आस बरसात की
हुई व्याकुल धरा ग्रीष्म के त्रास से
देखती थी गगन को बड़ी आस से
मित्र बादल ने जल सी भरी अंजुली
सोचा बरसा दूँ शीतलता ,राहत भरी
चाह उसकी अधूरी मगर रह गयी
आयी सौतन हवा ,खींच संग ले गयी
और आकाश सब देखता ये रहा
न कुछ इससे कहा ,न कुछ उससे कहा
छेड़खानी ये आपस में चलती रही
तप्त धरती अगन में तड़फती रही
लाख बादल घिरे कौंधी और बिजलियाँ
प्यासी धरती का जलता रहा पर जिया
घोटू
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