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रविवार, 25 अक्तूबर 2020

सही दशहरा तभी मनेंगा

आता है हर साल दशहरा ,
 हम त्योंहार मना लेते है
पुतला बना एक रावण का ,
उसमे  आग लगा देते  है
यही सोच खुश हो लेते है ,
हमने मार दिया रावण को
लेकिन यह तो मात्र बहाना ,
है बहलाने अपने मन को
क्योंकि अगले बरस दशहरे ,
तक फिर पैदा होगा रावण
परम्परा यह बरसों की है ,
कब तक पालेंगे हम यह भ्र्म
इस  जग में इतने रावण है ,
 कैसे  किस किस को मारोगे
हर रावण के दस दस सर है ,
 कब तक  इनको संहारोगे
यह भी है एक कटुसत्य कि ,
सब में रावण छुपा कहीं है
कई बुराई वाले मुख है ,
हममे कोई राम नहीं है
तो आओ सबसे पहले हम ,
नाश करें निज दानवता का
 काटें हर बुराई का चेहरा ,
रहे एक मुख मानवता का
अपनी सभी बुराइयां तज ,
जब हर मानव राम बनेगा
 कोई रावण नहीं जलेगा ,
सही दशहरा तभी मनेगा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

देशप्रेम

उठना है मुझे ,चलना है मुझे
तपना है मुझे ,जलना है मुझे
जननी और जन्मभूमि पर    ,
खुद को अर्पण करना है मुझे

मैं जो पर्वत माथे पर ,हिम के किरीट का चमक रहा
पर मेरे देश का हर  वासी ,है बूँद बूँद को तरसः रहा
अब समय आ गया ,गर्व त्याग ,
पानी बन कर गलना है मुझे
उठना है मुझे ,चलना है मुझे
 
राजनीती के दल दल से , बाहर आ,सबसे मिलजुल कर
दुश्मन का दमन हमें करना ,लोहा लेना ,उससे खुल कर
भारत की आनबान खातिर ,
दुश्मन दल को दलना है मुझे
उठना है मुझे ,चलना है मुझे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 
आओ हम तुम लड़े

बहुत प्यार कर लिया उमर भर
थोड़ा छुप कर ,थोड़ा खुल कर
वृद्ध हुए अब ,दिनचर्या में ,कुछ परिवर्तन करें
आओ हम तुम लड़े
सिर्फ प्यार ही प्यार ,एकरसता ले आता है जीवन में
कहते है कि नए स्वाद का ,अनुभव होता परवर्तन में
मन में दबी शिकायत सारी ,उगल हृदय हल्का होता है
और झगड़ने बाद ,प्यार का ,मज़ा यार दूना होता है
इसीलिये हम ढूंढ बहाना
कभी कभी बस,ना रोजाना
गलती कोई करे ,दोष पर ,एक दूजे पर मढ़ें
आओ हम तुम लड़ें
घर में हम तुम बूढ़े ,बुढ़िया ,मुश्किल होता समय काटना
वक़्त कटेगा ,चालू कर दें ,एक दूजे को अगर डाटना
झगड़ा कर ,मुंह फेरे सोयें ,अच्छी निद्रा हमें   आयेगी
सुबह उठें ,फिर नयी दोस्ती ,बात रात की भूल जायेगी
मात्र दिखावे की हो अनबन
जीयें हम ,सच्चे हमदम बन
यूं हँसते और खेलते ,जीवन पथ पर बढ़ें
आओ हम तुम लड़े

मदन मोहन बाहेती ;घोटू ' 
दादी की यादें

मुझे याद है बचपन में ,
जब शैतानियां करने पर ,
झेलनी पड़ती थी पिताजी की मार
तब एक दादी ही होती थी जो ,
मुझे आकर के बचाती थी ,
और लुटाती थी मुझ पर ढेर सा प्यार
मैं सिसकियाँ भरता हुआ ,रोता था
और दादी की गोद में सर रख कर सोता था  
वह मुझ पर ढेर सारा प्यार लुटाती थी
अपनी बूढी उँगलियों से ,मेरा सर सहलाती थी
और पता नहीं ,मुझे कब नींद आ जाती थी
आज भी  कई बार
जब मैं होता हूँ बेकरार ,
परेशानियां मुझे तंग करती है
तो मेरी दादी की अदृश्य उँगलियाँ ,
मुझे थपथपाते हुए ,
मेरा सर सहलाया करती है
मैं उनके बूढ़े हाथों का प्रेम भरा स्पर्श ,
और उनकी उँगलियों को अपना सर
सहलाता हुआ पाता हूँ
और उनकी मधुर यादों में खो जाता हूँ

मदन मोहन बाहेती ;घोटू ;

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