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मंगलवार, 7 जुलाई 2020

जाने कहाँ गए वो दिन

याद आते है हमें वो दिन
जब जवानी के चमन में ,
मुस्कराती थी कलियाँ हसीन
हमेशा रहता था मौसम बहार का
हमारी भवरें सी नज़रें ,
टॉनिक पियां करती थी उनके दीदार का
लहराती जुल्फें ,हिरणी सी  नज़र
गुलाबी गाल,रसीले अधर
मोती सी दन्त लड़ी,कातिल मुस्कान
मीठी सी बोली जैसे कोयल का गान
याने पूरा का पूरा चन्द्रमुख दिखता था
प्यार जल्दी हो जाता देर तक टिकता था
पर अब इस कोरोना के खौफ ने ,
ऐसा सितम ढाया है    
हर हसीन चेहरे को मास्क में छुपाया है
किसी भी लड़की को देखो ,
बस दिखती है दो चमकती आँखें
और अपना बाकी चेहरा ,
रखती है वो मास्क में छुपाके
अब हम उन्हें कितना भी देखे घूर के
नजदीक से या दूर से
पता ही नहीं लगता उनका मुख कैसा है
उनके रुखसारों का रुख कैसा है
गुलाबी है या पीले है
कसे हुए है या ढीले है
 चिकने है या उनपर पिम्पल है
हँसते तो क्या गालों पर पड़ते डिम्पल है
सुंदरता के सब पैमाने
उनने छुपा रखें है अनजाने
पूरी की पूरी नाक ढकी रहती है
पता नहीं साफ़ है या बहती है
पतली है या मोटी  है
तिकोनी है या बोठी है
तोते सी है या समोसे सी है
पता ही नहीं लग पाता ,कैसी है
उनके 'अपर लिप्स 'पर बाल तो नहीं है
मर्दों जैसा हाल तो नहीं है
और चेहरे के सबसे मतवाले
सब से ज्यादा काम में आनेवाले
याने की उनके होठों का क्या हाल है
डार्क है या लाल है
मोटे  है या पतले है
सूखे है या रस से भरे है
चिकने है या उजाड़ है
छोटी है या लम्बी ,उनकी मुंहफाड़ है
और उनकी दंत लड़ी
मोती सी सफ़ेद है या पीली पड़ी
टेढ़े मेढे है या सीधे दिखलाते है
होठों के बाहर तो नहीं नज़र आते है
सबकुछ ढका रहने से खुल न पाता राज़
कैसा है उनकी मुस्कराहट का अंदाज
उनकी हंसी कातिल है कि नहीं
उनके होठों या गालों पर,तिल है कि नहीं
और उनकी ठोड़ी
तीखी है या  बैठी हुई है निगोड़ी  
गोया उनका पूरा मुखड़ा
लम्बा पतला है या गोल चाँद का टुकड़ा
और उनकी बोली मधुर है या भर्राई
मास्क के कारण ये बात समझ ना आई
बस फुसफुसाहट ही देती है सुनाई
समझ ही नहीं पाता ये दिमाग है
कोकिला सी मधुर है या काग है
तो जब चेहरे की सुंदरता का सब सामान
जब पूरा ही ढका रहता है श्रीमान
तो ये अंदाज लगाना भी मुश्किल हो जाता ,
कि सामनेवाली बूढी है या जवान
बस दो घूरती हुई आँखें
और हम क्या ताकें
हम देख ही नहीं पाते
उनके चेहरे का नूर
परी है या हूर
बदसूरत है या हसीन
प्रोढ़ा है या कमसिन
ऐसे में तो बस नैन लड़ सकते है
पर इश्क़ में कैसे आगे बढ़ सकते है
क्योकि जब तक ना हो पूरा दीदार
कैसे हो सकता है प्यार
फिर मॉल ,सिनेमा ,गार्डन और रेस्त्रारंट
सब पड़े है बंद
डेटिंग पर जाने का स्कोप नहीं है
दोनों के मुंह पर मास्क है ,
चुंबन की भी होप नहीं है
ऐसे हालातों में कैसे प्यार हो मुमकिन
और याद आते है वो पुराने दिन
जाने कहाँ गये वो दिन

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

रविवार, 5 जुलाई 2020

मौसम और स्वाद

सुबह सुबह क्यों तलब चाय पीने की मन में उठती है ,
ब्रेकफास्ट के समय जलेबी पोहे हमे सुहाते है
खाने बाद याद पापड़ की ,क्यों हमको आती अक्सर ,
सर्दी में ही गजक रेवड़ी ,मुंह का स्वाद बढ़ाते है
गर्मी के पड़ते ही कुल्फी ,आइसक्रीम लुभाते मन ,
बारिश पड़ते गरम पकोड़े ,याद हमें क्यों आते है
सर्दी में गाजर हलवे का स्वाद सुहाता है सबको ,
और सावन के महीने में ही ,घेवर मन को भाते है

बूंदी लड्डू ,बेसन चक्की ,सदाबहार मिठाई है ,
श्राद्ध पक्ष में सबसे ज्यादा खीर बनाई जाती है
सदाबहार समोसे होते ,गर्म गर्म और मनभावन,
खुशबू आलू की टिक्की की ,मुंह में पानी लाती है
दही बड़े और चाट पापड़ी ,हर मौसम में चलते है ,
पानी पूरी हमेशा ही सबके मन को ललचाती  है
ये जिव्हा है रस की लोभी ,बड़ी स्वाद की मारी है ,
मौसम के संग संग उसकी भी ,चाह बदलती जाती है

मदन मोहन बाहेती ;घोटू ' 

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

छेड़छाड़  

छेड़ने में लड़कियों को ,मज़ा जो  तुमको  है  आये
अगर तुम्हे वो डाट लगाए ,रहो ढीठ से तुम मुस्काये
इस चक्कर में अगर कभी जो ,तुमको पड़े मार भी खानी ,
तो उनके पापा के बदले ,उनके हाथों की ही खायें

घोटू 
शंशोपज

एक तरफ तुम ये कहते हो ,
प्रगति के पथ पर बढ़ना है
इसीलिये कंधे से कंधा
मिला काम हमको करना है
और दूसरी और कह रहे ,
हमें करोना से लड़ना है
इसके लिये हमें आपस में ,
दो गज की दूरी रखना है
शंशोपज में है इनमे से,
बात कौनसी को हम माने
दूरी रखें ,मिले ना कंधे ,
देश प्रेम के हम दीवाने

घोटू 
कभी तुम भी ----

                           कभी तुम भी छरहरी थी    
स्वर्ग से जैसे उतर कर ,आई हो ,ऐसी परी थी
                           कभी तुम भी छरहरी थी
बड़ा ही कमनीय ,कोमल और कंचन सा बदन था
मदमदाता ,मुस्कराता और महकता मृदुल मन था
बोलती थी मधुर स्वर में ,जैसे कोकिल गा  रही हो
चलती लगता ,सरसों की फूली फ़सल लहरा रही हो
हंसती थी तो फूलों का जैसे  कि  झरना झर रहा हो
गोरा आनन ,चाँद नभ में ,ज्यों किलोलें कर रहा हो
थे कटीले नयन ,हिरणी की तरह ,मन को लुभाते
बादलों की तरह कुंतल ,हवा में थे ,लहलहाते
थी लबालब प्यार से तुम ,भावनाओं से भरी थी
                            कभी तुम भी छरहरी थी
वक़्त के संग,आगया यदि थोड़ा सा बदलाव तुममे
ना रही ,पहले सी चंचल ,आ गया  ठहराव  तुममे
प्यार के आहार से यदि ,गयी कुछ काया विकस है
तोअसर ये है उमर का,बाकी तो सब ,जस का तस है
अभी भी तिरछी नज़र से जब ,देखती ,मन डोलता  है
अभी भी मन का पपीहा ,पीयू  पीयू  बोलता  है  
अभी भी छुवन तुम्हारी ,मन में है सिहरन जगाती
तब कली थी,फूल बनकर,और भी ज्यादा सुहाती
हो मधुर मिष्ठान सी अब ,पहले थोड़ी चरपरी थी
                               कभी तुम भी छरहरी थी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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