युगे युगे
तुमने जब पाषाण हृदय बन ,टाला मेरा प्रणय निवेदन ,
लगा वही पाषाण युग मुझे
तुम भी ठंडी ,मैं भी ठंडा ,ठन्डे थे दोनों के तन मन ,
हिमयुग सा ही लगा ये भुझे
नीलगगन में ,जब उड़ते हम,फैला कर के दोनों के पर ,
तब लगता ,द्वापर युग आया
मेरी बात टाल देती थी तुम हरदम ,बस कल कल कह कर
तब लगता था कलयुग छाया
जब थी तुम ,उन्मुक्त हृदय से ,मुझ पर थी निज प्यार लुटाती,
तब तब रीतिकाल था आता
मेरी लम्बी उमर रहे इसलिए ,व्रत रखती तुम ,कुछ ना खाती ,
तब वह भक्तिकाल कहलाता
वृक्ष तनो से , तन टकराते , आग निकल कर हमें जलाती ,
तब वह होता दावानल था
तुम समुद्र में भीग नहाती ,और मेरे मन आग लगाती ,
तब वह होता बढ़वानल था
कितने युग और काल इसतरह ,हमने तुमने ,मिलजुल करके ,
हँसते हँसते ,संग संग काटे
प्रेमानल और विरहानल में ,जल जल कर के निखर गए हम ,
मिल कर अपने सुख दुःख बांटे
तुमने जीवन के पल पल में ,बाँध मुझे अपने आँचल में ,
युग युग का आभास कराया
अपने युगल ,कमल नयनो से ,प्रेमामृत की वर्षा कर कर ,
मेरे जीवन को सरसाया
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
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