ते है
रखने को सामान ,ठीक से पीठ टिकाने को,
थोड़ी जगह ,कहीं मिल जाए ,कोशिश करते है
ट्रैन चली,दो बात हुई ,सब हो जाते है सेट,
सफर जिंदगी का ऐसे ही कटना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पराये घर से ,दुल्हन आती है,
उसके घर का अपना कल्चर ,परम्पराएं है
ससुराल में नए लोग है ,वातावरण नया ,
जीवनसंगिनी बना पियाजी उसको लाये है
शुरू शुरू में ,थोड़ी सी दिक्कत तो आती है,
चार दिनों में वो घर उसको ,अपना लगता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पुरुष जब बनता जीवन साथी है ,
उसकी आदत,खानपान का ज्ञान जरूरी है
सच्चे मन से ,एक दूजे को अगर समर्पित हो ,
तभी एकरसता आती है,मिटती दूरी है
कभी ढालना पड़ता उसको अपने साँचे में ,
कभी कभी उसके साँचे में ढलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
बच्चे जब छोटे होते ,सब बात मानते है ,
लेकिन उनकी सोच समय के साथ बदलती है
होता है टकराव ,पीढ़ियों के जब अंतर में ,
अपनी जिद पर अड़े रहोगे ,तो ये गलती है
थोड़ा सा झुक जाने से यदि खुशियां आती है ,
तो हंस कर ,हमको उस रस्ते चलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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